नामचीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इन दिनों भारत में 'सेव टाइगर्स्’ अभियान तमाम तरह के प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर चलाया जा रहा है। क्या इससे बाघों की लगातार घटती संख्या में कोई कमी आ पायेगी? शायद नहीं, क्योंकि बाघों को बचाने के लिए ज़मीनी स्तर पर वन क्षेत्रों में इनके नाम पर हो-हल्ला मचाने वालों के द्वारा कोई भी प्रयास नहीं किए जा रहें हैं। कम्पनी हो या फिर तथाकथित वाइल्ड लाइफर, सब केवल बाघ बचाने के नाम पर नाम, पैशा और शोहरत कमाने का धंधा कर रहे हैं.
प्रचार माध्यमों पर ऐसी कई कम्पनियां करोड़ों रुपया पानी की तरह क्यों बहा रही हैं और इस बात का प्रचार शहरी क्षेत्रों में करके किस लक्ष्य को हासिल करना चाहते हैं? इन सवालों के पीछे छुपे तथ्यों को जानना बहुत ज़रूरी है। हालांकि ऊपरी तौर पर लगता यही है कि भारत ही नहीं वरन् दुनियाभर के लोग जागरुक होकर बाघों के प्रति संवेदनशीलता के साथ इनके संरक्षण में जुट जाऐं। जबकि वनक्षेत्रों में रहने वाला आदिवासी वनाश्रित समाज और आम नागरिक समाज जो जंगल और जमीन से सीधे तौर पर जुड़ा है वह पहले से और आज भी बाघों से लगाव रखता है। अग्रेजों, जमीदारों, राजा-महराजाओं, नवाबों और अभिजात वर्ग के शिकारियों ने तो सिर्फ बाघ को मारा है. अपनी शानोशौकत प्रदर्शित करने के लिए ये लोग बाघ की हत्या कर उसके शव पर पैर रखकर फोटो खिंचवाना तथा बाघछाला को अपने सिंहासन पर बिछाना अपनी शान समझते थे।
अंग्रेजी हुकूमत के देश में नहीं रहने पर आजाद भारत में भी सन् 1972 से पहले तक बाघों का शिकार होता रहा और वन विभाग द्वारा इनका शिकार करने के लाईसेंस भी दिये जाते रहे हैं। परिणामतः देश में बाघों की दुनिया सिमटने पर नींद से जागी केन्द्र सरकार ने बाघ, तेंदुआ आदि विलुप्तप्राय होने वाले वन-पशुओं के शिकार पर प्रतिबंध लगाने वाला वन्यजीव-जंतु संरक्षण अधिनियम-1972 बना दिया। जबकि कड़वी सच्चाई ये है कि इस कानून के पास किये जाने के ठीक एक दिन पूर्व ही बाकायदा अधिसूचना जारी करके बाघ, तेंदुआ सहित कई प्रजातियों के वन्यजीवों को जंगल का दुश्मन करार देते हुये बड़ी संख्या में मार दिया गया था। हालांकि इसके बाद भी बाघों का अवैध शिकार जारी रहा, अब अगर परोसे जा रहे आंकड़े पर विश्वास करें तो देश में मात्र 1411 बाघ बचे हैं, जिन्हें बचाने के लिए इन तथाकथित सुधिजनों द्वारा ढिंढोरा पीटा जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि बाघ केवल अवैध शिकार की भेंट चढ़े हों, अन्य तमाम तरह के कारण भी इसके पीछे मौजूद रहे हैं। इनमें वनों का अवैध कटान, आबादी का विस्तार, अवैध खनन, शहरीकरण, प्राकृतिक एवं दैवीय आपदा आदि मुख्य कारण हैं। इसका पूरा-पूरा लाभ पूंजीपतियों ने ही उठाया जबकि घाटा वनवासियों एवं जंगल के निकटस्थ बस्तियों में रहने वाले गरीब तबकों के खाते में आया और आज भी उन्हीं को दोषी करार देकर उनको जंगल से बाहर खदेड़ने या वन के भीतर न घुस पायें इसका षडयंत्र रचा जा रहा है।
इस पूरे षडयंत्र के पीछे इन कम्पनियों के निहित स्वार्थ को न सिर्फ मीडिया तंत्र पूरी तरह से नज़रअन्दाज़ किये हुये है, बल्कि सरकारें भी आंख मूंद कर ये तमाशा चुपचाप देख रही हैं। दरअसल इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपने उद्योग कारखाने लगाने के लिये ज़मीनों की बड़ी मात्रा में ज़रूरत होती है और इन कारखानों के लिये कच्चे माल की आसानी से उपलब्धता अधिकांशतः जंगल क्षेत्रों से ही होती है। यही कारण है कि कारखानों के लिये वनभूमि इनके लिये सबसे मुफीद जगह होती है जिसे समुदायों की मौजूदगी में वनविभाग व सरकारों को सस्ते दामों में पटा कर हासिल करना इनके लिये खासा मुश्किल काम हो जाता है। समुदायों को जंगल क्षेत्रों से हटाने के लिये अख्तियार किये गये तमाम तरह के रास्तों में एक रास्ता यह भी अपनाया जा रहा है कि उन्हें शिकारी और तस्कर साबित करते हुये जंगल क्षेत्रों से हटाने के लिये एक ऐसी मुहिम छेड़ दी जाये जिससे आम नागरिक समाज में भी वन समुदायों के खिलाफ एक भ्रम फैल जाये और जंगल क्षेत्रों में इनके समर्थन में वनविभाग व सरकारों द्वारा अंजाम दी जा रही दमन की कार्यवाहियों पर ‘अवर सेव टाईगर्स‘ के नाम पर न्याय की मुहर लग सके।
आज जबकि वनाधिकार कानून-2006 लागू किया जा चुका है जिसमें स्वीकार किया गया है कि वनों के संरक्षण में ऐतिहासिक तौर पर वनसमुदायों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनके अधिकारों को अभिलिखित न करके उनके साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। लेकिन वनविभाग इन बड़ी कम्पनियों की मदद से इस कानून के क्रियान्वन की पूरी प्रक्रिया को ही ध्वस्त करके इन जनविरोधी कृत्यों को अंजाम देने में मशगूल है। अपने आपको जंगलों का रखवाला बताने वाला वन विभाग आज भी देश के सबसे बड़े जमींदार की भूमिका निभा रहा है। इसके द्वारा अंजाम दिये जा रहे अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न और अवैध वसूली की त्रासदी से परेशान वनवासी एवं गरीब वन सुरक्षा एवं वन्यजीवों के संरक्षण से धीरे-धीरे किनारा करते गए और वन विभाग भी वन सुरक्षा एवं वन्यजीव संरक्षण व प्रोजेक्ट टाईगर के कार्यों में पूरी तरह से असफल ही रहा है। कागजों में करोड़ो पेड़ लगवाने के बावज़ूद वन विभाग हरे-भरे जंगल का क्षेत्रफल आज तक नहीं बढ़ा पाया। वह भी तब जबकि आजादी के बाद से लेकर अब तक सरकारों ने बेशुमार अधिसूचनायें जारी करके लोगों की खेती व काश्त की यहां तक कि निवास की भी लाखों हेक्टेयर ज़मीनों को जंगल में समाहित करके वनभूमि में इज़ाफा करने का काम किया है। वन विभाग वन्यजीव प्रबंधन में भी बुरी तरह से असफल ही रहा है। परिणामतः वन्यजीवों की संख्या घटती ही जा रही है और प्रोजेक्ट टाईगर की असफलता भी जगजाहिर हो चुकी है। ऐसी विषम परिस्थितियों में नीति निर्धारकों द्वारा इसका समय रहते मूल्याकंन कराया जाना जरूरी है।
‘सेव अवर टाईगर्स’ अभियान में लगी इन कंपनियों के मंतव्य को देखा जाए तो वह केवल बाघ के नाम पर मात्र अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये ही प्रचार-प्रसार कर रही है। इनका बाघों के संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है। अगर वास्तव में बाघों को बचाने में इनकी कोई रुचि होती तो प्रचार पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बजाय वे वन एवं वन्यजीव संरक्षण जिसमें बाघ भी शामिल है उसके लिए फील्ड यानी वनक्षेत्रों में सार्थक प्रयास करतीं। जितना रुपया टीवी, अखबार विज्ञापन और खिलाड़ियों व माडलों पर व्यय किया जा रहा है। उतना रुपया अगर वन्यजीव सम्बंधी जिन कार्य योजनाओं के क्रियान्वयन में वन विभाग नाकाम रहा है ऐसे क्षेत्रों को चिन्हित करके वन प्रबंधन के कार्य करा दिए जाते या वनाधिकार कानून को सफल रूप से क्रियान्वित कराने के काम पर खर्च किया जाता तो वनसमुदायों तथा जंगलों के साथ-साथ बाघों का भी भला हो सकता था।
स्रष्टि कंजर्वेशन एंड वेलफेयर सोसाइटी [पंजीकृत] वन एवं वन्यजीवों की सहायता में समर्पित Srshti Conservation and Welfare Society [Register] Dedicated to help and assistance of forest and wildlife
शनिवार, 27 मार्च 2010
शनिवार, 13 मार्च 2010
विलुप्त होने की कगार पर हैं दुधवा के तेदुआं
विलुप्त होने की कगार पर हैं दुधवा के तेदुआं
बाघों को बचाने के लिये हो-हल्ला मचाने वाले लोगों ने बाघ के सखा तेदुआ को भुला दिया है। इससे बाघों की सिमटती दुनिया के साथ ही तेदुंआ भी अत्याधिक दयनीय स्थिति में पहंुच गया है। इसे भी बचाने के लिये समय रहते सार्थक एवं दूरगामी परिणाम वाले प्रयास नहीं किए गए तो वह दिन भी ज्यादा दूर नहीं होगा जब तेदुंआ भी ‘चीता’ की तरह भारत से विलुप्त हो जाएगा।
बिल्ली की 36 प्रजातियों में वनराज बाघ का सखा तेदुंआ चैथी पायदान का रहस्यमयी शर्मिला एकांतप्रिय प्राणी है। बिल्ली प्रजाति के इस प्राणी की तीन प्रजातियां भारतीय जंगलों में पाई जाती है। भारत के जंगलों से इसकी चैथी प्रजाति ‘चीता’ विलुप्त हो चुकी है। भारत-नेपाल सीमावर्ती लखीमपुर-खीरी के तराई वनक्षेत्र में कभी बहुतायत में पाए जाने वाले तेदुंआ आतंक के पर्याय माने जाते थे। धीरे-धीरे बदलते समय और परिवेश के बीच वंयजीव संरक्षण के लिये दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना 1977 में की गई। यहां के बाघों के संरक्षण व सुरक्षा के लिये 1988 में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया गया। 1986 में दुधवा नेशनल पार्क की गणना सूची में 08 तेदुंआ थे। दस साल में इनकी संख्या बढ़ी तो नहीं वरन् 1997 में घटकर मात्र तीन तेदुंआ रह गए और सन् 2001 की गणना में केवल 02 तेदुंआ दुधवा में बचे थे। वर्तमान में इनकी संख्या आधा दर्जन के आस-पास बताई जा रही है। पिछले लगभग डेढ़ दशक के भीतर खीरी जिला क्षेत्र में तीन दर्जन से ऊपर तेदुंआ की खालें बरामद की जा चुकी है, जिन्हे वन विभाग तथा पार्क के अफसरान नेपाल के तेदुंआ की खालें बताकर कर्तव्य से इतिश्री करके अपनी नाकामी पर पर्दा डालते रहे हंै। इसके अतिरिक्त पिछले कुछेक सालों में आधा दर्जन से ऊपर तेदुंआ अस्वाभाविक मौत का शिकार बन चुके हंै। इसमें पिछले माह दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर के तहत कतर्नियाघाट वंयजीव प्रभाग क्षेत्र में दो तेदुंओं को ग्रामीणों ने पीटकर मार डाला जबकि दो साल पहले नार्थ-खीरी फारेस्ट डिवीजन की धौरहरा रेंज में ग्रामीणों ने गन्ना खेत में घेरकर एक तेदुंआ को आग से जला कर मौत के घाट उतार दिया था। 27 फरवरी 2010 को कतर्नियाघाट की ही मुर्तिहा रेंज के जंगल में एक चार वर्षीय मादा तेदुंआ का क्षत-विक्षत शव मिला है। इन सबके बीच खास बात यह भी रही कि किशनपुर वंयजीव प्रभाग की मैलानी रेंज में मिले तेदुंआ के दो लावारिस बच्चों को तत्कालीन दुधवा के डीडी पी0पी0 सिंह लखनऊ प्राणी उद्यान छोड़ आए थे, वहां पर पल-बढ़ कर यह दोनों सुहेली और शारदा के नाम से पहचाने जाते हैं।
दुधवा टाइगर प्रोजेक्ट की असफलता सर्वविदित हो चुकी है। बाघों को संरक्षण देने में किए जा रहे अति उत्साही प्रयासों के दौरान वन विभाग के जिम्मेदार आलाअफसरों ने दुधवा नेशनल पार्क के अंय वंयजीवों-जंतुओं का संरक्षण और जंगल की सुरक्षा को नजरंदाज कर दिया है। परिणाम स्वरूप बिल्ली प्रजाति का ही बाघ का छोटा भाई तेदुंआ यहां अपने अस्तित्व को बचाए रखने हेतु दयनीय स्थिति में संघर्ष कर रहा है, और इस प्रजाति का सबसे बलशाली विडालवंशी लायन यानी शेर गुजरात के गिरि नेशनल पार्क तक ही सीमित रह गए हैं । लुप्तप्राय दुर्लभ प्रजाति के वंयजीवों की सूची में प्रथम स्थान पर मौजूद तेदुंआ के संरक्षण एवं सर्वद्धन के लिये अलग से परियोजना चलाए जाने की जरूरत है। समय रहते अगर कारगर व सार्थक प्रयास नहीं किए गए तो तराई क्षेत्र से ही नहीं वरन् भारत से तेदुंआ विलुप्त होकर किताबों के पन्नों पर सिमट जाएगें। (लेखक-वाइल्ड लाइफर व पत्रकार है)
मंगलवार, 9 मार्च 2010
नारी तेरी यही कहानी आखों में नीर..........
इक्कीसवीं सदी की कल्पना वाले भारत में महिला उत्थान के लिये चल रही तमाम
योजनाओं के बावजूद उत्तर प्रदेश मूल की ब्रजवासी जाति की महिलायें समाज
में उपेक्षित है ही साथ में औरतों व लड़कियों की खरीद-फरोख्त की परम्परा
भी इस जाति में बदस्तूर जारी है। इस कारण नाच-गाकर लोगो के मनोंरंजन का
साधन बनी ब्रजवासी महिलायें अशिक्षा व रूढ़वादिता की अंधेरी सुरंग
मेंजागरूकता के अभाव के कारण घुट-घुट कर जिन्दा रहने को विवश हैं। आजाद
भारत
में इस जाति की वेवश महिलाओं की दयनीय स्थिति महिला उत्थान के दावों की
पोल खोल रही है।
उल्लेखनीय है कि हिन्दुस्तान के पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को
पुरूषों के समान बराबर का दर्जा दिलाने के लिये सरकारी तौर पर तमाम
कार्यक्रम चलाये जा रहें हैं साथ ही साथ अनेक सामाजिक संगठन व महिला
संगठन प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं को अधिकार और सम्मान दिलाने के
लिये संघर्षरत हैं। किन्तु इनके क्रियाकलापों को अगर यर्थाथ के आइने में
देखा जाये तो इनके द्वारा किये जा रहे तमाम प्रयास ब्रजवासी जाति की
महिलाओं के लिये बेमानी और खोखले होकर रह गये हंै। परिवार को आजीविका
चलने में अहम व महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भी इस जाति की महिलाओं
को ‘दोयम दर्जा’ मिला ही है साथ में पति की प्रताड़ना तथा सभ्य समाज की
गालियां सुनना इनके किस्मत की नियति बन गई है।
ब्रजवासी जाति से सम्बन्धित की गई खोजबीन केेेेेेेेेेेेेेेेेेे बाद जो
कहानी उभरकर सामने आई है उसमें महिलाओं की दशा काफी दयनीय, निरीह एवं
अबला नारी वाली नजर आती है। मजे की बात तो यह है कि इनकी स्थिति में
परिवर्तन की किरण भरी दूर-दूर तक दिखायी नहीं देती है। प्राचीन परम्परा
को अपने भाग्य से जोडकर जीवन यापन करने वाली इस जाति की महिलायें
‘कठपुतली’ बनी पुरूषों की अंगुलियों के इशारे पर नाचने को विवश है।
स्पष्ट हुई कहानी के अनुसार मूलरूप से उत्तर प्रदेश के गोकुल (ब्रज)
क्षेत्र के निवासी होने के कारण कालान्तर में ‘ग्वाल’ जाति परिवर्ततन के
कई दौरों से गुजरने के बाद यह ग्वालजाति पूर्वजों की मातृभूमि के नाम पर
‘ब्रजवासी- जाति में तब्दील हो गई। ये ‘ब्रजवासी ग्वाल- प्राचीनकाल से ही
नाच-गाने के शौकीन रहे लेकिन उस समय परिवार में होने वाले उत्सवो में
महिलायें व पुरूष नाच-गा कर अपना मनोरंजन किया करते थे। बदलते परिवेश के
साथ ही गरीब होने के कारण ब्रजवासियों ने नाच-गाना को आजीविका से जोड़कर
वर्षो पूर्व समाज में अन्य लोगो का मनोरंजन करना शुरू कर दिया था। बताया
गया कि ब्रिटिश शासन काल में इनका विखराव शुरू हुआ तो यह लोग गोकुल से
अपना-अपना परिवार लेकर अलग-अलग स्थानों पर ‘ब्रजवासी जाति’ के नाम पर
आबाद होते चले गये। चूकिं जीविका का कोई अन्य साधन नहीं था इसलिये इनकी
महिलाओं ने नाच-गाने को पेशा बनाकर कर लोगो का मनोरंजन करने लगी। इस तरह
होने वाली आमदनी से परिवार को जीवन-पोषण का जरिया बन गया। वर्तमान में यह
स्थिति हो गई हे कि प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा जिला होगा जहां इस जाति के
परिवार न रहते हों और इस जाति की महिलायें आज भी नाच-गाकर परिवार का
भरण-पोषण कर रही हैं। निर्धनता और अभावों की जिन्दगी गुजारने के बाद भी
ब्रजवासी समाज ‘अनैतिकता’ के दलदल में धंसने से बचा हुआ है।
हिन्दू धर्म के सभी देवी देवताओं की पूजा-अर्जना करना तथा हिन्दुओं के
रीति-रिवाज व त्योहारों को मानने वाले ब्रजवासी समाज में लड़कों की
अपेक्षा लड़की के जन्म पर आज भी ज्यादा खुशी मनाई जाती है। किन्तु लड़के
को खानदान में बाप का नाम आगे बढ़ाने वाले ‘घर के चिराग- के रूप में
मान्यता मिली हुई है। इन ब्रजवासियों को अपनी बोलचाल की एक अलग भाषा
‘ग्वाली’ (फारसी) है जिसको केवल इसी जाति के लोग बोल और समझ सकते हैं
इसका इन्हें मुसीबत के समय काफी फायदा भी मिलता है। परम्परा में बाल
विवाह के बजाय इस जाति के लोग अमूमन पन्द्रह वर्ष की आयु पूर्ण करने से
पहले ही लड़के-लड़की का विवाह रस्मोरिवाज से कर देते हैं। बताया गया कि
इस जाति में दो प्रकार के धर्म विवाह एवं संविदा (कान्ट्रेक्ट) विवाह
प्रचलित है। धर्म विवाह में दहेज देने की प्रथा है और इस रीति से हुई
शादी के बाद लड़की नाच-गाने का पेशा अपनाने के बजाय घर-गृहस्थी का कार्य
करती है। अलबत्ता इनसे होने वाली औलादों को भविष्य में पेशा अपनाने की
पूरी आजादी रहती है। इस रीति के विपरीत संविदा विवाह में वर पक्ष के लोग
प्रथा के अनुसार तयसुदा धन लड़की के परिजनों को देकर विवाह की रस्म पूरी
की जाती है। गौरतलब है कि धर्म विवाह में जहां छुटौती (तलाक) की गुजांईश
काफी कम होती है वही संविदा रीति से किये गये विवाह में विवाद होने की
स्थिति में छुटौती (तलाक) करने पर पति द्वारा शादी से पूर्व पत्नी के
परिजनों को दी गई रकम व लिया गया दहेज पत्नी को वापस करना पड़ता है।
किन्तु इस मध्य हुये बच्चे पिता के संरक्षण में दे दिये जाते हंै। यह
कार्य बिन किसी लिखा-पढ़ी के पंचायत द्वारा किया जाता है। तलाकसुदा औरत
से पुर्नविवाह करने वाला व्यक्ति उस औरत की तय की गई ‘रकम’ उसके
परिवारजनों को अदा करके खानापूर्ति के तौर पर साधारण समारोह करके ब्याह
लाता है। इस तरह खरीद कर लायी गई औरत को ताजिन्दगी नाच-गाने का पेशा करना
पड़ता है और इसके द्वारा कमाई गई रकम से वह व्यक्ति उसके परिजनों को दी
गई रकम की भरपाई करने के साथ ही परिवार का खर्चा भी चलाता है। इस जाति की
सबसे खास बात यह है कि कुंवारी लड़कियों से नाच-गाने का पेशा नही कराया
जाता है और न ही इसकी उनको तालीम दिलायी जाती है। केवल संविदा रीति से
ब्याही गई औरतें ससुराल में तालीम (नाच-गाना सीखना) हासिल कर इस पेशे को
अपनाती है।
आजाद भारत में ब्रजवासी समाज के भीतर औरतों की खरीद-फरोख्त की प्राचीन
कुरीति को अगर नजरन्दांज कर दिया जाये तो भी इस समाज में तमाम कुरितियां
मौजूद हैं जिसके कारण महिलाओं की स्थिति काफी दयनीय व भयावह बनी हुई है।
परम्पराओं और रूढ़ियों के बीच पली बढ़ी इस समाज की अधिकांश लड़कियां व
महिलायें अशिक्षित ‘अगूठाछाप’ हैं। इस कारण वे न जागरूक हैं और न ही अपने
अधिकारों से परिचित हैं और न ही वे महिला संरक्षण के कानूनों को जानती है
परिणामरूवरूप वे आज भी उपेक्षित और शोषित की जा रही हैं। जबकि अशिक्षा के
चलते पुरूष शराब आदि मादक पदार्थो के चुंगल में फंसे हुये हैं। इस कारण
पति-पत्नी में मारपीट, पारिवारिक कलह एवं अन्य लड़ाई-झगड़े करना इन
ब्रजवासियों में रोजमर्रा की जिन्दगी में शामिल हो गया है।
गौरतलब है कि पेट की आग शान्त करने के लिये दूसरों का मनोरंजन कर पैसे
कमाने की होड़ में शामिल ब्रजवासी परिवार के लोग बच्चों की परवरिश वाजिब
ढ़ग से नही कर पाते हैं । इनके बच्चे बाल उम्र में पढ़ने-लिखने के बजाय
बचपन से ही कुसंगतिमें फंसकर अपना भविष्य अंधकारमय बना लेते हैं। बचपन से
ही पान, बीड़ी, सिगरेट, शराब पीने की आदत पड़ जाने से तरह-तरह की
बीमारियां इन्हें पूरी जिन्दगी परेशान करती रहती हैं। कमोवेश यही स्थिति
लड़कियों की भी रहती है। शासन, प्रशासन व समाज से उपेक्षा पाने के कारण
सरकार द्वारा बाल विकास व उत्थान के लिये चलाये जा रहे तमाम योजनाओं एवं
कार्यक्रमों का लाभ ब्रजवासियों के बच्चों को नही मिल पाता है। जिससे ये
बच्चे नाच-गाने के उसी माहौल में बचपन से रम जाते हैं और बढ़ती उम्र के
साथ पुस्तैनी धन्धा अपनाकर आजीविका चलाने लगते है।
उल्लेखनीय है कि नाच-गाने का पुस्तैनी धंधा अपनाये ब्रजवासी औरतों के
लिये इसे उनके भाग्य की विडम्बना ही कही जायेगी कि मांगलिक अवसर हो या
फिर नाटक-नौटंकी अथवा डांस पार्टियां या अन्य कोई सुखद अवसर सभी में इन
औरतों द्वारा दुःखों को बनावटी मुस्कान के पीछे छिपाकर कार्यक्रम पेश
किये जाते हंै। नाच-गानों के कार्यक्रमों में समाज के ‘कुलीन व्यक्ति’
इनसे बिजली की चकाचांैध रोशनी में भरपूर मनोरंजन करते हैं। मजे की बात तो
यह है कि समाज के इन्ही ‘कुलीन व्यक्तियों’ ने ही ब्रजवासी महिलाओं को
‘तवायफ’ और ‘रण्डी’ जैसे अपमानजनक नाम दिये हैं। जिसके कारण ये महिलायें
आज भी ‘सभ्य समाज’ में हिकारत की दृष्टि से देखी जाती हंै। इसके विपरीत
इसी समाज को यथार्थ के आइने में देखा जाये तो उच्च जातियों की लड़कियां
एवं औरतें स्टेजशो अथवा आर्केस्ट्रा ग्रुपों के माध्यम से जो डांस व
गानों के कार्यक्रम पेश करती हैं उनमें ये लड़कियां इन ब्रजवासी औरतों की
अपेक्षाकृत ज्यादा ही खुला प्रर्दशन कर वाहवाही लूटती है इनको ‘कलाकार’
जैसे शब्द से नवाजा गया है।
बातचीत में समाज द्वारा स्थापित किये गये उपरोक्ब्त दोहरे मापदण्ड पर
आक्रोश जाहिर करते श्रीमती श्रृद्धादेवी कहती हैं कि हम ब्रजवासिनी एक
सीमति दायरे में रहकर अपनी कला का प्रदर्शन करके लोगो का दूर से नाच-गाकर
मनोरंजन करते हैं। किन्तु कुलीन कलाकारों ने तो सभी सीमायें तोड़ दी हंै
और फिल्मी कलाकारों की दुनिया तो हम लोगों के समाज से ज्यादा काली है।
फिर यह सम्य कहा जाने वाला समाज हम लोगो के साथ ऐसा दोहरा बर्ताव क्यों
कर रहा है? श्रीमती श्रृद्धा देवी के इस कटाक्षपूर्ण अनुत्तरित प्रश्न पर
सामाजिक संस्थाओं एवं महिला संगठनों को एक बार फिर गहराई से मन्न और
विचार करके सार्थक प्रयास भी करने होगें तभी ब्रजवासी जाति की दवी-कुचली
महिलाओं को उनका हक न्याय व समाज में इज्जत और सम्मान के साथ जीने का
मौका मिल पायेगा।
बहरहाल दीनदुनिया की तरक्की से बेखबर और समाज से उपेक्षित रहते हुये भी
भाग्य की नियति मानकर नाच-गाने का पेशा अपनाकर जीवन यापन करने वाली
ब्रजवासी महिलायें समाज की गालियां, पति की प्रताड़नाऐं खुशी-खुशी सहन
करती ही हंै और अपने गमों को भुलाकर कठपुतली की भांति पुरूषों की
अगुलियों के इशारे पर नाच-गाकर लोगों का मनोंरंजन करने में मगशूल रहती
हैं ।
गुरुवार, 4 मार्च 2010
दुधवा के बाघों पर खतरा मंडराया
दुधवा के बाघों पर खतरा मंडराया
दुधवा टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर एवं डिप्टी डायरेक्टर ने विगत दिनों अखबारों में यह बयानबाजी करके कि दुधवा और कतर्नियाघाट में बाघों का कुनुबा बढ़ा है, अपनी पीठ स्वयं थपथपाई है। उन्होंने तो यहां तक दावा कर दिया है कि दुधवा और कतर्नियाघाट के जंगल में 38 बाघ शावक देखे गये हैं। वैसे अगर देखा जाए तो यह अच्छी और उत्साहजनक खबर है। परंतु इसके दूसरे पहलू में उनकी इस बयानबाजी से बाघों के जीवन पर खतरे की तलवार भी लटक गई है।
भारत में बाघों की दुनिया सिमट कर 1411 पर टिक गई है। इसका प्रमुख कारण रहा विश्व बाजार में बाघ के अंगों की बढ़ती मांग। इसको पूरा करने के लिये सक्रिय हुये तस्करों ने बाघ के अवैध शिकार को बढ़ावा दिया। जिससे राजस्थान का सारिस्का नेशनल पार्क बाघ विहीन हो गया तथा देश के अंय राष्ट्रीय उद्यानों के बाघों पर तस्करों एवं शिकारियों की गिद्ध दृष्टि जमी हुई है। जिससे बाघों का जीवन सकंट में है। ऐसे में दुधवा टाइगर रिजर्व के जिम्मेदार दोनों अधिकारियों का उक्त बयान शिकारियों के लिये बरदान बन कर यहां के बाघ शावकों का जीवन संकट में यूं डाल सकता है क्योंकि अब जो लोग यह बात नहीं जानते थे वह भी इस बात को जान गए हैं । इससे यहां के बाघों के जीवन पर खतरे की तलवार भी लटक गई है। इस स्थिति में साधन एवं संसाधनों की किल्लत से जूझ रहा लखीमपुर-खीरी का वन विभाग क्या शिकारियों के सुनियोजित नेटवर्क का सामना कर पाएगा? यह स्वयं में विचरणीय प्रश्न है। कतर्नियाघाट वंयजीव प्रभाग क्षेत्र में अभी पिछलें माह ही लगभग आधा दर्जन गुलदारों (तेदुआं) की अस्वाभाविक मौतें हो चुकी हंै। यह घटनाएं स्वयं में दर्शाती है कि कतर्नियाघाट क्षेत्र में गुलदारों की संख्या अधिक है। इस परिपेक्ष्य में वंयजीव विशेषज्ञों का मानना है कि गुलदारों की बढ़ोत्तरी दर्शाती है कि बाघों की संख्या कम हुई है। उनका कहना है कि एक ही प्रजाति का होने के बाद भी बाघ और गुलदार के बीच जानी दुश्मनी होती है, जिस इलाकें में बाघ होगा उसमें गुलदार नहीं रह सकता है। यही कारण है कि बाघ घने जंगल में रहता है और गुलदार जंगल के किनारे और वस्तियों के आसपास रहना पंसद करता है।
दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर का इतिहास देखा जाए तो उसकी असफलता इस बात से ही जगजाहिर हो जाती है कि पिछले एक दशक में यहां बाघों की संख्या 100-106 और 110 के आसपास ही घूम रही है। दुधवा में बाघों की मानिटरिेंग की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है फिर बाघ शावकों की सही गिनती कहां से आ गयी? वैसे भी यहां बाघों की संख्या पर भी प्रश्नचिन्हृ लगते रहे हैं। ऐसी दशा में उपरोक्त अधिकारियों की बयानजाबी पर संदेह होना लाजमी है। (लेखक वाइल्डलाइफर/पत्रकार है ं)
दुधवा टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर एवं डिप्टी डायरेक्टर ने विगत दिनों अखबारों में यह बयानबाजी करके कि दुधवा और कतर्नियाघाट में बाघों का कुनुबा बढ़ा है, अपनी पीठ स्वयं थपथपाई है। उन्होंने तो यहां तक दावा कर दिया है कि दुधवा और कतर्नियाघाट के जंगल में 38 बाघ शावक देखे गये हैं। वैसे अगर देखा जाए तो यह अच्छी और उत्साहजनक खबर है। परंतु इसके दूसरे पहलू में उनकी इस बयानबाजी से बाघों के जीवन पर खतरे की तलवार भी लटक गई है।
भारत में बाघों की दुनिया सिमट कर 1411 पर टिक गई है। इसका प्रमुख कारण रहा विश्व बाजार में बाघ के अंगों की बढ़ती मांग। इसको पूरा करने के लिये सक्रिय हुये तस्करों ने बाघ के अवैध शिकार को बढ़ावा दिया। जिससे राजस्थान का सारिस्का नेशनल पार्क बाघ विहीन हो गया तथा देश के अंय राष्ट्रीय उद्यानों के बाघों पर तस्करों एवं शिकारियों की गिद्ध दृष्टि जमी हुई है। जिससे बाघों का जीवन सकंट में है। ऐसे में दुधवा टाइगर रिजर्व के जिम्मेदार दोनों अधिकारियों का उक्त बयान शिकारियों के लिये बरदान बन कर यहां के बाघ शावकों का जीवन संकट में यूं डाल सकता है क्योंकि अब जो लोग यह बात नहीं जानते थे वह भी इस बात को जान गए हैं । इससे यहां के बाघों के जीवन पर खतरे की तलवार भी लटक गई है। इस स्थिति में साधन एवं संसाधनों की किल्लत से जूझ रहा लखीमपुर-खीरी का वन विभाग क्या शिकारियों के सुनियोजित नेटवर्क का सामना कर पाएगा? यह स्वयं में विचरणीय प्रश्न है। कतर्नियाघाट वंयजीव प्रभाग क्षेत्र में अभी पिछलें माह ही लगभग आधा दर्जन गुलदारों (तेदुआं) की अस्वाभाविक मौतें हो चुकी हंै। यह घटनाएं स्वयं में दर्शाती है कि कतर्नियाघाट क्षेत्र में गुलदारों की संख्या अधिक है। इस परिपेक्ष्य में वंयजीव विशेषज्ञों का मानना है कि गुलदारों की बढ़ोत्तरी दर्शाती है कि बाघों की संख्या कम हुई है। उनका कहना है कि एक ही प्रजाति का होने के बाद भी बाघ और गुलदार के बीच जानी दुश्मनी होती है, जिस इलाकें में बाघ होगा उसमें गुलदार नहीं रह सकता है। यही कारण है कि बाघ घने जंगल में रहता है और गुलदार जंगल के किनारे और वस्तियों के आसपास रहना पंसद करता है।
दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर का इतिहास देखा जाए तो उसकी असफलता इस बात से ही जगजाहिर हो जाती है कि पिछले एक दशक में यहां बाघों की संख्या 100-106 और 110 के आसपास ही घूम रही है। दुधवा में बाघों की मानिटरिेंग की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है फिर बाघ शावकों की सही गिनती कहां से आ गयी? वैसे भी यहां बाघों की संख्या पर भी प्रश्नचिन्हृ लगते रहे हैं। ऐसी दशा में उपरोक्त अधिकारियों की बयानजाबी पर संदेह होना लाजमी है। (लेखक वाइल्डलाइफर/पत्रकार है ं)
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