सोमवार, 24 अगस्त 2009

पक्षियों की आरामगाह - सुल्तानपुर नेशनल पार्क

सुल्तानपुर नेशनल पार्क वाईल्ड लाईफ फोटोग्राफर्स, पक्षी प्रेमियों तथा प्रकृतिप्रेमियों के लिए एक बेहतर स्थान है। हालाँकि दूसरी बर्ड सेन्च्यू‍रियों की तुलना में यह अपेक्षाकृत छोटा है परंतु फिर भी अब तक इसकी प्राकृतिक सुंदरता को बहुत ही अच्छे ढ़ंग से सहेजा गया है। सुल्तानपुर नेशनल पार्क दिल्ली से 45 किमी दक्षिण-पश्चिम में तथा गुड़गाँव से 15 किमी की दूरी पर स्थित है। अनेकानेक प्रकार के पक्षी, घने पेड़ों व झीलों से सुशोभित यह नेशनल पार्क 'हरियाली के स्वर्ग' के समान है। यहाँ आकर आपके मन को एक सुकून का अनुभव होता है। सुल्तानपुर को सन् 1972 में 'वाटर बर्ड रिर्जव' के रूप में घोषित किया गया।यहाँ पर बहुत सारी छोटी-छोटी झाडि़याँ, घास का मैदान और बहुत अधिक संख्या में बोगनवेलिया के पौधे हैं। ये सभी हमें यहाँ प्रकृति की गोद में कुछ समय बिताने के लिए आमंत्रित करते हैं। यह नेशनल पार्क प्रवासी पक्षियों की आरामगाह के रूप में जाना जाता है। सितम्बर माह से यहाँ तरह-तरह के प्रवासी पक्षियों का आगमन प्रारंभ हो जाता है।
इन दुर्लभ पक्षियों के जमावड़े व अठखेलियों से पार्क की खूबसूरती में चार चाँद लग जाते हैं। पार्क के सुंदर नजारे व विविध प्रकार के पक्षियों को निहारने के लिए यहाँ कई सारे वॉच टावर बनाए गए हैं, जहाँ से आप पार्क की खूबसूरती व इन पक्षियों के कार्यकलापों को करीब से देखने व जानने का लुत्फ उठा सकते हैं। सुल्तानपुर बर्ड वॉचिंग प्लेस के रूप में भी जाना जाता है। यहाँ आप झील के निर्मल जल में तैरते, इधर-उधर फुदकते, आसमान में उड़ान भरते पक्षियों को बहुत करीब से देख सकते हैं। पक्षियों की सुरक्षा व स्वच्छंदता में कोई खलल न हो इसलिए यहाँ की झीलों में नौकायन की मनाही है। यहाँ आपको किंगफिशर, ग्रे पेलिकेन्स, कार्मोरेंटस, स्पूनबिल्स, पोंड हेरोंस, व्हाइट इबिस आदि पक्षी भी देखने को मिल जाएँगे। इसके अलावा नीलगाय भी यहाँ के प्रमुख आकर्षणों में से एक है। यदि आप भी सुल्तानपुर नेशनल पार्क की सैर करना चाहते हैं तो आप दिसम्बर से जनवरी माह के बीच का समय यहाँ आने का बेहतर समय है क्योंकि इस वक्त यहाँ दुर्लभ प्रवासी पक्षियों का जमावड़ा लगता है, जो कई मीलों की दूरी तय करके यहाँ आते हैं। सुल्तानपुर क्यों है खास :- * कई प्रकार के दुर्लभ पक्षियों की उपलब्धता। * प्राकृतिक सुंदरता से आच्छादित स्थल। * एक अच्छा पिकनिक स्पॉट। * हरियाणा टूरिज्म के बेहतर होटल उपलब्ध। * वॉच टॉवर से पक्षियों को करीब से देखने का मजा। * एक छोटा म्यूजियम व लाइब्रेरी।

'सरिस्का' से भी नहीं लिया सबक

मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से बाघों का पूरी तरह सफाया हो चुका है। यह बात अब कई सरकारी एवं गैर सरकारी जाँच एजेंसियों ने अपनी रिपोर्टों में पुष्ट कर दी है।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा गठित विशेष जाँच टीम की रिपोर्ट आने के बाद तो अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि पन्ना टाइगर रिजर्व में अब एक भी बाघ नहीं बचा है। इस जाँच टीम ने इस बात का भी खुलासा किया है कि पन्ना में वर्ष 2002 और 2005 के बीच सर्वाधिक बाघों का शिकार हुआ। बाघों के शिकार का यह सिलसिला जनवरी 2009 तक जारी रहा जब तक पन्ना का अंतिम बाघ बचा था।पन्ना में बाघों के गायब होने तक एक बाघ विशेषज्ञ चिल्ला-चिल्लाकर कहता रहा कि यहाँ बाघों का अस्तित्व खतरे में है और उन्हें बचाए जाने के लिए जल्दी ही कुछ किया जाना चाहिए, लेकिन उस विशेषज्ञ की बात पर मध्यप्रदेश के वन विभाग ने कोई कान नहीं धरा। यहाँ बात हो रही है बाघ विशेषज्ञ डॉ. रघु चुंडावत की।इनकी 'द मिसिंग टाइगर आफ पन्ना' नामक रिपोर्ट को भी पार्क के तत्कालीन अधिकारियों द्वारा अनदेखा किया गया और अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए बाघों की संख्या के अतिरंजित आँकड़े पेश किए गए। इस पूरे प्रकरण ने सरिस्का की याद ताजा कर दी। चार साल पहले वहाँ गायब हुए बाघों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर हंगामा खड़ा हुआ था। उस मामले ने इतना तूल पकड़ा था कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह खुद रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान आए थे और उन्होंने पूरे देश के सभी प्रदेशों के वन विभागों के प्रमुखों से इस संबंध में बात की थी। उस दौरान ही राष्ट्रीय स्तर पर 'टाइगर टास्क फोर्स' का गठन हुआ था, जिसका नेतृत्व सीएसई (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट) प्रमुख सुनीता नारायण को सौंपा गया था। बाद में उस समिति ने अपनी बहुचर्चित रिपोर्ट 'जोइनिंग द डाट्स' केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी थी। उस रिपोर्ट में हर उस बात का उल्लेख था जो बाघों के खत्म होने के पीछे कारण बनी थी और हर उस बात का उल्लेख भी था जिसे अपनाकर बाघों को बचाया जा सकता था। यह रिपोर्ट आज भी सीएसई की वेबसाइट पर उपलब्ध है। इतना ही नहीं इस रिपोर्ट को भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून की वेबसाइट पर जाकर भी पढ़ा जा सकता है। यहाँ सरिस्का का उदाहरण इसलिए दिया है क्योंकि वो देश की पहली ऐसी बाघ परियोजना (प्रोजेक्ट टाइगर) है, जहाँ बाघ शिकार के कारण खत्म हो गए थे। उसके बाद राजस्थान के दूसरे प्रोजेक्ट टाइगर रणथम्भौर में भी कमोबेश यही स्थिति बनी। हालाँकि वहाँ बाघ खत्म नहीं हुए थे, लेकिन उनकी संख्या 47 से घटकर मात्र 21 रह गई थी। यानी आधी से भी कम।रणथम्भौर में बाघ कम होने वाली बात भी सबसे पहले अक्टूबर 2004 में इस लेखक ने ही उठाई थी। उन 3-4 सालों में देखा गया कि कैसे वन विभाग के अधिकारी आँकड़ों की हेरा-फेरी करके जनता की आँखों में धूल झोंकते रहते हैं। पर्यटकों को यह पता ही नहीं चलता कि उन्हें जो आँकड़े बताए जा रहे हैं असलियत में बाघ उससे बहुत कम संख्या में बचे हैं।पन्ना प्रकरण के सामने आने के बाद तो ऐसा लगा कि इतिहास ने अपने को दोहरा दिया है। वही गलतियाँ फिर से हुईं। वन विभाग के अधिकारियों ने इन दोनों प्रकरणों में सिर्फ झूठ बोला। बाघ दिखाई नहीं देने के बाद भी सिर्फ यही बताया गया कि बाघ इस जंगल में हैं और उनकी संख्या बढ़ रही है। रणथम्भौर प्रकरण के दौरान वहाँ के प्रसिद्ध बाघ विशेषज्ञ फतेहसिंह राठौड़ की संस्था 'टाइगर वॉच' ने कई बार वहाँ के वन विभाग को चेताया था कि यहाँ बाघों का शिकार हो रहा है, लेकिन अधिकारियों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।आखिर जब मीडिया में इस विषय संबंधी खबरें छपीं तब वसुंधरा राजे की तत्कालीन सरकार की नींद खुली और उसने टाइगर टास्क फोर्स का गठन किया। इस समिति ने भारतीय वन्यजीव संस्थान की मदद से रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की गिनती करवाई जो आश्चर्यजनक रूप से कम निकली। अब सरिस्का और रणथम्भौर की तरह ही पन्ना का भी हाल हुआ है और मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार की नींद भी तब जाकर खुली है, जब पन्ना टाइगर रिजर्व के सभी बाघों का शिकार हो गया है। अब पन्ना में भी भारतीय वन्यजीव संस्थान की मदद से इस पूरे प्रकरण को सुलझाने का प्रयास किया जा रहा है। कान्हा तथा बाँधवगढ़ से बाघ-बाघिनों को लाए जाने की योजना बनाई जा रही है। दो बाघिनें वहाँ लाई भी जा चुकी हैं, लेकिन बाघ ना होने की वजह से वो 'मेटिंग सीजन' होने के बावजूद भी प्रजनन करने में समर्थ नहीं हैं।'प्रोजेक्ट टाइगर' के अनुसार देश में बाघों की हालत खस्ता है। उसकी एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन सालों में 100 से ज्यादा बाघ मारे गए हैं, जिनमें से आधे तो इसी साल (2009) में मारे गए हैं। भारत के विभिन्न प्रदेशों के वन विभागों ने इतने पर भी अपना ढर्रा नहीं बदला और झूठ बोलना जारी रखा तो हमारे देश का राष्ट्रीय पशु एक दिन खत्म हो जाएगा। अगर देश में 'सरिस्का' बार-बार यूँ ही दोहराए जाते रहे तो सभी योजनाएँ धरी की धरी रह जाएँगी।सरकारों को वन विभाग के दावों की किसी गैर सरकारी संगठन या स्वायत्त संस्था से पुष्टि कराते रहनी चाहिए ताकि वन विभाग झूठे आँकड़े पेश करने से पहले कई बार सोच ले। सरकार को 'वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट' और उसके अंतर्गत होने वाली सजाओं को भी सख्ती से लागू करना चाहिए ताकि बाघों तथा अन्य वन्यजीवों की हत्या करने वालों को यह पता चल जाए कि वो एक जघन्य कृत्य कर रहे हैं और उसकी उन्हें सख्त सजा मिलेगी।अगर प्रदेश सरकारें यह सख्त रवैया अपनाएँगी तभी वे अपने यहाँ के जंगलों और उनमें रहने वाले वन्यजीवों को बचा पाएँगी। अगर ऐसा नहीं हो पाया तो देश के जंगलों में वन्यजीव आँकड़ों में तो जीवित दिखेंगे, लेकिन असलियत में नहीं।

टाइगर रिजर्व को मिली अनुमति

मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में एक नर बाघ स्थानांतरित करने के लिए केन्द्र सरकार से अनुमति मिल गई है। वहीं उच्च न्यायालय ने बाघ संरक्षण के मुद्दे पर कल एक जनहित याचिका पर सरकार से एक माह में जवाब माँगा है। प्रदेश के प्रमुख मुख्य वन संरक्षक (वन्यप्राणी) एच.एस.पाबला ने बताया कि कल ही हमें केन्द्र से पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघ स्थानांतरित करने की अनुमति मिली है। उल्लेखनीय है कि 542 वर्ग किलोमीटर में फैले पन्ना टाइगर रिजर्व से बाघों के खत्म होने की पुष्टि के बाद इस साल मार्च में बांधवगढ़ और कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से दो बाघिन स्थानांतरित की गई थीं। वहाँ एक नर बाघ की मौजूदगी देखी गई थी। लेकिन इसके कुछ दिन बाद वहाँ देखा गया एकमात्र नर बाघ फिर दोबारा नजर नहीं आया।

पन्ना टाइगर रिजर्व हुआ बाघविहीन

देश के शीर्ष वन्यजीव विशेषज्ञों ने पन्ना टाइगर रिजर्व में एक भी बाघ नहीं होने की आधिकारिक घोषणा करते हुए कहा कि यह देश का दूसरा "सरिस्का" बन चुका है। इससे टाइगर स्टेट के नाम से मशहूर मध्यप्रदेश को करारा झटका लगा है।देश-विदेश में बाघों के लिए प्रसिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या की जाँच-प़ड़ताल के लिए केंद्र सरकार की ओर से भेजी गई केंद्रीय जाँच कमेटी के प्रमुख पीके सेन ने शुक्रवार को पन्ना टाइगर रिजर्व के मंडला स्थित विश्रामगृह में पत्रकारों को यह जानकारी दी। श्री सेन ने दुःख जताते हुए कहा कि पन्ना में अब एक भी बाघ नहीं बचा है। उल्लेखनीय है कि सरिस्का टाइगर रिजर्व में 2004 में बाघों का पूरी तरह सफाया हो गया था और यह एक राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बना था।श्री सेन ने बताया कि संपूर्ण रिपोर्ट मई अंत तक केंद्र सरकार को सौंप दी जाएगी। उन्होंने आश्चर्य जताया कि यहाँ के वरिष्ठ अधिकारी बाघों के होने की बात कह रहे थे और इसी आधार पर हाल में बाघ और बाघिनों के बीच संतुलन बनाने के उद्देश्य से दो बाघिनों को क्रमशः कान्हा और बाँधवग़ढ़ से लाया गया। अब इन बाघिनों को बाघ नहीं मिल रहे हैं। वन विभाग के सूत्रों के अनुसार अधिकारी दो वर्ष पहले तक पन्ना में 30 से 35 बाघों के होने की बात कह रहे थे। लेकिन श्री सेन ने कहा कि पन्ना टाइगर रिजर्व जनवरी 2009 से बाघविहीन है।

आवश्यक है पर्यावरण संरक्षण

संसार में सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण करके भोजन के निर्माण का कार्य केवल हरे पौधे ही कर सकते हैं। इसलिए पौधों को उत्पादक कहा जाता है। पौधों द्वारा उत्पन्न किए गए भोजन को ग्रहण करने वाले जंतु शाकाहारी होते हैं और उन्हें हम प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहते हैं।
जैसे-गाय, भैंस, बकरी, भेड़, हाथी, ऊंट, खरगोश, बंदर ये सभी प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं को भोजन के रूप में खाने वाले जंतु मांसाहारी होते हैं और वे द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। इसी प्रकार द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं को खाने वाले जंतु तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऊर्जा का प्रवाह सूर्य से हरे पौधों में, हरे पौधों से प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं में और प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं से द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं से और फिर उनसे तृतीय श्रेणी के उपभोक्ताओं की ओर होता है। सभी पौधे और जंतु वे चाहे किसी भी श्रेणी के हों, मरते अवश्य हैं। मरे हुए पौधों व जंतुओं को सड़ा-गलाकर नष्ट करने का कार्य जीवाणु और कवक करते हैं। जीवाणु और कवकों को हम अपघटक कहते हैं।
ऊर्जा के प्रवाह को जब हम एक पंक्ति के क्रम में रखते हैं तो खाद्य श्रृंखला बन जाती है। जैसे हरे पौधे-कीड़े-मकोड़े-सर्प-मोर। यह एक खाद्य श्रृंखला है। इसमें हरे पौधे उत्पादक, कीड़े प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता, मेंढक द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता, सर्प तृतीय श्रेणी का उपभोक्ता और मोर चतुर्थ श्रेणी का उपभोक्ता है। इसी प्रकार की बहुत-सी खाद्य श्रृंखलाएं विभिन्न पारितंत्रों में पायी जाती हैं।
प्रकृति की व्यवस्था स्वयं में पूर्ण है। प्रकृति के सारे कार्य एक सुनिश्चित व्यवस्था के अतंर्गत होते रहते हैं। यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों का अनुसरण करता है तो उसे पृथ्वी पर जीवन-यापन की मूलभूत आवश्यकताओं में कोई कमी नहीं रहती है। मनुष्य का दुश्चिंतन ही है, जो अपने संकीर्ण स्वार्थ के लिए प्रकृति का अति दोहन करता है, जिसके कारण प्रकृति का संतुलन डगमगा जाता है।
परिणामत बाढ़, सूखा जैसी आपदाएं भारी जान-माल की हानि पहुंचाती हैं। प्रकृति के स्वाभाविक कार्य में कोई बाधा न डाली जाए तो ही पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकता है। यदि किसी खाद्य श्रृंखला को तोड़ दिया जाए, तो मनुष्य को हानि ही हानि होती है। उदाहरण के लिए एक वन में शेर भी रहते हैं और हिरन भी। खाद्य श्रृंखला के अनुसार हिरन प्रथम श्रेणी का उपभोक्ता और शेर द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता है। शेर हिरन को खाता रहता है। यदि शेरों का शिकार कर दिया जाए तो हिरन वन में बहुत अधिक संख्या में हो जाते हैं और उनके लिए वन की घास कम पड़ती है तो वे फसलों को हानि पहुंचाकर पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ देते हैं।
इसी प्रकार एक वन में से हिरनों का शिकार कर दिया जाए तो शेर को वन में भोजन न मिलने पर वह बस्ती की ओर आता है और नर भक्षी हो जाता है। जो खाद्य श्रृंखला प्राकृतिक रूप से चल रही थी, उसे तोड़ने पर पर्यावरण को सुरक्षित रखना संभव नहीं हो सकता है।
पर्यावरण के संरक्षण में अपघटक अर्थात् जीवाणु और कवकों का बहुत अधिक योगदान है। मरे हुए जीव-जंतुओं को सड़ा-गला कर अपघटन का कार्य ये ही करते हैं। यदि ये अपघटक न रहे होते तो इस पृथ्वी पर मरे हुए जीवों के ढेर लगे दिखाई देते और यह पृथ्वी मनुष्य के रहने योग्य नहीं रह जाती।
बहुत से जीव-जंतु हमें बिल्कुल अनुपयोगी और हानिकारक प्रतीत होते हैं, लेकिन वे खाद्य श्रृंखला की प्रमुख कड़ी होते हैं और उनका पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। जैसे कीड़े-मकोड़े पौधों के तनों और पत्तियों को खाकर फसलों को बहुत हानि पहुंचाते हैं। ये पक्षियों का भोजन बनकर पक्षियों से फसल को सुरक्षित रखते हैं और पक्षी इन कीड़ों को खाकर कीड़ों से फसल की रक्षा करते हैं। इन कीड़ों के अभाव में पक्षी फसलों को अपेक्षाकृत अधिक हानि पहुंचा सकते थे।
इसी प्रकार सांप मनुष्य को बड़ा हानिकारक और खतरनाक दिखाई देता है, लेकिन यह एक खाद्य श्रृंखला का महत्वपूर्ण अंग होने के कारण मानव जाति के लिए बड़ा उपयोगी है, किसानों का मित्र भी है। चूहा किसानों का शत्रु है, जो बहुत मात्रा में अन्न को खाकर बर्बाद कर देता है। सांप चूहों को खाकर उनकी संख्या को नियंत्रित करता रहता है। यदि खेतों में सांप न होते तो चूहों की संख्या इतनी अधिक हो जाती कि ये सारी फसल को खा जाते। घास के मैदान में फुदकने वाला मेंढक व्यर्थ का जंतु प्रतीत होता है, लेकिन मक्खी-मच्छरों को खाकर पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि खाद्य श्रृंखला को तोड़ने पर मनुष्य को हानि ही हानि होती है। इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता है। यह तो रही वन और कृषि योग्य भूमि के परतंत्र की बात। जलीय परतंत्र को देखें तो समुद्र में खाद्य श्रृंखला इस प्रकार रहती है- हरी शैवाल उत्पादक होती है। शैवाल को छोटी मछलियां और छोटी मछलियों को बड़ी मछलियां खा जाती हैं।
इस प्रकार मछलियों की संख्या नियंत्रित रहती है, अन्यथा यदि छोटी मछली को बड़ी मछली न खाती तो मछलियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है। फलस्वरूप समुद्र में मछलियों की भीड़ हो जाती और समुद्र का पर्यावरण ही गड़बड़ा जाता।
हरे वृक्ष प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड को लेते हैं और ऑक्सीजन को निकालते हैं, इस प्रकार वातावरण को शुद्ध करते हैं। ऑक्सीजन सभी जंतुओं को सांस लेने के लिए अति आवश्यक है। मनुष्य ने अत्यधिक संख्या में वृक्षों को काट कर इस श्रृंखला को तोड़ा है जिसका परिणाम बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में तथा वायु-प्रदूषण के कारण विभिन्न बीमारियों के रूप में मनुष्य को सहन करना पड़ रहा है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है कि हम स्वाभाविक खाद्य श्रृंखलाओं में कोई व्यवधान उत्पन्न न करें।
जीव जीवस्य भोजनम् के अनुसार कोई जीव किसी का भक्षण करता है तो कोई दूसरा जीव उसका भक्षण कर जाता है। सभी समुचित संख्या में पृथ्वी पर उत्पन्न होते रहें, ताकि खाद्य श्रं=खलाएं सुचारू रूप से चलती रहें, इसके लिए समस्त जीवों का सरंक्षण करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। मनुष्य के लिए जीव हत्या पाप है। मनुष्य अप्राकृतिक रूप से तो सर्वभक्षी है। वह सभी श्रेणी के जीव- जंतुओं को खा सकता है, लेकिन शारीरिक संरचना और प्राकृतिक स्वभाव के अनुसार वह शुद्ध शाकाहारी है। मांसाहार के लिए एवं शिकार के शौक में मनुष्य ने तमाम वन के जंतुओं का शिकार कर पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ा है। आज सभी मनुष्यों का यह धर्म है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए वे जीव-हत्या जैसे जघन्य अपराध से बचें, सभी जंतुओं को संरक्षण प्रदान करें, अधिक से अधिक वृक्ष लगाएं। हरे वृक्ष शाकाहारी और मांसाहारी जंतु सभी को यदि संरक्षण मिलता रहा तो खाद्य श्रृंखलाओं में कोई व्यवधान नहीं आएगा और इसी से पृथ्वी का पर्यावरण भी सुरिक्षत रह सकेगा। सरकार भी इसके लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार के पक्षी और अन्य जंतुओं के शिकार पर पूर्णत कानूनी रोक लगी हुई है। कानून अपनी जगह काम करता है, लेकिन बिना जन-चेतना के किसी भी सफलता की आशा रखना व्यर्थ है।
समाज के निर्माण में लगी समाज सेवी संस्थाओं को विभिन्न प्रचार माध्यमों से जन- चेतना जाग्रत करने में अपने समय, धन एवं श्रम का सदुपयोग करना चाहिए। विद्यालयों में छात्रों को पर्यावरण संरक्षण हेतु अपने दैनिक कार्यों में ऐसी आदतें डालने का प्रयास करना चाहिए, ताकि पृथ्वी का वातावरण सुन्दर, सुरम्य एवं मनमोहक बन सके। वृक्षारोपण एवं वन्य जीव संरक्षण का महत्व जन-जन को समझाने का प्रयास किया जाना चाहिए। चूंकि वृक्ष खाद्य श्रृंखला की प्रथम कड़ी हैं, अतपर्यावरण के संरक्षण में वृक्षों का सबसे अधिक महत्व है। अपने जन्म दिन पर, बच्चों के जन्मदिन पर, विवाह दिवस पर, विवाह की रजत जयंती पर अथवा अन्य मांगलिक अवसरों पर स्मृति के रूप में वृक्ष लगाने की स्वस्थ परंपरा आरंभ करने की आवश्यकता है। समाज को इस दिशा में सकारात्मक पहल कर इस प्रथा को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए।

बाघ की तीन उप प्रजातियाँ हुईं विलुप्त

दुनियाभर में जंगल के राजा कहे जाने वाले बाघों और शेरों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

गुजरात के गिर अभयारण्य में जहाँ हाल ही में ग्रामीणों द्वारा बिजली के करंट से की गई पाँच शेरों की हत्या ने वन्यजीव प्रेमियों को सकते में डाल दिया है, वहीं इंडोनेशिया में विपरीत परिस्थितियों के चलते पिछली सदी में बाघ की तीन उप प्रजातियों का पूरी तरह से नामोनिशान मिट गया है।

विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) शेरों और बाघों की निरंतर घट रही संख्या से परेशान हैं और उसने प्रकृति के इन जाँबाज प्राणियों की रक्षा के लिए अधिक से अधिक कदम उठाने का आह्वान किया है।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक पिछली सदी बाघों के लिए खतरनाक रही और वही परिस्थितियाँ अब भी जारी है।

संगठन का कहना है कि पिछली सदी में इंडोनेशिया में बाघों की बाली कैस्पेन और जावा तीन उप प्रजातियाँ पूरी तरह विलुप्त हो गईं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के अनुसार वन्यजीवों को खतरे के मामले में लगभग पूरी ही दुनिया में हालात एक जैसे हैं और दक्षिणी चीनी बाघ प्रजाति भी तेजी से विलुप्त होने की ओर बढ़ रही है।

संगठन का कहना है कि सरकारी और गैर सरकारी संरक्षण प्रयासों के बावजूद विपरीत परिस्थितियाँ निरीह प्राणियों की जान लेने में लगी हैं। बाघों और शेरों की जान कई बार अभयारण्यों में बाढ़ का पानी भर जाने से चली जाती है तो कई बार सुरक्षित स्थानों की ओर भागने के प्रयास में वे या तो वाहनों के पहियों से कुचले जाते हैं या फिर घात लगाकर बैठे शिकारियों का निशाना बन जाते हैं।

गुजरात के गिर अभयारण्य में हाल के वर्षों में 33 शेरों की जान जा चुकी है। इनमें से कुछ प्राकृतिक कारणों से मारे गए, तो कुछ को ग्रामीणों या शिकारियों ने मार डाला।

हाल ही में एक ग्रामीण परिवार ने गिर अभयारण्य के पाँच शेरों को बिजली के करंट से मार डाला। इस परिवार ने अपने खेतों के इर्द-गिर्द लगाए गए तारों में बिजली का करंट छोड़ रखा था।

अक्टूबर के महीने में असम के ओरांग नेशनल पार्क में ग्रामीणों ने जहर देकर दो बाघों को मार डाला। भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट (डब्ल्यूटीआई) के अधिकारियों का कहना है कि ग्रामीणों ने वन्यजीवों द्वारा अपने पशुओं पर होने वाले हमलों का बदला लेने के लिए संभवत: ऐसा किया।

पार्क के संरक्षित क्षेत्र के नजदीक रहने वाले ग्रामीणों ने एक भैंस के शव पर जहर छिड़ककर कर उसे जंगल में फेंक दिया। भैंस का माँस खाकर दो बाघों की मौत हो गई। एक बाघ का शव दो अक्टूबर को भाबापुर गाँव के नजदीक पार्क के क्षेत्र में मिला, जबकि दूसरे बाघ का शव इसी क्षेत्र में चार अक्टूबर को मिला।

बाघों और शेरों की संख्या में निरंतर आ रही गिरावट विश्वभर के वन्यजीव प्रेमियों के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है।

चीतों का नया आशियाना बसाने का प्रयास


चीता जिसकी फुर्ती और तेजी की लोग मिसालें देते हैं, वह भारत से विलुप्त हो चुका है। पिछले एक हजार साल में भारत की सरजमी से विलुप्त होने वाला वह एकमात्र स्तनपायी जानवर है। सबसे तेज दोड़ने वाला यह चौपाया एक समय भारत के जंगलों में खूब पाया जाता था।

जानवरों का शिकार करने वाला यह खूबसूरत जानवर इंसानी शिकार का इस कदर शिकार हुआ कि देश से इसका नामोनिशान मिट गया। अब एक बार फिर इसे अफ्रीका से भारत लाने और यहाँ उसका प्रजनन कराने की तैयारी हो रही है। मिशन सफल होने पर भारत में हम टाइगर रिजर्व की ही तरह चीता रिजर्व या चीता सफारी पार्क देख सकेंगे जबकि चीते के बारे में अभी जानकारी सिर्फ तस्वीरों और डॉक्यूमेंट्री के जरिए मिलती है।

चीतों को भारत लाने और उनका प्रजनन कराने की कोशिश पिछले कई सालों से चल रही है लेकिन हर बार राजनीतिक कारणों से इसकी राह में रोड़ा आता रहा। कुछ साल पहले ईरान से समझौता हुआ था कि वहाँ से चीता भारत लाया जाएगा और भारत से शेर ईरान जाएगा लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इसके लिए राजी नहीं हुए।

वह 'भारतीय गौरव' को ईरान जैसे देश को देने के लिए तैयार नहीं थे। इस बार दक्षिण अफ्रीका से चीता लाने की बात चल रही है। भारत सरकार एक गैर सरकारी संस्था वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) के प्रस्ताव पर यह योजना बना रही है।

चीता बसाओ परियोजना पर पर्यावरणविदों ने सवाल उठाते हुए कहा कि करोड़ों खर्च करने के बाद जो पर्यावरण एवं वन मंत्रालय शेरों को नहीं बचा पाया, वह किस मुँह से चीतों को लाने औऱ बसाने की बात कर रहा है। वर्ष 1900 में भारत में 1 लाख बाघ थे जो आज 1300 रह गए है।यह महत्वाकांक्षी परियोजना दो चरणों में है। पहले चरण में, दक्षिण अफ्रीका से चीता लाया जाएगा। फिर इन्हें विशेष रूप से बनाए गए बाड़ों में रखा जाएगा, वहाँ इनका प्रजनन कराया जाएगा। इसके बाद दूसरे चरण में अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा और ये भारतीय जलवायु से तालमेल बैठाने में कामयाब रहे तो इन्हें जंगलों में छोड़ा जाएगा।

हालांकि खुद जयराम रमेश का भी मानना है कि दूसरे चरण में काफी समय लगेगा। चीतों के हिसाब के जंगल या मैदान भारत में कहाँ और कितने हैं, इसकी अभी खोजबीन करनी है।

एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि चीते और शेर एकसाथ नहीं रह सकते, इसलिए उनकी रिहाइश के लिए अलग व्यवस्था भी एक टेढ़ी खीर है।

साथ ही 'चीता बसाओ परियोजना' पर पर्यावरणविदों ने सवाल उठाते हुए कहा कि करोड़ों खर्च करने के बाद जो पर्यावरण एवं वन मंत्रालय शेरों को नहीं बचा पाया, वह किस मुँह से चीतों को लाने औऱ बसाने की बात कर रहा है। वर्ष 1900 में भारत में एक लाख बाघ थे जो आज सिमटकर 1300 रह गए हैं।


NDSUNDAY MAGAZINEयह कल्पना अपने आप में बहुत रोमांचकारी है कि भारत में चीता फिर से दौड़ सकता है। मूल रूप से चीता संस्कृत का शब्द है और इसका उल्लेख भारतीय साहित्य में विस्तार से मिलता है। विशेषकर अकबरनामा तथा जाहँगीरनामा में चीते का बहुत खूबसूरत चित्रण है। बीसवीं सदी की शुरुआत तक भारत में कई हजार चीते थे लेकिन आज एक भी नहीं है।

पूरे एशिया में 60 से ज्यादा चीते नहीं बचे हैं। भारत में आखिरी तीन एशियाई चीतों को 1947 में सरगूजा के महाराज ने मार डाला था। इन्हीं महाराज के नाम 1360 बाघों को मारने का काला रिकॉर्ड भी है। नए सिरे से चीतों को बसाने के लिए भी मध्य प्रदेश का ही चयन किया जा रहा है क्योंकि वहाँ की जलवायु चीतों के लिए काफी उपयुक्त मानी जाती है।

इस सारे प्रयोग को जमीनी हकीकत में बदलने के लिए बीकानेर के पास गजनेर का चुनाव किया गया है। गजनेर में ही 9-10 सितंबर को भारत में चीते को लाने के विषय पर एक विश्वस्तरीय बैठक होने जा रही है। इस बैठक में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंसर्वेशन ऑफ नेचर के विशेषज्ञ आएँगे और वे आगे की रूपरेखा तय करेंगे।

पूरे एशिया में 60 से ज्यादा चीते नहीं बचे हैं। भारत में आखिरी तीन एशियाई चीतों को 1947 में सरगूजा के महाराज ने मार डाला था। इन्हीं महाराज के नाम 1360 बाघों को मारने का काला रिकॉर्ड भी है।इसी में यह तय होगा कि शुरुआत में किस तरह से चीतों का प्रजनन भारत में किया जाए और खुले में उन्हें छोड़ने से जुड़े खतरों से कैसे निपटा जाए। इन विशेषज्ञों से यह राय ली जाएगी कि चूँकि दक्षिण अफ्रीका का चीता एशियाई चीते से बहुत अलग है इसलिए उसे भारत में बसाना कितना व्यवहारिक होगा।

दक्षिण अफ्रीका से भारत में चीते को लाने का प्रस्ताव पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को मुख्य रूप से प्रख्यात वन्य जीव विशेषज्ञ एम.के. रंजीत सिंह और दिव्य भानू सिंह ने तैयार करके मंत्रालय को सौंपा था।

इन दोनों का मानना है कि दक्षिण अफ्रीका का चीता भारत में बसाया जा सकता है और इन दोनों ने दक्षिण अफ्रीका से शुरुआती स्तर की बात भी कर ली है।

अब इस प्रस्ताव पर ही मंत्रालय ने पहल लेते हुए विश्वस्तरीय विशेषज्ञों की राय माँगी है। बहरहाल इतना को तय है कि चीता भारत आएगा, उनका प्रजनन कराया जाएगा और वे विशेष बाड़े में रहेंगे। अगर उन्हें खुले जंगलों में छोड़ना न संभव हुआ तो सीमित परिधि में चीता सफारी शुरू की जा सकती है। हालांकि वन्य जीवन और जीवों में दिलचस्पी रखने वालों का इंतजार शुरू हो गया है कि कब वे चीतों को भारत में दौड़ता देख पाएँगे।

मप्र का पन्ना राष्ट्रीय उद्यान



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मध्य प्रदेश का पन्ना केवल नायाब हीरों की खानों के लिए ही नहीं बल्कि बाघ सरंक्षण के केंद्र के रूप में भी प्रसिद्ध है। यदि आप भी जंगलों में सैरसपाटा करने के शौकीन हैं तथा वन्य जीवन को करीब से देखना चाहते हैं तो आपका स्वागत है म.प्र. के पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में। यहाँ आपको देश में विलुप्ति की कगार पर खड़े बाघ शान से चहलकदमी करते दिखाई देंगे। भारत के टाईगर रिर्जव प्रोजेक्ट का एक हिस्सा पन्ना राष्ट्रीय उद्यान भी है। बाघों के बचाव अभियान के तहत हाल ही में बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान तथा कान्हा किसली राष्ट्रीय उद्यान से एक-एक बाघिन को पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में लाया गया है।

कला प्रेमी व प्रकृति प्रेमियों को एक बार अवश्य पन्ना जाना चाहिए क्योंकि यहाँ से आप खजुराहो जा सकते हैं, जहाँ के मंदिर भारतीय कला शिल्प की नायाब धरोहर है। इसी के साथ ही आप पन्ना में जंगली जानवरों की दिनचर्या को करीब से देखकर अपनी यात्रा को संपूर्णता प्रदान कर सकते हैं।

पन्ना नेशनल पार्क म. प्र. के छतरपुर जिले में स्थित है। कला व शिल्प की नगरी खजुराहो से इसकी दूरी 57 किमी है। यह पार्क लगभग 543 स्क्वेयर किमी के क्षेत्र में फैला है। पन्ना नेशनल पार्क के मुख्य आकर्षण बाघ, चौसिंगा हिरण, चिंकारा, सांभर, जंगली बिल्ली, घड़ियाल, मगरमच्छ, नीलगाय आदि हैं।



यह पार्क लगभग 543 स्क्वेयर किमी के क्षेत्र में फैला है। पन्ना नेशनल पार्क के मुख्य आकर्षण बाघ, चौसिंगा हिरण, चिंकारा, सांभर, जंगली बिल्ली, घड़ियाल, मगरमच्छ, नीलगाय आदि हैं।



पार्क से होकर गुजरने वाली नदी पार्क की खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है। यहाँ नाव में बैठकर जंगली जीवों को करीब से देखने का आनंद ही कुछ होता है। पार्क के मुख्य आकर्षणों में एक आकर्षण खूबसूरत पांडव झरना है, जोकि झील में गिरता है।

कहा जाता है कि पांडवों ने अपने वनवास के दौरान यहाँ विश्राम किया था। इसके अलावा अन्य आकर्षणों में एक राजगढ़ पैलेस है, जो कि कला व शिल्प का अद्भुत नमूना है।

इस पार्क में पक्षियों की लगभग 200 से अधिक प्रजातियाँ है, जिनमें प्रवासी पक्षी भी सम्मिलित है, जो दूरदराज के इलाकों से यहाँ आते हैं। इसके अलावा पार्क में अजगर व साँप की भी कई प्रजातियाँ निवास करती हैं।



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इतिहास : इस नेशनल पार्क के बारे में कहा जाता है कि यहाँ पांडव अपने वनवास के दौरान रहे थे। यह पार्क पहले के जमाने में पन्ना के राजघराने के लोगों के लिए शिकार का प्रमुख केंद्र था।

आजादी के बाद इसे वाइल्ड लाइफ सेन्च्यूरी घोषित किया गया था। इसे सन 1981 में नेशनल पार्क का दर्जा दिया।

वातावरण : यहाँ की जलवायु उष्ण कटिबंधीय है। यहाँ गर्मियों का मौसम बहुत अधिक गर्म होता है। सर्दियों का मौसम भी बहुत अधिक ठंडा होता है। जुलाई से प्रारंभ होकर मानसून यहाँ सितम्बर के मध्य तक चलता रहता है। पन्ना नेशनल पार्क आने के लिए नवबंर से अप्रेल माह के बीच का समय उपयुक्त होता है।



कला प्रेमी व प्रकृति प्रेमियों को एक बार अवश्य पन्ना जाना चाहिए क्योंकि यहाँ से आप खजुराहो जा सकते हैं, जहाँ के मंदिर भारतीय कला शिल्प की नायाब धरोहर है। साथ ही आप पन्ना में जंगली जानवरों को करीब से देखकर अपनी यात्रा को संपूर्णता प्रदान कर सकते हैं।



ऐसे उठाएँ लुत्फ : किसी भी नेशनल पार्क का लुत्फ उठाने के लिए सफारी सबसे बेहतर होती है। यहाँ आपको सफारी पहले से बुक कराना होती है ता‍कि आपको वहाँ पहुँचने पर बेवजह विलंब ना हो। यदि आप रोमांच से भरी यात्रा करना चाहते हैं तो एक बार यहाँ की नाईट सफारी का अवश्य लुत्फ उठाएँ। नाईट सफारी के टाइमिंग शाम को 6:30 से 10:30 तथा रात्रि में 2:50 से 5:30 होते हैं।

ठहरने के लिए स्थान :
पन्ना नेशनल पार्क में ट्री हाउसेस व टूरिस्ट लॉज ठहरने के लिए बेहतर स्थान है परंतु अधिकांश पर्यटक मंडला में विश्राम करते हैं। आप चाहें तो खजुराहो में विश्राम कर दिन भर पन्ना नेशनल पार्क की सैर कर शाम को पुन: खजुराहो लौट सकते हैं।

सड़क मार्ग से दूरी :
पन्ना से खजुराहो की दूरी - 57 किमी
पन्ना से भोपाल की दूरी - 727 किमी
पन्ना से दिल्ली की दूरी - 889 किमी

वायुमार्ग :
खजुराहो से - दिल्ली, मुंबई और वाराणासी के लिए डेली फ्लाइट सुविधा।

रेलमार्ग : पन्ना से सतना 90 किमी की दूरी पर स्थित है। यह सेंट्रल और वेस्टर्न रेलवे से जुड़ा है। यहाँ से आपको कई महानगरों के लिए ट्रेन आसानी से मिल जाएगी।

कुछ और जानकारियाँ :
* पार्क देखने के लिए अधिकांश सफारी आपको मंडला गाँव से आसानी से मिल जाएगी।
* इस पार्क को देखने के लिए एंट्री फीस 40 रुपए, आधे दिन का जीप का चार्ज 1500 रुपए, कैमरा ले जाने का चार्ज 40 रुपए (वीडियो कैमरा हो तो 200 रुपए), गाइड का शुल्क 100 रुपए, प्राइवेट वाहन एंट्री 150 रुपए, बोट का सफर 150 रुपए, हाथी की सवारी 100 रुपए तथा नाईट सफारी चार्जेस 1800 रुपए के लगभग है।
* पार्क के खुलने के आधे घंटे पहले पार्क पहुँचना बेहतर होता है।
* चटख रंगों वाले कपड़े पहनकर पार्क में न जाएँ नहीं तो मधुमक्खियाँ आपके पीछे पड़ सकती हैं।

गायब होते आँगन के आंगतुक



NDSUNDAY MAGAZINEअब आँगन में फुदकती गौरैया, घरों में बने उसके घोसलों से अंडे फोड़कर निकले चूजे और घर के आस-पास उड़ती रंग-बिरंगी तितलियों के संग खेलने के हमारे दिन लद गए है।

अब तो कौवा, तोता, मैना सरीखी चिडि़यों के साथ-साथ गिद्धों के सामने भी अस्तित्व का संकट मंडराने लगा है और ऐसा हमारी अपनी 'कारगुजारियों' के कारण हुआ है।

सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर इनके दुलर्भ श्रेणी में चले जाने की चिंता का ढि़ढोरा तो बहुत पीटा जाता है पर इन्हें बचाने के प्रयास बहुत कम होते हैं। तेजी से कम होती जा रही इन जीवों की तादाद ने पर्यावरणविदों और पक्षी वैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया है। गौरैया की तेजी से घटती संसख्या से चिंतित एक पक्षी वैज्ञानिक ने तो नासिक में गैरेया के घोंसलें बनाकर बेचने का अभियान ही चला रखा है।

'गिद्धों के विलुप्त होने की वजह जानवरों को दर्द निवारण के लिए दी जाने वाली दवाई डाई क्लोरोफिनेक है। आमतौर पर बूढ़े पशुओं को यह दवाई दी जाती है। मर जाने पर ऐसे पशु, जिन्हें यह दवाई दी गई हो, का माँस खाने से गिद्धों का गला अवरूद्ध हो जाता है। जीवों के लिए काम करने वाली मुंबई की एक संस्था का मानना है कि जल्दी ही गौरैया भी गिद्धों की तरह दुर्लभ हो जाएगी। गौरैया के दुर्लभ होने की बड़ी वजह कामशक्तिवर्धक दवाएँ है जिनमें गौरैया के अंडे का इस्तेमाल अनिवार्य और सबसे फायदेमंद माना जाता है। मॉनीटर छिपकलियों और भालू के गॉलब्लाडर के बाद गौरैया के अंडों का इस्तेमाल इनमें होता है।

देश के हर छोटे-बड़े पक्षी बाजार में कछुओं की खरीद-बिक्री आम है। कछुओं से भी कामशक्ति बढ़ाने वाली दवाएँ बनाई जाती है। कामोत्तेजक दवाएँ बनाने वाले माफिया ने शुरूआती दौर में गैंडों के सींग से भी भस्म तैयार की। गैंडों पर इनकी कुदृष्टि का ही नतीजा था कि देश में इनकी संख्या घटकर 200 तक रह गई। गिलहरियों और चमगादड़ों का शिकार भी इनके लिए हो रहा है।

उत्तरप्रदेश का राज्य पक्षी सारस भी दुर्लभ हो रहा है। देश में कुल चार हजार सारस बचे हैं जबकि दुनिया में इनकी कुल संख्या दस हजार के आसपास बताई जाती है। भारत के सारसों में अधिकांश उत्तर प्रदेश में ही रहते हैं। इन्हें दलदली जमीन चाहिए होती है जिनकी कमी की वजह से वे भी विलुप्त हो रहे हैं। लोग सारस के अंडे का आमलेट भी खाते हैं। इससे भी समस्या गंभीर हुई है।


NDSUNDAY MAGAZINEसैफई में भी मुलायम सिंह यादव द्वारा हवाई पट्टी बनवाने की कोशिश पर पक्षी वैज्ञानिकों ने काफी शोर-शराबा मचाया था। पक्षी वैज्ञानिक विलीदा राइट ने तो सर्वोच्च अदालत में मुकदमा तक किया था कि अगर इस इलाके में हवाई पट्टी बनी तो सारसों के प्रवास का क्षेत्र नष्ट होगा। गौरतलब है कि सारस की सबसे अधिक तादाद मैनपुरी जनपद में ही है।

पक्षियों के गायब होने की अलग-अलग वजहें हैं। बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के निदेशक डॉ. अशद रहमानी का शोध बताता है कि 'गिद्धों के विलुप्त होने की वजह जानवरों को दर्द निवारण के लिए दी जाने वाली दवाई डाई क्लोरोफिनेक है।

आमतौर पर बूढ़े पशुओं को यह दवाई दी जाती है। मर जाने पर ऐसे पशु, जिन्हें डाई क्लोरोफिनेक दवा दी गई हो, का माँस खाने से गिद्धों का गला अवरूद्ध हो जाता है और वे मर जाते हैं।'भारत सरकार ने इस दवा पर कागजी पाबंधी आयद कर दी पर इसका अवैध उत्पादन और बिक्री जारी है।

पहले घर की महिलाओं द्वारा गेहूँ और चावल इत्यादि के दाने बीनने की प्रक्रिया में पक्षियों के खाने लायक दाने बाहर फेंक दिए जाते थें। इन्हें चुनने के आकर्षण में पक्षी घरों तक आते थें और जीवित भी रहते थे लेकिन अब मॉल संस्कृति के बाद घरों में पैकेट बंद चावल आने लगे हैं। मोबाइल फोनों की विद्युत चुंबकीय तरंगों ने भी छोटी चिडि़यों की जिंदगी दिक्कत में डाली है।

वाहनों में अनलीडेड पेट्रोल के बढ़ते इस्तेमाल के चलते वातावरण में घुल रहे मिथाइल नाइट्रेट जैसी गैसों ने भी इनके लिए दुश्वारियाँ खड़ी की है। उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से दाना चुगने वाले जीवों का जीवन संकट में है।

जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क

जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क भारत में एक महत्वपूर्ण पार्क हैं। यह पार्क उत्तरांचल का अभिन्न अंग है। इस पार्क में विभिन्न प्रकार के सुंदर-सुंदर पुष्प और वन्यजीव पाए जाते हैं। यहाँ के सुरक्षित प्राकृतिक स्थलों में हाथी, चीता, शेर आदि रहते हैं। पार्क में 110 प्रकार के पेड़, 50 स्तनपायी नस्ल के प्राणी, पक्षियों के 580 जातियाँ, 25 प्रकार के रेंगने वाले जीव पाए जाते हैं। यह पार्क प्रोजेक्ट टाइगर का एक अभिन्न अंग है। रघुराई तथा जगदीप राजपूत जो कि जाने-माने फोटोग्रेफर हैं, ने वन्य जीवन के सौन्दर्य को अपने चित्रों में केन्द्रित किया है। पार्क के प्राकृतिक पहाड़ों की गोद में चीते दिखाई देते हैं। विभिन्न प्रकार की नाकॅटरनल बिल्लियाँ यहाँ पाई जाती हैं। इसके अलावा अनेक जंगली बिल्लियाँ भी मिलती हैं। स्लोथ भालू पार्क के निचले हिस्से में पाए जाते हैं तथा हिमालयीन ब्लैक भालू पहाड़ी की ऊँचाइयों पर रहते हैं। राम गंगा नदी के किनारे आप स्नाउट मछली को खाने वाले घडि़याल, मगरमच्छ मिलते हैं। पथरीली पहाड़ियों के किनारे आपको घोराल भी मिल सकते हैं। अगर सामने से शेर या चीता आ रहा हो तो लंगूर तथा रीहस्स बंदर अपनी आवाज से पूरे जंगल को उनके आने की चेतावनी देते हैं।

पर्यटकों के लिए रहने का स्थान ---
आप रामनगर में बहुत जगहों में रह सकते हैं जैसे दिखाला, जंगल में स्थित रेस्ट हाउसेस तथा लकड़ी से बने घर। सरापड्यूली, बिजरानी तथा घैईरल जैसी जगहों में फॉरेस्ट रेस्ट हाउसिंग की सुविधा उपलब्ध है। पार्क के आसपास बहुत सारे रिसोर्ट पर्यटकों के लिए उपलब्ध हैं। सरकारी सराय में भी आप अपने लिए कमरे आरक्षित कर सकते हैं।
पार्क के खुलने का समय -
पार्क सुबह 6 बजे से लेकर 11 बजे तक पर्यटकों के लिए खुला रहता है। दोपहर में 2.30 से लेकर 5.30 बजे तक यह खुला रहता है। इसके बाद मौसम के अनुसार समय परिवर्तित होता रहता है।
कुटीर - (10 किमी नदी के किनारे)
अगर आप कुटीर में छुट्टी मनाना चाहते हैं तो आप अलग से जंगल के कुटीर में रह सकते हैं या आप किसी कुटीर में एक कमरा अपने लिए आरक्षित कर सकते हैं।
जंगल में स्थित रेस्ट घर - 3 दिन - 2 रात कॉर्बेट पैकेज
कॉर्बेट कैम्प रिसोर्ट तथा कॉर्बेट नेशनल पार्क में 3 दिन व 2 रात आप व्यतीत कर सकते हैं। हाथियों की सवारी की सुविधा पार्क में उपलब्ध है। सुबह तथा संध्या के समय चाय तथा ब्रेकफास्ट दिया जाता है।
जंगल में सैर -
प्राकृतिक भ्रमण के लिए आप कोसी नदी के पास घूमने जा सकते हैं। एक दिन आप जंगल में सैर कर सकते हैं। इस जगह सबसे प्रसिद्ध सवारी है जीप जिससे आप जंगल का भ्रमण कर सकते हैं।
रेल यात्रा के माध्यम से आप दिल्ली से कॉर्बेट तथा दिल्ली वापस लौट सकते हैं। दूसरी जगह आप लखनऊ से कॉर्बेट तथा वापस लखनऊ आ सकते हैं। पर्यटकों के लिए रिसोर्ट से स्टेशन तक पहुँचने के लिए सुविधा उपलब्ध है।

नौकायन
3 दिन - 2 रात आप ऋषिकेश में स्थित रिसोर्ट में रह सकते हैं। यहाँ स्थित गंगा नदी में आप नौकायन का आनंद ले सकते हैं। इसके लिए पूरा एक दिन लगता है।
गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही हैं। क्या आप कहीं जाना चाहते हैं? स्कूल के बच्चों के लिए यह सही समय है कि वे वन्य जीवन की सैर करें। गर्मियों की छुट्टियाँ में स्कूली बच्चे जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क का भ्रमण करने आ सकते हैं। जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में कुमाऊँ की पहाड़ी क्षेत्र के प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद ले सकते हैं।

स्कूल के बच्चों के लिए यह सही समय है कि वे वन्य जीवन की सैर करें। गर्मियों की छुट्टियाँ में स्कूली बच्चे जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क का भ्रमण करने आ सकते हैं। जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में कुमाऊँ की पहाड़ी क्षेत्र के प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद ले सकते हैं।
यहाँ पर बच्चों के व्यक्तिगत विकास के लिए विभिन्न प्रकार खेल सिखाए जाते हैं। पेड़ों के बारे में ढूँढ-ढूँढ कर जानकारी एकत्र करना, ये गाइड के निर्देशों के अनुसार करना होता है। मनोरंजन के लिए यह उपयुक्त स्थल है।
पक्षियों को देखना - जो इस शिविर में भाग ले रहे हैं उन्हें एक बुकलेट दी जाती है, जिसमें सभी चिडियों के बारे में विवरण दिया हुआ है। हर टीम के सदस्य अपने गाइड के निर्देशों के अनुसार इन पक्षियों को ढूँढ निकालते हैं।
प्राकृतिक पथ - प्राकृतिक सौंदर्य में विभिन्न प्रकार के पेड़ों की खोज करना पड़ता है। इससे पेड़-पौधों, पत्तों एवं बीजों के प्रति बच्चों में रुचि बढ़ती है।

सर्विस प्रोजेक्ट - इसके तहत जंगल में खाली स्थान पर पौधों को लगाया जाता है। बीजों को इकट्ठा किया जाता है। कुदाल से गड्ढा खोदना तथा पौधों को लगाना मौसम के अनुसार किया जाता है।

मछली पकड़ना - मछली पकड़ने वालों के लिए एक बहुत खुशी का मौका है। यहाँ की सबसे प्रसिद्ध मछली है ‘माशीर’, जो इस क्षेत्र में पाई जाती हैं। बच्चे यहाँ पर मछली पकड़ने के बारे में सीखते हैं।
तैरना तथा खेलकूद - बास्केटबॉल, वॉलीबॉल तथा क्रिकेट जैसे खेल यहाँ पर खेले और सिखाए जाते हैं।
रात्रि भ्रमण - रात के समय आप प्राकृतिक सौन्दर्य को देख सकते हैं। ये रात्रि भ्रमण के तहत देख सकते हैं ।

शिविर में मनोरंजन - रात को बच्चे आग के सामने इकट्ठा होकर गाना गाते हैं तथा कहानियाँ सुनते-सुनाते हैं।

खर्च - 5 दिन का शिविर - 3500 रुपए
10 दिन के लिए - 6500 रुपए

रहने का खर्चा, दूध, नाश्ता, भोजन तथा सभी गतिविधियों में भाग ले सकते हैं।