लखीमपुर जिले के साउथ फारेस्ट डिविजन की भीरा रेंज के ग्राम कापटांडा के आसपास चार मानव हत्या करने वाला बाघ यूपी के वन बिभाग के अफसरों की नाकामी और असफलता की सलीब पर चड्कर 20 फरवरी 2009 को मौत की सजा पा चुका है. अब बन बिभाग के ही लोग जो बाघों के रछक थे वही उसे गोली मार कर मौत की नींद सुलाने के लिए बाघ को खोज रहें है.जबकि दो माह पहले किशनपुर वन पशु बिहार के जंगल से बाहर आए इस बाघ को अगर प्रयास किए जाते तो इसे वापस जंगल में भेजा सकता था लेकिन बनाधिकारियो कोई भी ऐसा सार्थक प्रयास नहीं किया. परिणाम बाघ जंगल में भोजन की हुई कमी के कारण खेत में झुकाकर कम कराने वालों को चोपाया समझकर मानव पर हमला शुरु किया और फिर खूंखार बन कर चार मानव ही हत्या करके बाघ आदमखोर बन गया. इसके बाद भी उसे पकड़ने के अथवा बेहोश करने के सार्थक प्रयास नहीं किए गए और बाघ को मानाव के लिए खतरनाक घोषित करके मुख्य वन संरछक वन्यजीव बीके पटनायक ने बाघ को गोली मरने का आदेश जारी कर दिया है. एक तरफ़ पूरा विश्व बाघ संरछण की बात कर रहा है और यूपी के अफसर अपनी नाकामी पर परदा डालने के लिए मानव हत्या का सहारा लेकर यूपी के जंगलों से बाघोन का सफाया कराने से परहेज़ नहीं कर रहे हैं. इससे पहले भी बिभागीय अफसरों की सुस्ती से पीलीभीत के जंगल से निकाला बाघ लखनऊ तक पहुँचा अब वह फ़ैज़ाबाद के आसपास अपनी जान बचता घूम रहा है. इस बाघ को भी बीच में रोक कर जंगल में वापस किया जा सकता था लेकिन यह न करके अपनी नाकामी की चादर की आड़ लेकर इस बाघ को भी मौत की सजा दिलवाने में सफल रहे थे. आख़िर यह कब तक चलेगा. यह स्वयं में बिचारणीय प्रश्न बन गया है. बाघों को आदमखोर घोषित करने से पहले क्या अध्ययन किया जाता है. शायद नही, क्योकि कांपटांडा वाले बाघ में कागजो पर बने गई कमेटी ने बाघ की मौत के फरमान की सिफारिश कर दी थी. यह क्रूर मजाक बाघ के जीवन के साथ क्यों किया गया इसमें साज़िश की स्पस्ट बू आ रही है.भ्रस्टाचार और अफसरों की नालायकी के कारण यूपी में प्रोजेक्ट टाईगर असफलता की डलान पर चल रहा है. तीस साल में अरबों रुपया खर्चने के बाद भी बाघों की संख्या बडने के बजाय घाट ही रही है. आख़िर क्यों ? कहीं न कहीं सिस्टम में झोल है. और नाकाम बनाधिकारी इस पर परदा डाल रहें हैं. राजस्थान का सारिस्का नेशनल पार्क इसका जीता जागता उदाहरण है. वहाँ भी बनाधिकारियो की ही नाकामियों के चलते बाघ गायब हो गए थे. अब यही साज़िश दुधवा नेशनल पार्क के बाघों के साथ रची जा रही है. बाघ जंगल के बाहर क्यों आते हैं इस पर शोध क्यों नहीं किए जा रहें. बिड्म्बना यह है कि दुधवा प्रशासन किसी को इसकी इजाजत भी नहीं देते है. ऐसा क्यो किया जाता है. इसकी जाँच होनी चाहिए. फिलहाल बाघ को मार देना क्या समस्या का स्थाई समाधान है. जवाब होगा शायद नहीं ? और आगे भी कोई बाघ आदमखोर नहीं बनेगा. इसकी भी कोई गारन्टी नहीं है. ऐसी दशा में अब यह आवश्यक हो गया है कि प्रोजेक्ट टाइगर की समीछा की जाए. और मानव तथा वन्यजीवों के बीच बड रहे संघर्श को नई परिभाषा दी जाए ताकि दोनों अपनी सीमाओं में सुरछित जीवन ब्यतीत कर सकें. अन्यथा की सिथति में परिणाम खतरनाक ही निकलेगे. जिसका खामियाजा दोनो को भुगतना पडेगा.,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,डीपी मिश्रा
2 टिप्पणियां:
शान्दार आलेख...बधाई. पन्ना टइगर रिज़र्व में पहले १६ बाघ थे.आज केवल एक बाघ है. बाकी कैसे मरे? कोई सटीक जानकारी नहीं मिल पाती.कानपुर अमर उजाला में मेरे मित्र हैं, संजय शर्मा. शायद आप जानते हों.
thanks you.
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