दुधवा पार्क की स्थापना पर विशेष-
दुधवा का स्वर्णकाल अब बनकर रह गया यादगार
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना दो फरवरी सन् 1977 में वन प्रबन्धन, वन्यजीवों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिये की गई थी। इसके लिये बताए गए नियम तथा कानून यथार्थ में खरे नही उतर रहें हैं। यद्यपि सन् 2000-01 से लागू किये गये दस वर्षीय मैनेजमेंट प्लान के अनुसार चल रहे कार्यो के आशातीत सफल परिणाम नहीं निकल पाये हैं। वरन् वन्यजीवों की संख्या लगातार घटती ही जा रही है। तमाम वन्यजीवों के साथ ही आमरूप से वनराज बाघ के होने वाले दर्शन अब धीरे-धीरे दुर्लभ ही होते जा रहे हैं। जिससे लग रहा है कि वन्यजीवों तथा बाघों से भरपूर दुधवा का लगभग एक दशक पूर्व वाला स्पर्णकाल लोगों के लिये भविष्य में यादगार बनकर रह जायेगा। उधर जंगल के समीपवर्ती गांवों के नागरिक जो वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण व सुरक्षा में आगे रहकर सहभागिता करते थे वही अब पार्क कानून की पाबंदियों से उनके दुश्मन बन गए हैं। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया है कि नागरिकों के हितों को अनदेखी किए बगैर वनजीवन तथा मानव के संबंधों को नई परिभाषा दी जाए तभी सार्थक व दूरगामी परिणाम निकल सकते हंै।
उल्लेखनीय है कि सन् 1861 में अंगे्रजी हुकूमत में काष्ठ उत्पादन के लिये खैरीगढ़ परगना क्षेत्र के 303 वर्ग किमी जंगल को संरक्षित किया गया। तत्पश्चात सन 1886 में मिस्टर ब्राउन द्वारा बनाए गए वैज्ञानिक प्लान के अनुसार यहां वन प्रबंधन की शुरूआत की गई। सन् 1905 में वन विभाग का नियंत्रण हो जाने के बाद विलुप्त प्रजाति बारहसिंघा के संरक्षण के लिये 15.7 वर्ग कि0मी0 वनखेत्र को सोनारीपुर सेंक्चुरी के नाम से संरक्षित किया गया। कालांतर में वन्यजीवों के संरक्षण को ध्यान में रखकर सरकार ने इस क्षेत्रफल को बढ़ाकर 212 वर्ग किमी क्षेत्रफल को दुधवा सेंक्चुरी के रूप में संरक्षित कर दिया। सन् 1977 दो फरवरी को सरकार ने वन, वन्यजीवों के साथ ही जैव-विविधता को संरक्षण देने के लिये दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर दी। 634 वर्ग किमी दुधवा के वन क्षेत्रफल में किशनपुर वन्यजीव बिहार का 204 वर्ग किमी वनक्षेत्र शामिल करके 1987 में दुधवा टाइगर रिजर्व की स्थापना की गई। सन् 1994 में 66 वर्ग किमी आरक्षित वनक्षेत्र दक्षिणी बफर के रूप में जोड़ दिए जाने के बाद कुल 884 वर्ग किमी वनक्षेत्रफल दुधवा टाइगर रिजर्व के तहत संरक्षित हो गया है।
गौरतलब है कि वन तथा वन्यजीवों को संरक्षण व सुरक्षा देने के उद्देश्य से वनपक्षी एवं पशु संरक्षण अधिनियम 1912, भारतीय वन अधिनियम 1927 के बाद वन्यजीव-जंतु संरक्षण अधिनियम 1972 बनाया गया। इनके लगभग बेअसर रहने पर सन् 1991 एवं 2000 और इससे पूर्व भी अधिनियम में किये गये तमाम महत्वपूर्ण संशोधनों के बाद भी उत्तर प्रदेश में वनमाफिया एवं वन्यजीवों तस्करों और शिकारियों की कारगुजारियां बेखौफ जारी हैं। इसके अतिरिक्त वन्यजीवों तथा वन की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये राष्ट्रीय उद्यान के भी नियम कानून बने हुए हैं। जो बदलते परिवेश में अब बेमानी हो गए हंै और दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की प्रगति में बाधक बन गए हैं। राष्ट्रीय उद्यान के कानून एवं नियमों में वन्यजीवों का जीवनचक्र प्रभावित न हो इसलिए उनके वासस्थल क्षेत्र में मानव प्रवेश निषिद्ध करके उनको प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध कराने की इसमें परिकल्पना की गई है। साथ ही जैव विविधता को संरक्षण देने के उद्देश्य से जंगल में जो जैसा है वैसा ही रहेगा उसमें परिवर्तन न किए जाने का कानून भी बनाया गया है। किताब में तो यह कानून अच्छा है लेकिन यथार्थ के आइने में यह नियम-कानून खरे नहीं उतर रहें हैं। इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियाँ विषम हैं और ग्रामीणजन राष्ट्रीय उद्यान बनने से पूर्व जंगल से वन उपज का लाभ लेते रहे जिस पर अब पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके कारण वन तथा वन्यजीवों के संरक्षण में संवेदनशील हो भावात्मक रूप से जुड़े ग्रामीणों का स्वभाव इनके प्रति क्रुर हो गया है तथा वन उपज की चोरी को बढ़ावा भी मिला है। यहां एक विचारणीय बात यह भी है कि वन्यजीवों द्वारा मारे गए पालतू पशु का मुआवजा जो सरकार द्वारा निर्धारित किया गया है, वह काफी कम है। जैसे बैल का 2300 रुपए, भंैसा 2500 रुपए तथा गाय-घोड़ा का 1200-1200 रुपए आदि देने के साथ ही फसल क्षतिपूर्ति भी लगभग नाममात्र निर्धारित है। जबकि दुधवा में सफलता पूर्वक चल रही गैण्डा पुर्नवासन परियोजना के तहत विचरण करने वाले 30 सदस्यीय गैण्डा परिवार के सदस्य अक्सर जंगल के बाहर आकर कृषि फसलों को भारी क्षति पहुचाते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि लगभग 24 साल इस परियोजना को हो जाने के बाद भी प्रदेश सरकार द्वारा गैण्डा से होने वाली फसल क्षति का मुआवजा का निर्धारण अभी तक नही किया गया है। वनपशुओं से होने वाली जानमाल की क्षति की वाजिब भरपाई न होने से ग्रामीणजन हमेशा वन्यजीवों को दुश्मन की निगाह से देखते हैं।
उधर दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना हो जाने के बाद सन् 1983 से 1993 तक वन विशेषज्ञ विश्व भूषण गौड़ द्वारा बनायी गई वन प्रबंधन कार्य योजना पर यहां कार्य किया गया। इसमें वन एवं वंयजीव संरक्षण जैव विविधता की सुरक्षा के साथ ही काष्ठ उत्पादन को भी प्रमुखता दी गई थी। तत्पश्चात सन् 1993-94 से 2000-01 तक डा0 आर0एल0 सिंह की वार्षिक कार्य योजना के तहत वन प्रंबधन किया गया। वर्तमान में यहां तैनात रहे तत्कालीन फील्ड निदेशक व अब सूबे के प्रमुख वन संरक्षक रूपक डे द्वारा तैयार की गई कार्ययोजना पर पूर्णतया वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रबंधन किया जा रहा है। इस पर सन् 2010 तक कार्य चलेगा। इस प्लान में वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन, वन्यजीवों की प्रगति आधारित अनुश्रवण, आद्र क्षेत्रों का विकास, फायर कंट्रोल एवं प्राकृतवास पर प्रतिकूल कारकों को चिन्हिृत कर उनके नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है। दस साल का समय व्यतीत हो रहा है लेकिन इस कार्य योजना के भी अनुकूल परिणाम नही निकले हैं। अलबत्ता अति संरक्षण के चलते मानव एवं वन्यजीवों के बीच की खाई चैड़ी ही होती जा रही है और इससे जंगल में वन्यजीवों की संख्या में भी गिरावट दर्ज हो रही है। जबकि वन विभाग लगातार कागजों में वन्यजीवों की संख्या को बढ़ाकर दर्शित करता आ रहा है। वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण व सुरक्षा के लिये विश्व प्रकृति निधि-भारत द्वारा नई कार्ययोजना का प्रारूप तैयार किया जा रहा है। इस कार्ययोजना को तैयार करने वालों ने अगर वन्यजीवों के साथ में मानव के हितो को भी ध्यान में रखकर कार्ययोजना तैयार नही की तो शायद इसका हस्र भी पूर्ववर्ती कार्ययोजनाओं की तरह ही होगा। इस बात से इन्कार नही किया जा सकता है।
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान को स्थापित हुए 33 साल व्यतीत हो गए हैं। इसके लाभ-हांनि का यदि आंकलन मोटे तौर पर किया जाए तो बचे-खुचे वन तथा वन्यजीवों की सुरक्षा व संरक्षण की दृष्टि से आवश्यकता के अनुरूप किया जा रहा वन प्रबंधन समय की मांग है और इसमें सभी को सहयोग भी देना चाहिए। लेकिन संरक्षण की अधिकता में मानवहित को नजरंदाज किया जा रहा है इससे आशातीत परिणाम नहीं निकल रहें हैं। वन विभाग तथा आमजनता के बीच बढ़ी दूरियां वन प्रबंधन के लिये हितकर नहीं कही जा सकती हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम है पिछले पांच साल में वन्यजीवों की लगातार घटती संख्या है। पार्क स्थापना से पूर्व जब जंगल में मानव प्रवेश निषेद्ध नहीं था; तब घास-फूस, जलौनी लकड़ी आदि वन उपज का लाभ ग्रामीणों को दिया जाता था; अब इसे ग्रासलैण्ड मैनेजमेन्ट के तहत जलाया जाता है। इससे जमीन पर रेंगने वाले जीव-जंतु जलकर मर जाते हैं तथा कीमती लकड़ी जिसे बंेचकर राजस्व प्राप्त किया जा सकता है वह भी कोयला बन जाती है। वन विभाग संरक्षित वन क्षेत्र को पूर्णतया निषिद्ध बनाने के प्रयास में लगा हुआ है। इससे प्राकृतिक परिस्थितियां तो उत्पन्न हो जाएगीं। किंतु जो परिणाम अब तक नही निकल पाए हैं इससे सार्थक दूरगामी परिणाम क्या निकल पाएगें। इस पर सवालिया निशन पूर्ववत् लगा हुआ है। बढ़ती जनसंख्या, बदलते परिवेश एवं विषम परिस्थितियांे में यह आवश्यक हो गया है कि अब वन एवं वन्यजीवों तथा मानव के संबंधों को नई परिभाषा दी जाए जिससे मानव का भावात्मक लगाव वन्यजीवों के प्रति पैदा हो सके। इसको नजरदंाज करके उठाए गए कदम फलदायक कदापि नहीं होगें। (लेखक वाइल्ड लाईफर एवं पत्रकार है)