नामचीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इन दिनों भारत में 'सेव टाइगर्स्’ अभियान तमाम तरह के प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर चलाया जा रहा है। क्या इससे बाघों की लगातार घटती संख्या में कोई कमी आ पायेगी? शायद नहीं, क्योंकि बाघों को बचाने के लिए ज़मीनी स्तर पर वन क्षेत्रों में इनके नाम पर हो-हल्ला मचाने वालों के द्वारा कोई भी प्रयास नहीं किए जा रहें हैं। कम्पनी हो या फिर तथाकथित वाइल्ड लाइफर, सब केवल बाघ बचाने के नाम पर नाम, पैशा और शोहरत कमाने का धंधा कर रहे हैं.
प्रचार माध्यमों पर ऐसी कई कम्पनियां करोड़ों रुपया पानी की तरह क्यों बहा रही हैं और इस बात का प्रचार शहरी क्षेत्रों में करके किस लक्ष्य को हासिल करना चाहते हैं? इन सवालों के पीछे छुपे तथ्यों को जानना बहुत ज़रूरी है। हालांकि ऊपरी तौर पर लगता यही है कि भारत ही नहीं वरन् दुनियाभर के लोग जागरुक होकर बाघों के प्रति संवेदनशीलता के साथ इनके संरक्षण में जुट जाऐं। जबकि वनक्षेत्रों में रहने वाला आदिवासी वनाश्रित समाज और आम नागरिक समाज जो जंगल और जमीन से सीधे तौर पर जुड़ा है वह पहले से और आज भी बाघों से लगाव रखता है। अग्रेजों, जमीदारों, राजा-महराजाओं, नवाबों और अभिजात वर्ग के शिकारियों ने तो सिर्फ बाघ को मारा है. अपनी शानोशौकत प्रदर्शित करने के लिए ये लोग बाघ की हत्या कर उसके शव पर पैर रखकर फोटो खिंचवाना तथा बाघछाला को अपने सिंहासन पर बिछाना अपनी शान समझते थे।
अंग्रेजी हुकूमत के देश में नहीं रहने पर आजाद भारत में भी सन् 1972 से पहले तक बाघों का शिकार होता रहा और वन विभाग द्वारा इनका शिकार करने के लाईसेंस भी दिये जाते रहे हैं। परिणामतः देश में बाघों की दुनिया सिमटने पर नींद से जागी केन्द्र सरकार ने बाघ, तेंदुआ आदि विलुप्तप्राय होने वाले वन-पशुओं के शिकार पर प्रतिबंध लगाने वाला वन्यजीव-जंतु संरक्षण अधिनियम-1972 बना दिया। जबकि कड़वी सच्चाई ये है कि इस कानून के पास किये जाने के ठीक एक दिन पूर्व ही बाकायदा अधिसूचना जारी करके बाघ, तेंदुआ सहित कई प्रजातियों के वन्यजीवों को जंगल का दुश्मन करार देते हुये बड़ी संख्या में मार दिया गया था। हालांकि इसके बाद भी बाघों का अवैध शिकार जारी रहा, अब अगर परोसे जा रहे आंकड़े पर विश्वास करें तो देश में मात्र 1411 बाघ बचे हैं, जिन्हें बचाने के लिए इन तथाकथित सुधिजनों द्वारा ढिंढोरा पीटा जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि बाघ केवल अवैध शिकार की भेंट चढ़े हों, अन्य तमाम तरह के कारण भी इसके पीछे मौजूद रहे हैं। इनमें वनों का अवैध कटान, आबादी का विस्तार, अवैध खनन, शहरीकरण, प्राकृतिक एवं दैवीय आपदा आदि मुख्य कारण हैं। इसका पूरा-पूरा लाभ पूंजीपतियों ने ही उठाया जबकि घाटा वनवासियों एवं जंगल के निकटस्थ बस्तियों में रहने वाले गरीब तबकों के खाते में आया और आज भी उन्हीं को दोषी करार देकर उनको जंगल से बाहर खदेड़ने या वन के भीतर न घुस पायें इसका षडयंत्र रचा जा रहा है।
इस पूरे षडयंत्र के पीछे इन कम्पनियों के निहित स्वार्थ को न सिर्फ मीडिया तंत्र पूरी तरह से नज़रअन्दाज़ किये हुये है, बल्कि सरकारें भी आंख मूंद कर ये तमाशा चुपचाप देख रही हैं। दरअसल इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपने उद्योग कारखाने लगाने के लिये ज़मीनों की बड़ी मात्रा में ज़रूरत होती है और इन कारखानों के लिये कच्चे माल की आसानी से उपलब्धता अधिकांशतः जंगल क्षेत्रों से ही होती है। यही कारण है कि कारखानों के लिये वनभूमि इनके लिये सबसे मुफीद जगह होती है जिसे समुदायों की मौजूदगी में वनविभाग व सरकारों को सस्ते दामों में पटा कर हासिल करना इनके लिये खासा मुश्किल काम हो जाता है। समुदायों को जंगल क्षेत्रों से हटाने के लिये अख्तियार किये गये तमाम तरह के रास्तों में एक रास्ता यह भी अपनाया जा रहा है कि उन्हें शिकारी और तस्कर साबित करते हुये जंगल क्षेत्रों से हटाने के लिये एक ऐसी मुहिम छेड़ दी जाये जिससे आम नागरिक समाज में भी वन समुदायों के खिलाफ एक भ्रम फैल जाये और जंगल क्षेत्रों में इनके समर्थन में वनविभाग व सरकारों द्वारा अंजाम दी जा रही दमन की कार्यवाहियों पर ‘अवर सेव टाईगर्स‘ के नाम पर न्याय की मुहर लग सके।
आज जबकि वनाधिकार कानून-2006 लागू किया जा चुका है जिसमें स्वीकार किया गया है कि वनों के संरक्षण में ऐतिहासिक तौर पर वनसमुदायों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनके अधिकारों को अभिलिखित न करके उनके साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। लेकिन वनविभाग इन बड़ी कम्पनियों की मदद से इस कानून के क्रियान्वन की पूरी प्रक्रिया को ही ध्वस्त करके इन जनविरोधी कृत्यों को अंजाम देने में मशगूल है। अपने आपको जंगलों का रखवाला बताने वाला वन विभाग आज भी देश के सबसे बड़े जमींदार की भूमिका निभा रहा है। इसके द्वारा अंजाम दिये जा रहे अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न और अवैध वसूली की त्रासदी से परेशान वनवासी एवं गरीब वन सुरक्षा एवं वन्यजीवों के संरक्षण से धीरे-धीरे किनारा करते गए और वन विभाग भी वन सुरक्षा एवं वन्यजीव संरक्षण व प्रोजेक्ट टाईगर के कार्यों में पूरी तरह से असफल ही रहा है। कागजों में करोड़ो पेड़ लगवाने के बावज़ूद वन विभाग हरे-भरे जंगल का क्षेत्रफल आज तक नहीं बढ़ा पाया। वह भी तब जबकि आजादी के बाद से लेकर अब तक सरकारों ने बेशुमार अधिसूचनायें जारी करके लोगों की खेती व काश्त की यहां तक कि निवास की भी लाखों हेक्टेयर ज़मीनों को जंगल में समाहित करके वनभूमि में इज़ाफा करने का काम किया है। वन विभाग वन्यजीव प्रबंधन में भी बुरी तरह से असफल ही रहा है। परिणामतः वन्यजीवों की संख्या घटती ही जा रही है और प्रोजेक्ट टाईगर की असफलता भी जगजाहिर हो चुकी है। ऐसी विषम परिस्थितियों में नीति निर्धारकों द्वारा इसका समय रहते मूल्याकंन कराया जाना जरूरी है।
‘सेव अवर टाईगर्स’ अभियान में लगी इन कंपनियों के मंतव्य को देखा जाए तो वह केवल बाघ के नाम पर मात्र अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये ही प्रचार-प्रसार कर रही है। इनका बाघों के संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है। अगर वास्तव में बाघों को बचाने में इनकी कोई रुचि होती तो प्रचार पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बजाय वे वन एवं वन्यजीव संरक्षण जिसमें बाघ भी शामिल है उसके लिए फील्ड यानी वनक्षेत्रों में सार्थक प्रयास करतीं। जितना रुपया टीवी, अखबार विज्ञापन और खिलाड़ियों व माडलों पर व्यय किया जा रहा है। उतना रुपया अगर वन्यजीव सम्बंधी जिन कार्य योजनाओं के क्रियान्वयन में वन विभाग नाकाम रहा है ऐसे क्षेत्रों को चिन्हित करके वन प्रबंधन के कार्य करा दिए जाते या वनाधिकार कानून को सफल रूप से क्रियान्वित कराने के काम पर खर्च किया जाता तो वनसमुदायों तथा जंगलों के साथ-साथ बाघों का भी भला हो सकता था।
1 टिप्पणी:
सही लिखा है. जो जिस काम के लिये तनख्वाह लेता है, बस वही काम नहीं करता है, बाकी सब कुछ करता है. शब्द पुष्टि हटायें.
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