Delee news activist lucknow men 17.11.2010 ko prakashit lekh |
स्रष्टि कंजर्वेशन एंड वेलफेयर सोसाइटी [पंजीकृत] वन एवं वन्यजीवों की सहायता में समर्पित Srshti Conservation and Welfare Society [Register] Dedicated to help and assistance of forest and wildlife
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
दुधवा में पर्यटन हुआ महंगा
देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए मंहगा हुआ दुधवा नेशनल पार्क उत्तर प्रदेश के एकमात्र विश्व विख्यात दुधवा नेशनल पार्क का भ्रमण करना अब देशी- विदेशी पर्यटकों के लिए खासा मंहगा हो गया है। दो से तीन गुना तक हुई बढ़ोत्तरी की दरें इस साल 15 नवम्बर से शुरू हो रहे नवीन पर्यटन सत्र से लागू होगी। सन् 2003 के बाद यह वृद्धि की गई है। जिससे दुधवा नेशनल पार्क के पर्यटन व्यवसाय पर बिपरीत प्रभाव पड़ सकता है इस संभावना से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि यूपी का इकलौता विश्व पर्यटन मानचित्र पर स्थापित दुधवा नेशनल पार्क प्रकृति की अनमोल धरोहर के साथ विलुप्तप्राय वन्यजीवों की विभिन्न प्रजातियों को अपने आगोश में समेटे है। इसमें शेड्यूल वन की श्रेणी में चिन्हित बाघ एवं तेंदुआ के साथ ही हाथियों के झुण्ड को स्वच्छंद रूप से विचरण करता हुआ देखा जा सकता है। जबकि देश में आसाम के बाद दुधवा ही ऐसा नेशनल पार्क है जिसमें तीस सदस्यीय गैण्डा परिवार रहता है। इनके संरक्षण और संवर्द्धन के लिए दुधवा पार्क में जहां ’गैण्डा पुनर्वास परियोजना’ चल रही है। वहीं बाघों की सुरक्षा एवं संरक्षण का दायित्व ’प्रोजेक्ट टाइगर’ संभाले है।
दुधवा नेशनल पार्क के वन क्षेत्र में वृक्षों की 75 प्रजातियां 21 प्रकार की झाड़ियां, 17 तरह की बेल व लताएं तथा 77 प्रकार की घासों समेत 179 प्रकार की पानी में उगने वाले पौधे चिन्हित किए जा चुके हैं। इनमें से 24 प्रजातियां संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा चिड़ियों की 411, टेपटाइल की 25, एम्फीबियन की 15 तथा स्तनपाई जीवों की 51 प्रजातियां पाई जाती हैं। जबकि यूरोप, साइबेरिया आदि बर्फीले क्षेत्रों के विदेशी प्रवासी पक्षी भी शीतकाल के दौरान दुधवा पार्क के तालाबों एवं झीलों में देखे जा सकते हैं। इसमें यहां पाए जाने वाले बंगाल śलोरिकन एवं लेसर śलोरिकन नाम के दुर्लभ पक्षी भी दुधवा पार्क की पहचान बन चुके हैं। प्राकृतिक वैराव से परिपूर्ण दुधवा नेशनल पार्क के मनोहरी दृश्य देखने के साथ ही पशु-पक्षियों को कलरव को सुनकर पर्यटकों के लिए रोमांचकारी होता है। लेकिन अब प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण नयना भिराम नजारों सहित दुर्लभ प्रजाति के वयंजीवों को स्वच्छंद विचरण करता हुआ देखने के लिए भ्रमण हेतु आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को दुधवा दर्शन काफी महंगा साबित होगा। वह भी इसीलिए क्योंकि 15 नवम्बर से शुरू हो रहे पर्यटन सत्र से शासन द्वारा की गई मूल्य वृद्धि के अनुसार ही रेस्ट हाउस, थारूहट आदि का आरक्षण किया जाएगा। सन् 2003 से चल रही दरों में सात साल बाद दो से तीन गुना की वृद्धि की गई है।
उल्लेखनीय है कि प्रवेश शुल्क में हुई वृद्धि के अनुसार प्रति व्यक्ति तीन दिन के लिए पहले पचास रूपया था अब एक सौ रूपए हो गया है। पूर्व में बच्चों का प्रवेश निःशुल्क था अब देशी पर्यटक बच्चे का शुल्क 60 रूपए और विदेशी को सात सौ रूपए देने होगें। इसी प्रकार गाड़ियों के प्रवेश शुल्क में भी वृद्धि की गई है। जबकि हाथी सवारी के लिए चार व्यक्ति दो घंटा हेतु 300 रूपए देते थे अब प्रति व्यक्ति को 150 रूपए देने होंगे। दुधवा नेशनल पार्क में ठहरना भी महंगा हो गया है। इसमें वन विश्राम भवन दुधवा का कक्ष चार सौ रूपए में आरक्षित होता था अब हुई वृद्धि में भवन की श्रेणी निर्धारित की गई है। उसके अनुसार पर्यटक को भुगतान करना होगा। थारूहट 150 रूपए के बजाय अब चार सौ से पांच सौ रूपए में आरक्षित किए जायेंगे। इसी प्रकार डारमेटŞी में भी पचास रूपए से बढ़ाकर 75 रूपए प्रति व्यक्ति किया गया है। जबकि पूर्व में बनकटी वन विश्राम भवन आदि एक सौ रूपए में बुक होते थे अब तीन सौ रूपए प्रतिदिन का लिया जाएगा। किशनपुर वन विश्राम भवन अब 150 रूपए के बजाय 500 रूपए में आरक्षित होगा। दुधवा में फीचर फिल्म तथा डाक्युमेंट्री बनाने के शुल्क में भी भारी वृद्धि की गई है। पूर्व की नागिनल दर यानी फीचर फिल्म 2500 रूपए एवं डाक्युमेंट्री फिल्म 1500 था तब दुधवा में कोई निर्माता दिलचस्पी नहीं लेता था अब चार गुना वृद्धि के साथ फीचर फिल्म का एक लाख रूपए एवं डाक्युमेंट्री फिल्म का 6 हजार रूपए लिया जाएगा। इस पर भी निर्माता को सुरक्षा शुल्क अलग से देना होगा। दुधवा में भ्रमण महंगा होने से अब आम पर्यटक इससे और दूर हो जाएगा जिससे पर्यटन व्यवसाय से होने वाली आय पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है।
दुधवा नेशनल पार्क में 15 नवम्बर से आवास सुविधा
पर लागू होने वाली नई दरें-
विवरण देशी विदेशीदुधवा वन विश्राम भवन-
वातानुकूलित कक्ष संख्या एक 1000 रुपए 3000 रुपए
विश्राम भवन कक्ष संख्या दो 750 रुपए 2250 रुपए
विश्राम भवन कक्ष संख्या 3,4,5 400 रुपए 1200 रुपए
थारूहट एक व दो 500 रुपए 1500 रुपए
थारूहट तीन से चौदह 400 रुपए 1000 रुपए
डारमेट्री प्रति व्यक्ति 75 रुपए 225 रुपए
सोठियाना वन विश्राम भवन 400 रुपए 1200 रुपए
लाग हट 200 रुपए 600 रुपए
सोनारीपुर वन विश्राम भवन प्रथम तल 400 रुपए 1200 रुपए
द्वितीय तल 300 रुपए 900 रुपए
वनकटी वन विश्राम भवन 300 रुपए 900 रुपए
किशनपुर वन विश्राम भवन 500 रुपए 1500 रुपए
सलूकापुर, मसानखंभ, वेलरायां,
किला, बेलापरसुआ, वन विश्राम
भवन 300 रुपए 900 रुपए
दुधवा नेशनल पार्क में फीस एवं किराया 15 नवम्बर से लागू नई दरें-
दुधवा नेशनल पार्क में-
प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति तीन दिन 100 रुपए
विदेशी 800 रुपए
वच्चा 60 रुपए
विदेशी 700 रुपए
अतिरिक्त दिन 40 रुपए
विदशी 350 रुपए
किशनपुर वन्यजीव विहार में-
प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति तीन दिन 50 रुपए
विदेशी 600 रुपए
वच्चा 30 रुपए
विदेशी 350 रुपए
अतिरिक्त दिन 40 रुपए
विदशी 350 रुपए
दुपहिया वाहन 20 रुपए
कार, जीप 100 रुपए
पर्यटक बस 200 रुपए
रोड फीस हल्की गाड़ी 300 रुपए
मिनी बस 800 रुपए
भारी गाड़ी 1600 रुपए
कैमरा फीस पर्यटकों के लिए निःशुल्क
कैमरा फीस मूवी एवं वीडीयो 5000 रुपए
विदेशी 10000 रुपए
फीचर फिल्म प्रतिदिन 100000 रुपए
विदेशी 150000 रुपए
डाक्युमेंट्री फिल्म प्रतिदिन 6000 रुपए
विदेशी 12000 रुपए
उपरोक्त के लिए सुरक्षा फीस-
फीचर फिल्म 100000 रुपए
विदेशी 150000 रुपए
डाक्युमेंट्री फिल्म 25000 रुपए
विदेशी 25000 रुपए
हाथी सवारी दो घंटा प्रति व्यक्ति 150 रुपए
विदेशी 300 रुपए
मिनी बस 10 सीटर प्रति किमी 45 रुपए
विदेशी 90 रुपए
जीप 6 सीटर प्रति किमी 40 रुपए
विदेशी 80 रुपए
उल्लेखनीय है कि यूपी का इकलौता विश्व पर्यटन मानचित्र पर स्थापित दुधवा नेशनल पार्क प्रकृति की अनमोल धरोहर के साथ विलुप्तप्राय वन्यजीवों की विभिन्न प्रजातियों को अपने आगोश में समेटे है। इसमें शेड्यूल वन की श्रेणी में चिन्हित बाघ एवं तेंदुआ के साथ ही हाथियों के झुण्ड को स्वच्छंद रूप से विचरण करता हुआ देखा जा सकता है। जबकि देश में आसाम के बाद दुधवा ही ऐसा नेशनल पार्क है जिसमें तीस सदस्यीय गैण्डा परिवार रहता है। इनके संरक्षण और संवर्द्धन के लिए दुधवा पार्क में जहां ’गैण्डा पुनर्वास परियोजना’ चल रही है। वहीं बाघों की सुरक्षा एवं संरक्षण का दायित्व ’प्रोजेक्ट टाइगर’ संभाले है।
दुधवा नेशनल पार्क के वन क्षेत्र में वृक्षों की 75 प्रजातियां 21 प्रकार की झाड़ियां, 17 तरह की बेल व लताएं तथा 77 प्रकार की घासों समेत 179 प्रकार की पानी में उगने वाले पौधे चिन्हित किए जा चुके हैं। इनमें से 24 प्रजातियां संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा चिड़ियों की 411, टेपटाइल की 25, एम्फीबियन की 15 तथा स्तनपाई जीवों की 51 प्रजातियां पाई जाती हैं। जबकि यूरोप, साइबेरिया आदि बर्फीले क्षेत्रों के विदेशी प्रवासी पक्षी भी शीतकाल के दौरान दुधवा पार्क के तालाबों एवं झीलों में देखे जा सकते हैं। इसमें यहां पाए जाने वाले बंगाल śलोरिकन एवं लेसर śलोरिकन नाम के दुर्लभ पक्षी भी दुधवा पार्क की पहचान बन चुके हैं। प्राकृतिक वैराव से परिपूर्ण दुधवा नेशनल पार्क के मनोहरी दृश्य देखने के साथ ही पशु-पक्षियों को कलरव को सुनकर पर्यटकों के लिए रोमांचकारी होता है। लेकिन अब प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण नयना भिराम नजारों सहित दुर्लभ प्रजाति के वयंजीवों को स्वच्छंद विचरण करता हुआ देखने के लिए भ्रमण हेतु आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को दुधवा दर्शन काफी महंगा साबित होगा। वह भी इसीलिए क्योंकि 15 नवम्बर से शुरू हो रहे पर्यटन सत्र से शासन द्वारा की गई मूल्य वृद्धि के अनुसार ही रेस्ट हाउस, थारूहट आदि का आरक्षण किया जाएगा। सन् 2003 से चल रही दरों में सात साल बाद दो से तीन गुना की वृद्धि की गई है।
उल्लेखनीय है कि प्रवेश शुल्क में हुई वृद्धि के अनुसार प्रति व्यक्ति तीन दिन के लिए पहले पचास रूपया था अब एक सौ रूपए हो गया है। पूर्व में बच्चों का प्रवेश निःशुल्क था अब देशी पर्यटक बच्चे का शुल्क 60 रूपए और विदेशी को सात सौ रूपए देने होगें। इसी प्रकार गाड़ियों के प्रवेश शुल्क में भी वृद्धि की गई है। जबकि हाथी सवारी के लिए चार व्यक्ति दो घंटा हेतु 300 रूपए देते थे अब प्रति व्यक्ति को 150 रूपए देने होंगे। दुधवा नेशनल पार्क में ठहरना भी महंगा हो गया है। इसमें वन विश्राम भवन दुधवा का कक्ष चार सौ रूपए में आरक्षित होता था अब हुई वृद्धि में भवन की श्रेणी निर्धारित की गई है। उसके अनुसार पर्यटक को भुगतान करना होगा। थारूहट 150 रूपए के बजाय अब चार सौ से पांच सौ रूपए में आरक्षित किए जायेंगे। इसी प्रकार डारमेटŞी में भी पचास रूपए से बढ़ाकर 75 रूपए प्रति व्यक्ति किया गया है। जबकि पूर्व में बनकटी वन विश्राम भवन आदि एक सौ रूपए में बुक होते थे अब तीन सौ रूपए प्रतिदिन का लिया जाएगा। किशनपुर वन विश्राम भवन अब 150 रूपए के बजाय 500 रूपए में आरक्षित होगा। दुधवा में फीचर फिल्म तथा डाक्युमेंट्री बनाने के शुल्क में भी भारी वृद्धि की गई है। पूर्व की नागिनल दर यानी फीचर फिल्म 2500 रूपए एवं डाक्युमेंट्री फिल्म 1500 था तब दुधवा में कोई निर्माता दिलचस्पी नहीं लेता था अब चार गुना वृद्धि के साथ फीचर फिल्म का एक लाख रूपए एवं डाक्युमेंट्री फिल्म का 6 हजार रूपए लिया जाएगा। इस पर भी निर्माता को सुरक्षा शुल्क अलग से देना होगा। दुधवा में भ्रमण महंगा होने से अब आम पर्यटक इससे और दूर हो जाएगा जिससे पर्यटन व्यवसाय से होने वाली आय पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है।
दुधवा नेशनल पार्क में 15 नवम्बर से आवास सुविधा
पर लागू होने वाली नई दरें-
विवरण देशी विदेशीदुधवा वन विश्राम भवन-
वातानुकूलित कक्ष संख्या एक 1000 रुपए 3000 रुपए
विश्राम भवन कक्ष संख्या दो 750 रुपए 2250 रुपए
विश्राम भवन कक्ष संख्या 3,4,5 400 रुपए 1200 रुपए
थारूहट एक व दो 500 रुपए 1500 रुपए
थारूहट तीन से चौदह 400 रुपए 1000 रुपए
डारमेट्री प्रति व्यक्ति 75 रुपए 225 रुपए
सोठियाना वन विश्राम भवन 400 रुपए 1200 रुपए
लाग हट 200 रुपए 600 रुपए
सोनारीपुर वन विश्राम भवन प्रथम तल 400 रुपए 1200 रुपए
द्वितीय तल 300 रुपए 900 रुपए
वनकटी वन विश्राम भवन 300 रुपए 900 रुपए
किशनपुर वन विश्राम भवन 500 रुपए 1500 रुपए
सलूकापुर, मसानखंभ, वेलरायां,
किला, बेलापरसुआ, वन विश्राम
भवन 300 रुपए 900 रुपए
दुधवा नेशनल पार्क में फीस एवं किराया 15 नवम्बर से लागू नई दरें-
दुधवा नेशनल पार्क में-
प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति तीन दिन 100 रुपए
विदेशी 800 रुपए
वच्चा 60 रुपए
विदेशी 700 रुपए
अतिरिक्त दिन 40 रुपए
विदशी 350 रुपए
किशनपुर वन्यजीव विहार में-
प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति तीन दिन 50 रुपए
विदेशी 600 रुपए
वच्चा 30 रुपए
विदेशी 350 रुपए
अतिरिक्त दिन 40 रुपए
विदशी 350 रुपए
दुपहिया वाहन 20 रुपए
कार, जीप 100 रुपए
पर्यटक बस 200 रुपए
रोड फीस हल्की गाड़ी 300 रुपए
मिनी बस 800 रुपए
भारी गाड़ी 1600 रुपए
कैमरा फीस पर्यटकों के लिए निःशुल्क
कैमरा फीस मूवी एवं वीडीयो 5000 रुपए
विदेशी 10000 रुपए
फीचर फिल्म प्रतिदिन 100000 रुपए
विदेशी 150000 रुपए
डाक्युमेंट्री फिल्म प्रतिदिन 6000 रुपए
विदेशी 12000 रुपए
उपरोक्त के लिए सुरक्षा फीस-
फीचर फिल्म 100000 रुपए
विदेशी 150000 रुपए
डाक्युमेंट्री फिल्म 25000 रुपए
विदेशी 25000 रुपए
हाथी सवारी दो घंटा प्रति व्यक्ति 150 रुपए
विदेशी 300 रुपए
मिनी बस 10 सीटर प्रति किमी 45 रुपए
विदेशी 90 रुपए
जीप 6 सीटर प्रति किमी 40 रुपए
विदेशी 80 रुपए
गुरुवार, 4 नवंबर 2010
दयनीय दशा से कब उबरेगा किसान
दयनीय दशा से कब उबरेगा किसान Daily News Activist LUCKNOW 04.11.2010 http://65.175.77.34/dailynewsactivist/Details.aspx?id=9999 &boxid=27129694&eddate=11%2F4%2F2010 |
बुधवार, 6 अक्टूबर 2010
बाढ़ ने बिगाड़ा पशुपालन कारोबार
Daily News Activist LUCKNOU me 05.10.2010 बाढ़ ने बिगाड़ा पशुपालन कारोबार http://65.175.77.34/dailynewsactivist/Details.aspx?id=9486&boxid=27047464&eddate=10/5/2010 |
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
हाथियों की मौत के बाद सरकार को आया होश
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में २८.०९.२०१० में पेज नौ पर हाथियों की मौत के बाद सरकार को आया होश http://65.175.77.34/dailynewsactivist/Details.aspx?id=9390&boxid=27301884&eddate=9/28/2010 |
रविवार, 26 सितंबर 2010
चिकित्सक के अभाव में बागी 'शेरा' मौत के कगार पर
चिकित्सक के अभाव में बागी 'शेरा' मौत के कगार पर
http://www.visfot.com/index.php/paryavaran/3991.html
http://www.visfot.com/index.php/paryavaran/3991.html
विस्फोट डाट काम |
सोमवार, 20 सितंबर 2010
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में लखनऊ दुधवा में बीमार हाथी की दुर्दशा
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट लखनऊ में २०.०९.२०१० को छपा लेख दुधवा नें बीमार हाथी की दुर्दशा http://65.175.77.34/dailynewsactivist/epapermain.aspx |
रविवार, 19 सितंबर 2010
मंगलवार, 7 सितंबर 2010
हिन्दुस्तानियों के सीने पर सेना की गोलियां
उत्तर प्रदेश तथा उत्तरांचल की भारत-नेपाल सीमा पर होने वाली तस्करी, वन कटान, अवैध वन्यजीव शिकार, आईएसआई की सक्रियता तथा आतंकवादी एवं विदेशी घुसपैठ आदि को रोकने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पैरा मिलिट्री फोर्स सीमा सशस्त्र बल को तैनात किया गया है। सीमा सशस्त्र बल यानी एसएसबी के जवान अपने मूल उद्देश्यों व कार्यों से भटक कर भौतिक सुखों की खातिर आमजनता का बेवजह उत्पीड़न एवं आर्थिक शोषण करने से परहेज नहीं करते हैं और सीधे बंदूक की भाषा में बात करने लगे हैं।
इसी का परिणाम है खीरी जिले के ग्राम त्रिकोलिया में जवानों द्वारा किया गया हिंसक तांडव एवं हत्याकांड, जिसमें दो निरीह बेगुनाह ग्रामीण मारे गए। निरंकुश जवानों के द्वारा आम जनता के साथ किये जाने वाले अनेक तरह के अत्याचारों और शोषण के विरोध में सीमावर्ती गांवों में उनके बीच बढ़ते तनाव से युवाओं के मन में विरोध की आग सुलगने लगी है, जिसकी परिणीत नक्सलवाद या आतंकवाद अथवा हथियारबंद बिरोध के रूप में कभी भी हो सकती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। यद्यपि त्रिकोलिया काण्ड के मद्देनजर यूपी की सरकार ने सीमावर्ती क्षेत्रों में दिनोंदिन जवानों और ग्रामीणों के बीच बढ़ रहे तनावों और संघर्षों की रोकथाम के लिए भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत मिले एस0एस0बी0 के पुलिस अधिकारों में कटौती किये जाने का प्रस्ताव पुनः केन्द्र सरकार को भेजा है।
2 अगस्त 2010 को एसएसबी की वर्दी तब शर्मसार हो गई जब जवानों ने मामूली विवाद से रोष में आकर दो बेगुनाह ग्रामीणों की गोली मारकर हत्या कर दी। घटना खीरी जिले के ग्राम त्रिकोलिया की है, विवाद सिर्फ इतना था कि सड़क पर साइड न मिलने से एक गाड़ी का पीछा करते हुए एसएसबी के जवान अपने डिप्टी कंमाडेंट के निर्देश पर पूर्व विधायक निरवेन्द्र कुमार ‘मुन्ना‘ के आवास पर पहुंच गए। जहां पर जवानों ने जनप्रतितिनिधि रहे पूर्व विधायक के साथ अभद्रता ही नहीं की वरन् उनको डंडा भी मार दिया। इससे आक्रोशित ग्रामीणों ने जवानों को रोक लिया। इनकी सूचना पर त्रिकोलिया पहुंचे दर्जनों बेलगाम जवानों ने बिना किसी से बात किए लाठीचार्ज का तांडव शुरू कर दिया। उनके द्वारा नियम-कायदों को ताक पर रखकर ग्रामीणों पर बरसाई गई गोलियों से तमाशबीन रहे बेगुनाह गरीब युवक पाइया और बदरूद्दीन की मौत हो गई। इस पूरे घटनाक्रम में भी यह बात उभर कर आई कि यदि एसएसबी के अधिकारी संयम बरत कर समझदारी से परिस्थितियों का आंकलन करते और सिविल पुलिस के सहयोग से कानूनी कार्यवाही करते तो शायद बेवजह हुई दो युवकों की अकाल मौत को टाला जा सकता था।
निरंकुश जवानों द्वारा किया जाने वाला यह हिंसक तांडव कोई पहली घटना नहीं है। सन् 2001 से ही इस फोर्स ने अपनी तैनाती के बाद से भारत-नेपाल सीमावर्ती क्षेत्रों के आदिवासियों तथा अन्य निवासियों पर अत्याचार शुरू कर दिया था। हिंसक घटनाओं के अलावा भारत-नेपाल सीमावर्ती ग्रामीणों के साथ किए जाने वाले बेवजह उत्पीड़न, अत्याचार, आर्थिक शोषण और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ एवं यौन शोषण आदि के विरोध में जवानों तथा ग्रामीणों के बीच टकराव की अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं। जिनमें पुलिस एवं जिला प्रशासन को कानून व्यवस्था को बनाए रखने में काफी मसक्कत करनी पड़ी। यहां तक मामले को रफा-दफा करने के लिए एसएसबी अधिकारियों को सार्वजनिक माफी तक मांगकर शर्मिदंगी भी झेलनी पड़ी। एसएसबी के जवानों द्वारा अपने ही हिंदुस्तनी भाईयों के सीनों पर ही चलाई जा रही गोलियां अगर तस्करों, आतंकवादी, विदेशी घुसपैठियों अथवा भारतीय वन संपदा को बचाने के लिए चलाई जातीं तो आमजनता के बीच विलेन बन रहे एसएसबी के जवानों का रूप हीरो का होता और वाह-वाही तथा सम्मान मिलता अलग से ।
भारत-नेपाल की खुली सीमा दुधवा नेशनल पार्क के जंगल से सटी है, इसलिए सीमाई इलाकों से वन कटान तथा वन्यजीवों के अंगों का अवैध कारोबार एवं तस्करी का गैर कानूनी कार्य एसएसबी एवं बन विभाग और तस्करों की हुई जुगलबंदी के बीच निर्वाध रूप से चल रहा है। यह अवैध गोरखधंधा उजागर न हो जाए इसलिए भी आतंक फैलाकर ग्रामीणों को भयभीत किया जा रहा है, ताकि वह उनके खिलाफ अपना मुंह न खेल सकें। जबकि राष्टृीय सुरक्षा से जुड़ी इस फोर्स का यह आचरण कतई शोभनीय नहीं है। एसएसबी के जवानों के कुकृत्यों से केंद्र सरकार की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। फोर्स कोई भी हो उसका काम यह नहीं है कि वह आम जनता को तंग और परेशान करे। जनता की सुरक्षा के लिए सीमापर लगाई गई फोर्स आज उनकी सुरक्षा के लिए ही सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। खीरी जिले के ही नहीं वरन यूपी के अन्य सीमावर्ती ग्रामीणांचल समेत उत्तरांचल के सीमाई इलाकों की जनता भी इनके अशोभनीय व्यवहार और कुकृत्यों से त्रस्त हैं। इसके चलते भारत-नेपाल सीमा पर एसएसबी की मौजूदगी पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।
भारत-नेपाल सीमा पर एसएसबी के लगभग दस साल के क्षेत्रीय इतिहास में कोई अहम व उल्लेखनीय उपलब्धि तो उसके खाते में दर्ज नहीं हो सकी है। जिसमें जवानों को वाहवाही मिली हो, जबकि वर्दी पर बदनुमा दाग तमाम लग चुके हैं। यद्यपि एसएसबी द्वारा जनता का सहयोग पाने तथा परस्पर प्रेम बढ़ाकर सीमा पर शांति कायम रखने के उद्देश्य से सीमावर्ती गांवों में सद्भावना जागरूकता अभियान समय-समय पर चलाए जाते हैं। बावजूद इसके उनके तथा जनता के बीच दूरियां लगातार बढ़ ही रही हैं और जो थोड़ी बहुत शान्ति थी वह भी पूरी तरह से भंग हो चुकी है। आजाद भारत में अंग्रेजी शासन वाले फोर्स की तरह एसएसबी के जवान सीमा पर हुकूमत कर रहें हैं। जबकि फोर्स कोई भी हो उसका उद्देश्य होता है कि संयम से काम लेते हुए बिपरीत परिस्थितियों का आंकलन करके समस्या का निराकरण करना। इसके बजाय जवान अमानवीय व हिंसक तरीका अपनाते हैं जिससे संघर्ष और टकराव बढ़ने लगा है। जबकि कैसी भी विषम एवं विपरीत परिस्थितियां हों उसमें हलका-फुलका बल प्रयोग तो जायज हो सकता है, परंतु गोली चला देना कम से कम अंतिम निर्णय तो कतई नहीं होना चाहिए। क्योंकि आक्रोशित जनता ने भी अगर अत्याचार और शोषण का जवाब हथियारबंद टकराव से देना शुरू कर दिया तो स्थिति और भयावह हो सकती है।
इतिहास गवाह है कि फोर्स कोई भी हो अथवा सरकारी तन्त्र, जिसने जब भी गरीब आम जनता पर अकारण अत्याचार किया तो उसके विरोध में पैदा हुआ है आतंकवाद एवं नक्सलवाद। झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल या जम्मू-कश्मीर आदि प्रान्त हों उनमें सरकारी तंत्र की अन्यायपूर्ण व्यवस्था और सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले बेवजह अत्याचार के बिरोध में जड़ जमा चुका नक्सलवाद या फिर आतंकवाद इसी का परिणाम है। यूपी के बिहार से सटे कुछ जिलों में नक्सलवाद अपना सिर उठाने भी लगा है। यह विकट समस्या इस शांतिपूर्ण तराई क्षेत्र में भी पनप सकती है क्योंकि यहां भी एसएसबी के जवान अपने ही हिन्दुस्तानी भाईयों के सीनो पर बेवजह गोलियां दाग रहे हैं। इससे क्षेत्रीय युवाओं के मन में अत्याचार और शोषण के खिलाफ सुलग रही बिरोध की आग को पहचान कर अगर नक्सली नेताओं ने यहां आकर हवा दे दी तो यह शांत इलाका भी नक्सलवाद की चपेट में आकर आतंकवाद को पैदा कर सकता है। क्योंकि यह तराई इलाका पूर्व में 80-90 के दशक में नेक्सलाइट मूवमेंट और सिक्ख आतंकवाद का प्रमुख पनाहगाह रह चुका है। ऐसी बन रही पस्थितियों से निपटने के लिए आवश्यक हो गया है कि फोर्स कोई भी हो उसके जवानों को विपरीत परिस्थितियों में भी संयम बरतने का प्रशिक्षण दिए जाने के साथ ही उनको मानवाधिकारों का भी पाठ पढ़ाया जाए। इसके अतिरिक्त घटनाओं में दोषी पाए जाने वाले जवानों को सख्ती से दण्डित किया जाए, जिससे अन्य जवान भी उससे सबक हासिल करें और वह बेवजह किसी निर्दोश नागरिक पर गोली चलाने की हिम्मत न जुटा सकें। तभी सीमा पर सुरक्षा बलों एवं जनता के बीच बढ़ रही अविश्वास की खाइयों को पाटा जा सकता है और पूरी तरह से शांति कायम हो सकती है।
इसी का परिणाम है खीरी जिले के ग्राम त्रिकोलिया में जवानों द्वारा किया गया हिंसक तांडव एवं हत्याकांड, जिसमें दो निरीह बेगुनाह ग्रामीण मारे गए। निरंकुश जवानों के द्वारा आम जनता के साथ किये जाने वाले अनेक तरह के अत्याचारों और शोषण के विरोध में सीमावर्ती गांवों में उनके बीच बढ़ते तनाव से युवाओं के मन में विरोध की आग सुलगने लगी है, जिसकी परिणीत नक्सलवाद या आतंकवाद अथवा हथियारबंद बिरोध के रूप में कभी भी हो सकती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। यद्यपि त्रिकोलिया काण्ड के मद्देनजर यूपी की सरकार ने सीमावर्ती क्षेत्रों में दिनोंदिन जवानों और ग्रामीणों के बीच बढ़ रहे तनावों और संघर्षों की रोकथाम के लिए भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत मिले एस0एस0बी0 के पुलिस अधिकारों में कटौती किये जाने का प्रस्ताव पुनः केन्द्र सरकार को भेजा है।
2 अगस्त 2010 को एसएसबी की वर्दी तब शर्मसार हो गई जब जवानों ने मामूली विवाद से रोष में आकर दो बेगुनाह ग्रामीणों की गोली मारकर हत्या कर दी। घटना खीरी जिले के ग्राम त्रिकोलिया की है, विवाद सिर्फ इतना था कि सड़क पर साइड न मिलने से एक गाड़ी का पीछा करते हुए एसएसबी के जवान अपने डिप्टी कंमाडेंट के निर्देश पर पूर्व विधायक निरवेन्द्र कुमार ‘मुन्ना‘ के आवास पर पहुंच गए। जहां पर जवानों ने जनप्रतितिनिधि रहे पूर्व विधायक के साथ अभद्रता ही नहीं की वरन् उनको डंडा भी मार दिया। इससे आक्रोशित ग्रामीणों ने जवानों को रोक लिया। इनकी सूचना पर त्रिकोलिया पहुंचे दर्जनों बेलगाम जवानों ने बिना किसी से बात किए लाठीचार्ज का तांडव शुरू कर दिया। उनके द्वारा नियम-कायदों को ताक पर रखकर ग्रामीणों पर बरसाई गई गोलियों से तमाशबीन रहे बेगुनाह गरीब युवक पाइया और बदरूद्दीन की मौत हो गई। इस पूरे घटनाक्रम में भी यह बात उभर कर आई कि यदि एसएसबी के अधिकारी संयम बरत कर समझदारी से परिस्थितियों का आंकलन करते और सिविल पुलिस के सहयोग से कानूनी कार्यवाही करते तो शायद बेवजह हुई दो युवकों की अकाल मौत को टाला जा सकता था।
निरंकुश जवानों द्वारा किया जाने वाला यह हिंसक तांडव कोई पहली घटना नहीं है। सन् 2001 से ही इस फोर्स ने अपनी तैनाती के बाद से भारत-नेपाल सीमावर्ती क्षेत्रों के आदिवासियों तथा अन्य निवासियों पर अत्याचार शुरू कर दिया था। हिंसक घटनाओं के अलावा भारत-नेपाल सीमावर्ती ग्रामीणों के साथ किए जाने वाले बेवजह उत्पीड़न, अत्याचार, आर्थिक शोषण और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ एवं यौन शोषण आदि के विरोध में जवानों तथा ग्रामीणों के बीच टकराव की अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं। जिनमें पुलिस एवं जिला प्रशासन को कानून व्यवस्था को बनाए रखने में काफी मसक्कत करनी पड़ी। यहां तक मामले को रफा-दफा करने के लिए एसएसबी अधिकारियों को सार्वजनिक माफी तक मांगकर शर्मिदंगी भी झेलनी पड़ी। एसएसबी के जवानों द्वारा अपने ही हिंदुस्तनी भाईयों के सीनों पर ही चलाई जा रही गोलियां अगर तस्करों, आतंकवादी, विदेशी घुसपैठियों अथवा भारतीय वन संपदा को बचाने के लिए चलाई जातीं तो आमजनता के बीच विलेन बन रहे एसएसबी के जवानों का रूप हीरो का होता और वाह-वाही तथा सम्मान मिलता अलग से ।
भारत-नेपाल की खुली सीमा दुधवा नेशनल पार्क के जंगल से सटी है, इसलिए सीमाई इलाकों से वन कटान तथा वन्यजीवों के अंगों का अवैध कारोबार एवं तस्करी का गैर कानूनी कार्य एसएसबी एवं बन विभाग और तस्करों की हुई जुगलबंदी के बीच निर्वाध रूप से चल रहा है। यह अवैध गोरखधंधा उजागर न हो जाए इसलिए भी आतंक फैलाकर ग्रामीणों को भयभीत किया जा रहा है, ताकि वह उनके खिलाफ अपना मुंह न खेल सकें। जबकि राष्टृीय सुरक्षा से जुड़ी इस फोर्स का यह आचरण कतई शोभनीय नहीं है। एसएसबी के जवानों के कुकृत्यों से केंद्र सरकार की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। फोर्स कोई भी हो उसका काम यह नहीं है कि वह आम जनता को तंग और परेशान करे। जनता की सुरक्षा के लिए सीमापर लगाई गई फोर्स आज उनकी सुरक्षा के लिए ही सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। खीरी जिले के ही नहीं वरन यूपी के अन्य सीमावर्ती ग्रामीणांचल समेत उत्तरांचल के सीमाई इलाकों की जनता भी इनके अशोभनीय व्यवहार और कुकृत्यों से त्रस्त हैं। इसके चलते भारत-नेपाल सीमा पर एसएसबी की मौजूदगी पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।
भारत-नेपाल सीमा पर एसएसबी के लगभग दस साल के क्षेत्रीय इतिहास में कोई अहम व उल्लेखनीय उपलब्धि तो उसके खाते में दर्ज नहीं हो सकी है। जिसमें जवानों को वाहवाही मिली हो, जबकि वर्दी पर बदनुमा दाग तमाम लग चुके हैं। यद्यपि एसएसबी द्वारा जनता का सहयोग पाने तथा परस्पर प्रेम बढ़ाकर सीमा पर शांति कायम रखने के उद्देश्य से सीमावर्ती गांवों में सद्भावना जागरूकता अभियान समय-समय पर चलाए जाते हैं। बावजूद इसके उनके तथा जनता के बीच दूरियां लगातार बढ़ ही रही हैं और जो थोड़ी बहुत शान्ति थी वह भी पूरी तरह से भंग हो चुकी है। आजाद भारत में अंग्रेजी शासन वाले फोर्स की तरह एसएसबी के जवान सीमा पर हुकूमत कर रहें हैं। जबकि फोर्स कोई भी हो उसका उद्देश्य होता है कि संयम से काम लेते हुए बिपरीत परिस्थितियों का आंकलन करके समस्या का निराकरण करना। इसके बजाय जवान अमानवीय व हिंसक तरीका अपनाते हैं जिससे संघर्ष और टकराव बढ़ने लगा है। जबकि कैसी भी विषम एवं विपरीत परिस्थितियां हों उसमें हलका-फुलका बल प्रयोग तो जायज हो सकता है, परंतु गोली चला देना कम से कम अंतिम निर्णय तो कतई नहीं होना चाहिए। क्योंकि आक्रोशित जनता ने भी अगर अत्याचार और शोषण का जवाब हथियारबंद टकराव से देना शुरू कर दिया तो स्थिति और भयावह हो सकती है।
इतिहास गवाह है कि फोर्स कोई भी हो अथवा सरकारी तन्त्र, जिसने जब भी गरीब आम जनता पर अकारण अत्याचार किया तो उसके विरोध में पैदा हुआ है आतंकवाद एवं नक्सलवाद। झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल या जम्मू-कश्मीर आदि प्रान्त हों उनमें सरकारी तंत्र की अन्यायपूर्ण व्यवस्था और सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले बेवजह अत्याचार के बिरोध में जड़ जमा चुका नक्सलवाद या फिर आतंकवाद इसी का परिणाम है। यूपी के बिहार से सटे कुछ जिलों में नक्सलवाद अपना सिर उठाने भी लगा है। यह विकट समस्या इस शांतिपूर्ण तराई क्षेत्र में भी पनप सकती है क्योंकि यहां भी एसएसबी के जवान अपने ही हिन्दुस्तानी भाईयों के सीनो पर बेवजह गोलियां दाग रहे हैं। इससे क्षेत्रीय युवाओं के मन में अत्याचार और शोषण के खिलाफ सुलग रही बिरोध की आग को पहचान कर अगर नक्सली नेताओं ने यहां आकर हवा दे दी तो यह शांत इलाका भी नक्सलवाद की चपेट में आकर आतंकवाद को पैदा कर सकता है। क्योंकि यह तराई इलाका पूर्व में 80-90 के दशक में नेक्सलाइट मूवमेंट और सिक्ख आतंकवाद का प्रमुख पनाहगाह रह चुका है। ऐसी बन रही पस्थितियों से निपटने के लिए आवश्यक हो गया है कि फोर्स कोई भी हो उसके जवानों को विपरीत परिस्थितियों में भी संयम बरतने का प्रशिक्षण दिए जाने के साथ ही उनको मानवाधिकारों का भी पाठ पढ़ाया जाए। इसके अतिरिक्त घटनाओं में दोषी पाए जाने वाले जवानों को सख्ती से दण्डित किया जाए, जिससे अन्य जवान भी उससे सबक हासिल करें और वह बेवजह किसी निर्दोश नागरिक पर गोली चलाने की हिम्मत न जुटा सकें। तभी सीमा पर सुरक्षा बलों एवं जनता के बीच बढ़ रही अविश्वास की खाइयों को पाटा जा सकता है और पूरी तरह से शांति कायम हो सकती है।
सोमवार, 6 सितंबर 2010
आखिर जंगल से बाहर क्यों आते है बाघ ?
पीलीभीत के जंगलों से निकल वाया शाहजहांपुर "खीरी" पहुंचा बाघ
अक्सर जंगलों में शिकार की कमी के चलते ये जंगल का राजा मजबूरन अपना रुख बदलता है मानव आबादी की तरफ, दरअसल बाघ जब जंगल बदलने की कोशिश करता है तब मानव-और बाघ में टकराव की स्थित लामुहाला उत्पन्न होती है, जंगलों की नष्ट हुई श्रंखलाये इसका कारण बनती है अब बाघ को क्या मालूम कुछ ही कदमों पर ये जंगल ख़त्म हो जायेगें और आदिम बस्ती और उसके खेत खलिहानों में आदमी और उसके जानवरों से उसे बावस्ता होना पड़ेगा! आखिरकार ये जंगल खोजता खोजता भटक जाता है इन्सान के बनाये माया जाल में! जहां या तो उसकी मौत हो जाती है, या कैद ! एक रात में बीसों मील यात्रा कर लेने वाले इस जानवर को अब इतने विशाल जंगल नसीब नहीं है वजह साफ़ है कि विकास के नाम पर इन श्रंखलाबद्ध जंगलों को हमने तबाह कर दिया नतीजा हमारे सामने है! -Man-animal conflict! -Moderator
बिल्ली प्रजाति का अतिबलशाली ‘बाघ’ जन्म से हिंस्रक और खूंखार होता है, लेकिन मानवभक्षी नहीं होता है। इंसानों से डरने वाले वनराज बाघ को मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं। जब कभी बाहुल्य क्षेत्रफल में जंगल थे तब मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहे, समय बदला और आबादी बढ़ी फिर किया जाने लगा वनों का अंधाधुन्ध विनाश।
जिसका परिणाम यह निकला कि जंगलों का दायरा सिमटने लगा, वन्यजीव बाहर भागे और उसके बाद शुरू हुआ न खत्म होने वाला मानव और वन्यपशुओं के बीच का संघर्ष। इसी का परिणाम है कि पिछले तीन सालों में जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से निकले बाघों के द्वारा खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद तक दो दर्जन के आसपास मानव मारे जा चुके हैं। इसमें दो बाघों को गोली मारी गयी। जबकि एक बाघ को पकड़कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेजा जा चुका है। अब एक बार फिर पिछले पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ आठ मनुष्यों को अपना निवाला बना चुका है। उसे पकड़ने की कवायद वन विभाग द्वारा की जा रही है।
दुधवा टाइगर रिजर्व परिक्षेत्र में शामिल किशनपुर वनपशु विहार, पीलीभीत और शाहजहांपुर के जंगल आपस में सटे हैं। गांवों की बस्तियां और कृषि भूमि जंगल के समीप हैं। जिससे मानव आबादी का दबाव जंगलों पर बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते विभिन्न परितंत्रों के बीच एक ऐसा त्रिकोण बनता है जहां ग्रामवासियों और वनपशुओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाना ही है। भौगोलिक परिस्थितियों के चलते बनने वाला त्रिकोण परिक्षेत्र दुर्घटना जोन बन गया है। सन् 2007 में किशनुपर परिक्षेत्र में आबाद गावों में आधा दर्जन मानव हत्याएं करने वाली बाघिन को मृत्यु दण्ड देकर गोली मार दी गयी थी। इसके बाद नवंबर 2008 में पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी होते हुए सूबे की राजधानी लखनऊ की सीमा तक पहुंच गया था। इस दौरान बाघ द्वारा एक दर्जन ग्रामीणों का शिकार किया गया। बाद में इस आतंकी बाघ को नरभक्षी घोषित करके फैजाबाद के पास गोली मारकर मौत दे दी गयी थी। सन् 2009 के शुरूआती माह जनवरी में किशनपुर एवं नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन के क्षेत्र में जंगल से बाहर आये बाघ ने चार मानव हत्याएं करने के साथ ही कई पालतू पशुओं का शिकार भी किया। इस पर हुई काफी मशक्कत के बाद बाघ को पिंजरें में कैद कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। अब सन् 2010 में एक बार फिर पिछले माह पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर में मानव का शिकार कर रहा है। इसके द्वारा आठ ग्रामीण मौत के घाट उतारे जा चुके हैं।
इसके आतंक से ग्रामीणों में दहशत फैली है और वन विभाग बाघ को पिंजरे में कैद करने के लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। जन्म से खूंखार होने के बाद भी विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है।
मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां बिवश करती हैं। विश्वविख्यात बाघ विशेषज्ञ जिम कार्बेट का भी कहना है कि बाघ बूढ़ा होकर लाचार हो जाये अथवा जख्मी होने से उसके दांत, पंजा, नाखून टूट गये हो या फिर प्राकृतिक या मानवजनित उसके विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हों, तभी बाघ मानव पर अटैक करता है। उनका यह भी मानना था कि जन्म से खार होने के बाद भी बाघ मानव पर एक अदृश्य डर के कारण हमला नहीं करता और यह भी कोई जरूरी नहीं है कि नरभक्षी बाघ के बच्चे भी नरभक्षी हो जायें।
बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे-मोटे स्वार्थो के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढ़ने पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असमान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है।
मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिन्दा रखने के लिए खाने की जद्दोजेहाद नए सिरे से किसी परिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे। जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर-उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं। इधर प्राकृतिक कारणों से चारागाह भी सिमट गए या कुप्रबंधन के कारण वे ऊंची घास के मैदानों में बदल गए। इसके कारण वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आते हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में गन्ने के खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है। इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवोंके अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के प्राकृतिक वासस्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे, जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।
अक्सर जंगलों में शिकार की कमी के चलते ये जंगल का राजा मजबूरन अपना रुख बदलता है मानव आबादी की तरफ, दरअसल बाघ जब जंगल बदलने की कोशिश करता है तब मानव-और बाघ में टकराव की स्थित लामुहाला उत्पन्न होती है, जंगलों की नष्ट हुई श्रंखलाये इसका कारण बनती है अब बाघ को क्या मालूम कुछ ही कदमों पर ये जंगल ख़त्म हो जायेगें और आदिम बस्ती और उसके खेत खलिहानों में आदमी और उसके जानवरों से उसे बावस्ता होना पड़ेगा! आखिरकार ये जंगल खोजता खोजता भटक जाता है इन्सान के बनाये माया जाल में! जहां या तो उसकी मौत हो जाती है, या कैद ! एक रात में बीसों मील यात्रा कर लेने वाले इस जानवर को अब इतने विशाल जंगल नसीब नहीं है वजह साफ़ है कि विकास के नाम पर इन श्रंखलाबद्ध जंगलों को हमने तबाह कर दिया नतीजा हमारे सामने है! -Man-animal conflict! -Moderator
बिल्ली प्रजाति का अतिबलशाली ‘बाघ’ जन्म से हिंस्रक और खूंखार होता है, लेकिन मानवभक्षी नहीं होता है। इंसानों से डरने वाले वनराज बाघ को मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं। जब कभी बाहुल्य क्षेत्रफल में जंगल थे तब मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहे, समय बदला और आबादी बढ़ी फिर किया जाने लगा वनों का अंधाधुन्ध विनाश।
जिसका परिणाम यह निकला कि जंगलों का दायरा सिमटने लगा, वन्यजीव बाहर भागे और उसके बाद शुरू हुआ न खत्म होने वाला मानव और वन्यपशुओं के बीच का संघर्ष। इसी का परिणाम है कि पिछले तीन सालों में जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से निकले बाघों के द्वारा खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद तक दो दर्जन के आसपास मानव मारे जा चुके हैं। इसमें दो बाघों को गोली मारी गयी। जबकि एक बाघ को पकड़कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेजा जा चुका है। अब एक बार फिर पिछले पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ आठ मनुष्यों को अपना निवाला बना चुका है। उसे पकड़ने की कवायद वन विभाग द्वारा की जा रही है।
दुधवा टाइगर रिजर्व परिक्षेत्र में शामिल किशनपुर वनपशु विहार, पीलीभीत और शाहजहांपुर के जंगल आपस में सटे हैं। गांवों की बस्तियां और कृषि भूमि जंगल के समीप हैं। जिससे मानव आबादी का दबाव जंगलों पर बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते विभिन्न परितंत्रों के बीच एक ऐसा त्रिकोण बनता है जहां ग्रामवासियों और वनपशुओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाना ही है। भौगोलिक परिस्थितियों के चलते बनने वाला त्रिकोण परिक्षेत्र दुर्घटना जोन बन गया है। सन् 2007 में किशनुपर परिक्षेत्र में आबाद गावों में आधा दर्जन मानव हत्याएं करने वाली बाघिन को मृत्यु दण्ड देकर गोली मार दी गयी थी। इसके बाद नवंबर 2008 में पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी होते हुए सूबे की राजधानी लखनऊ की सीमा तक पहुंच गया था। इस दौरान बाघ द्वारा एक दर्जन ग्रामीणों का शिकार किया गया। बाद में इस आतंकी बाघ को नरभक्षी घोषित करके फैजाबाद के पास गोली मारकर मौत दे दी गयी थी। सन् 2009 के शुरूआती माह जनवरी में किशनपुर एवं नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन के क्षेत्र में जंगल से बाहर आये बाघ ने चार मानव हत्याएं करने के साथ ही कई पालतू पशुओं का शिकार भी किया। इस पर हुई काफी मशक्कत के बाद बाघ को पिंजरें में कैद कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। अब सन् 2010 में एक बार फिर पिछले माह पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर में मानव का शिकार कर रहा है। इसके द्वारा आठ ग्रामीण मौत के घाट उतारे जा चुके हैं।
इसके आतंक से ग्रामीणों में दहशत फैली है और वन विभाग बाघ को पिंजरे में कैद करने के लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। जन्म से खूंखार होने के बाद भी विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है।
मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां बिवश करती हैं। विश्वविख्यात बाघ विशेषज्ञ जिम कार्बेट का भी कहना है कि बाघ बूढ़ा होकर लाचार हो जाये अथवा जख्मी होने से उसके दांत, पंजा, नाखून टूट गये हो या फिर प्राकृतिक या मानवजनित उसके विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हों, तभी बाघ मानव पर अटैक करता है। उनका यह भी मानना था कि जन्म से खार होने के बाद भी बाघ मानव पर एक अदृश्य डर के कारण हमला नहीं करता और यह भी कोई जरूरी नहीं है कि नरभक्षी बाघ के बच्चे भी नरभक्षी हो जायें।
बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे-मोटे स्वार्थो के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढ़ने पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असमान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है।
मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिन्दा रखने के लिए खाने की जद्दोजेहाद नए सिरे से किसी परिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे। जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर-उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं। इधर प्राकृतिक कारणों से चारागाह भी सिमट गए या कुप्रबंधन के कारण वे ऊंची घास के मैदानों में बदल गए। इसके कारण वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आते हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में गन्ने के खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है। इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवोंके अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के प्राकृतिक वासस्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे, जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।
गजराज क्यों भटक रहे हैं ?
भारत में पूज्य माने जाने वाले 'गजराज' को अपने अस्तित्व के लिए आजकल एक नई लड़ाई लड़नी पड़ रही है। उनके शिकार, घटते जंगल और आहार में कमी और उससे भी ज्यादा इनकी आए दिन मनुष्य के साथ मुठभेड़ या गुस्से में इनका उपद्रव इनके लिए बड़ी मुसीबत बनता जा रहा है। कहीं इनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है तो कहीं बढ़ रही है। वन्य पशुओं के आने-जाने के रास्ते पर बढ़ते अतिक्रमण के चलते रोजमर्रा के टकराव की कीमत दूसरे वन्यजीवों को भी चुकानी पड़ती है।
पिछले कुछ सालों से भारत सरकार को पूर्वोत्तर के पड़ोसी देशों एवं लोगों से अपील करनी पड़ रही है कि उनके गांवों-खेतों में गलती से घुस आए हाथियों की हत्या न की जाए। प्रजनन, मौसम की मार से बचने और खाने की तलाश में वन्य जीव हर साल एक निश्चित अवधि या मौसम में एक इलाके से दूसरे इलाके की ओर जाते हैं। इस प्रक्रिया को आव्रजन कहा जाता है। ये हाथी हर साल थाईलैंड से भूटान की तराई में जाते हैं, जिसके बीच पूर्वोत्तर भारत का हिस्सा पड़ता है। हर साल ये हाथी रास्ते में आने वाले कई गांव उजाड़कर कई लोगों को मार देते हैं और कई लोग इन मुठभेड़ों में घायल भी हो जाते हैं। टकराव के रास्ते समस्या यह है कि जंगल में बने हाथियों के प्राचीन रास्तों पर लोगों ने गांव बसा लिए हैं, जिस वजह से हाथी भारत वापस जाने के लिए अपना रास्ता नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं और भटक कर हिंसक हो रहे हैं।
ये हाथी थाईलैंड से भूटान की ओर आते हैं और भारत का पूर्वोत्तर हिस्सा उनके रास्ते में पड़ता है। मगर अधिकारियों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में हाथियों की संख्या बढ़ी है। इसी वजह से हाथी अलग-अलग रास्तों से जंगलों में घुसने की कोशिश करते हैं। यह समस्या सिर्फ बांग्लादेश, थाईलैंड या भूटान की ही नहीं, बल्कि भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की भी है। सिर्फ असम में ही पिछले 15 वर्षों में हाथियों ने 600 से अधिक लोगों की जान ली है। पूर्वोत्तर भारत में जंगली हाथी अच्छी-खासी संख्या में पाए जाते हैं और अकेले असम में इनकी संख्या पांच हज़ार से अधिक बताई जाती है। जैसे-जैसे असम में लोगों की आबादी बढ़ती गई, लोगों ने ऐसे इलाकों में पांव पसारने शुरू कर दिए, जो हाथियों के आने-जाने के रास्ते थे। नतीजतन हाथी उनके रास्ते में आने वाले गांवों में तबाही मचा देते हैं, जिसका उन्हें अपनी जान देकर ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हाथियों के उपद्रव से भड़के लोग इन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं और कभी गुड़ में जहर रखकर तो कभी शिकारियों को बुलाकर हाथियों की जान ले लेते हैं।
हाथी एक सामाजिक प्राणी है और झुंड बनाकर रहता है। यह प्राणी काफी संवेदनशील होता है। जानवरों में हाथी की याददाश्त काफी तेज मानी जाती है, यहां तक कि अपने झुंड़ के किसी सदस्य के मारे जाने पर अकसर हाथी गुस्से में आकर तबाही मचा देते हैं। सैटेलाइट से मिली तस्वीरें ताजे अध्ययनों में बताती हैं कि असम में 1996 से 2006 के बीच जंगल की लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन पर गांव वालों ने अतिक्रमण कर आबादी बसाकर खेती-बाड़ी शुरू कर दी है। अब जरूरत है ऐसे उपायों की जिनसे मनुष्य की हाथियों से मुठभेड़ को टाला जा सके। हाथियों के अकसर आबादी वाले इलाके में घुसने से जानमाल का बड़ा नुकसान भी होता है, पर इस घुसपैठ का कारण ढूंढ़ने के लिए, पहले ये सोचना होगा कि हाथी हमारे इलाकों में घुस आए हैं या फिर हम ही उनके इलाके में घुस गए हैं।
असम में जंगली हाथियों के नियंत्रण के लिए 'कुंकी' नाम से जाने, जाने वाले पालतू हाथियों की मदद ली जा रही है। असम और पश्चिम बंगाल के बहुत से इलाकों में अकसर उग्र हाथियों के झुंड खेतों, गांवों और लोगों पर हमला कर भारी तबाही मचाते हैं। विशेषज्ञों ने उग्र हाथियों को पालतू हाथियों के जरिये घेरकर उन्हें रास्ते पर लाने की कोशिश की है। इसके नतीजे भी सार्थक निकले हैं। सबसे अधिक प्रभावित इलाकों में इस रणनीति को अपनाया गया, वहां हाथियों की हिंसा से मरने वालों की संख्या में आश्चर्यजनक रुप से कमी हुई है। इस परियोजना के अधिकारी जंगली हाथियों के झुंड की गतिविधियों पर नजर रखते हैं और उनको पालतू हाथियों से घेरकर गांव से दूर रखते हैं। इस योजना को वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड से भी मदद हासिल है। हाथियों को भगाने के क्रूर पारम्परिक तरीकों जैसे करंट लगाना, फन्दे कसना और बम फोड़ना आदि से यह रणनीति काफी कारगर सिद्ध हुई है और वन्यजीव प्रेमी भी इस पहल से उत्साहित हैं।
हाथियों की बढ़ती समस्या के बाद भारत में अब कोशिश की जा रही हैं कि दो जंगलों के बीच एक गलियारा विकसित कर उसका संरक्षण किया जा सके। सुरक्षित रास्ता देने के लिए हाथियों के गलियारे पर तैयार की गई रिपोर्ट पर लगभग सभी बड़े विशेषज्ञों की राय ली गई थी और उम्मीद है कि इससे हाथियों को जंगलों में ही रोकना संभव होगा और उनके आबादी वाले इलाकों में घुसने की घटनाओं में कमी आएगी। भारत में ऐसे 88 गलियारों की पहचान की गई है और उन पर कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं सरकार के साथ मिलकर काम भी कर रही हैं, पर भारत में वन्यजीवों के रहवास के लिए किए जा रहे सभी प्रयासों में एक समस्या मुंह बाए खड़ी रहती है, वह है बढ़ती जनसंख्या। लगातार बढ़ती जनसंख्या और जंगल पर बढ़ते दबाव ने पिछले कुछ दशकों में हाथियों की समस्या को बढ़ाया है। इसके लिए देखना होगा कि हाथी दो जंगलों के बीच जिन इलाकों का उपयोग ऐतिहासिक रूप से करते रहे हैं, वहां कितने गांव हैं, आबादी का कितना घनत्व है इत्यादि।
दरअसल यही वो इलाके हैं जिन्हें विशेषज्ञ कॉरिडोर कहते हैं और इनके बंद हो जाने के कारण हाथियों ने मानव रहवासी क्षेत्रों में घुसपैठ कर मुसीबतें बढ़ा दी हैं। देश के विभिन्न राज्यों में स्थित इन गलियारों को अब हाथियों के आवागमन के लिए संरक्षित करने की कोशिश की जा रही है। इस योजना से वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, इंटरनेशनल फंड फॉर एनिमल वेलफेयर, यूएस विश एंड वेलफेयर सर्विस और एशियन नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन जुड़े हैं। इसके अलावा गलियारों के संरक्षणों के लिए केंद्र और राज्य सरकार की भी सहायता ली जा रही है। अब उम्मीद यही है कि इन गलियारों को 'राजकीय गलियारा' घोषित कर दिया जाए और लोगों को जानकारी दी जाए कि इन इलाकों में विकास कार्य नहीं किए जा सकते। अब ऐसे इलाकों में लोगों को सिर्फ हाथियों से बचना ही नहीं है, हाथियों को बचाना भी जरूरी है। यह जागरूकता प्राकृतिक संतुलन कायम करने के लिए सबसे जरूरी है।
गुरुवार, 10 जून 2010
दुधवा नेशनल पार्क कैसे पहुंचे
-देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
प्रकृति की अनमोल धरोहर समेटे है दुधवा
नेशनल पार्क
दुधवा -जनपद-लखीमपुर-खीरी
राज्य-उत्तर प्रदेश
भारत
स्थापना- 1 फ़रवरी १९७७
राज्य-उत्तर प्रदेश
भारत
स्थापना- 1 फ़रवरी १९७७
क्षेत्रफ़ल- 884 वर्ग किलोमीटर
भौगोलिक स्थित- देशान्तर-अक्षांश-
80º28' E and 80º57' E (Dudhwa)80º E to 80º50' E(Kishanpur)
28º18' N and 28º42' N (Dudhwa)
28º N to 28º42' N (Kishanpur)
समुन्द्र तल से ऊँचाई- 150-182 मीटर
दुधवा नेशनल पार्क की दूरी दिल्ली से पूर्व दिशा में
लगभग 430 कि०मी०, एंव लखनऊ से उत्तर पश्चिम की तरफ़ 230 कि०मी० है।
दिल्ली से दुधवा आने के लिए गाजियाबाद, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, शाहजहाँपुर, खुटार, मैलानी,
गोला होते हुए पलिया पहुँचा जा सकता है, जहाँ से दुधवा मात्र 10 कि०मी० की दूरी पर स्थित है।
लखनऊ से दुधवा आने के लिए सिधौली, सीतापुर, हरगांव, लखीमपुर, भीरा, से पलिया होते हुए दुधवा
नेशनल पार्क पहुंच सकते हैं।
वर्षा- 1500 mm (औसत)
जंगल- मुख्यता साल (शाखू) वन
वन्य जीव- खासतौर से यह जंगल पर्यटकों व शोधार्थियों को हिरनों की पाँच प्रजातियों- चीतल, साभर,
काकड़, बारहसिंहा, बाघ, तेन्दुआ, भालू, स्याही, फ़्लाइंग स्क्वैरल, हिस्पिड हेयर, बंगाल फ़्लोरिकन,
हाथी, गैन्गेटिक डाल्फ़िन, मगरमच्छ, लगभग 400 पक्षी प्रजातियां एंव रेप्टाइल्स (सरीसृप),
एम्फ़ीबियन, तितिलियों के अतिरिक्त दुधवा के जंगल तमाम अज्ञात व अनदेखी प्रजातियों का घर है।
वनस्पति- साल, असना, बहेड़ा, जामुन, खैर के अतिरिक्त कई प्रकार के वृक्ष इस वन में मौजूद हैं।
विभिन्न प्रकार की झाड़ियां, घासें, लतिकायें, औषधीय वनस्पतियां व सुन्दर पुष्पों वाली वनस्पतियों का
बसेरा है दुधवा नेशनल पार्क।
थारू हट- पर्यटकों के रूकने के लिए दुधवा में आधुनिक शैली में थारू हट उपलब्ध हैं। रेस्ट हाउस-
प्राचीन इण्डों-ब्रिटिश शैली की इमारते पर्यटकों को इस घने जंगल में आवास प्रदान करती है, जहाँ प्रकृति
दर्शन का रोमांच दोगुना हो जाता हैं।
मचान- दुधवा के वनों में ब्रिटिश राज से लेकर आजाद भारत में बनवायें गये लकड़ी के मचान कौतूहल व
रोमांच उत्पन्न करते हैं।
थारू संस्कृति- कभी राजस्थान से पलायन कर दुधवा के जंगलों में रहा यह समुदाय राजस्थानी संस्क्रुति
की झलक प्रस्तुत करता है, इनके आभूषण, नृत्य, त्योहार व पारंपरिक ज्ञान अदभुत हैं, राणा प्रताप के
वंशज बताने वाले इस समुदाय का इण्डों-नेपाल बार्डर पर बसने के कारण इनके संबध नेपाली समुदायों से
हुए, नतीजतन अब इनमें भारत-नेपाल की मिली-जुली संस्कृति, भाषा व शारीरिक सरंचना हैं।
"प्रदेश का एकमात्र विश्व प्रसिद्ध दुधवा नेशनल पार्क है, मोहाना व सुहेली नदियों के मध्य स्थित यह वन
प्राकृतिक रूप से रह-रहे पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जैव-विविधता प्रकृति की अनमोल धरोहर को
अपने आगोश में समेटे है । दुधवा नेशनल पार्क एवं किशनपुर पशु विहार को 1987-88 में भारत
सरकार के प्रोजेक्ट टाइगर परियोजना में शामिल करने से इसका महत्व और भी बढ़ गया है । भारत के
राष्ट्रीय पार्को में चल रहे प्रोजेक्ट टाइगर में दुधवा का नाम दूसरे स्थान पर पहुंच गया है । यहां पल रही
विश्व की अनूठी गैंडा पुनर्वास परियोजना के 27 सदस्यीय गैंडा परिवार के स्वछंद घूमते सदस्य पर्यटकों
के लिए आकर्षण का केंद्र बिंदु बने रहते हैं । इसीलिए हर साल बड़ी तादाद में सैलानी और वन्य-जीव
विशेषज्ञ यहां आते हैं ।
करीब 884 वर्ग किमी दुधवा टाइगर रिजर्व के
जंगल में किशनपुर पशु विहार 204 वर्ग
किमी एवं 680 वर्ग, किमी दुधवा नेशनल
पार्क का क्षेत्रफल शामिल है ।
मौसम- नवंबर से फरवरी तक यहां का
अधिकतम तापमान 20 से 30 डिग्री सेल्सियस,
न्यूनतम 4 से 8 डिग्री सेल्सियस रहने से प्रात:
कोहरा और रातें ठंडी होती हैं । मार्च से मई तक
तापमान अधिकतम 30 से 35 डिग्री सेल्सियस
और न्यूनतम 20 से 25 डिग्री सेल्सियस मौसम
सुहावना रहता है । जून से अक्टूबर में अधिकतम
तापमान 35 से 40 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम 20 से 25 डिग्री सेल्सियस रहने से भारी वर्षा और
जलवायु नम रहती है ।
कैसे पहुंचे : दुधवा नेशनल पार्क के समीपस्थ रेलवे स्टेशन दुधवा, पलिया और मैलानी है । यहां आने के
लिए दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली, शाहजहांपुर तक ट्रेन द्वारा और इसके बाद 107 किमी सड़क यात्रा करनी
पड़ती है, जबकि लखनऊ से भी पलिया-दुधवा के लिए ट्रेन मार्ग है । सड़क मार्ग से दिल्ली-मुराबाद-
बरेली-पीलीभत अथवा शाहजहांपुर, खुटार, मैलानी, भीरा, पलिया होकर दुधवा पहुंचा जा सकता है ।
लखीमपुर, शाहजहांपुर, सीतापुर, लखनऊ, बरेली, दिल्ली आदि से पलिया के लिए रोडवेज की बसें एवं
पलिया से दुधवा के लिए निजी बस सेवा उपलब्ध हैं । लखनऊ, सीतापुर, लखीमपुर, गोला, मैलानी, से
पलिया होकर दुधवा पहुंचा जा सकता है ।
ठहरने की सुविधा : दुधवा वन विश्राम भवन का आरक्षण मुख्य वन संरक्षक-वन्य-जीव- लखनऊ से
होता है, थारूहट दुधवा, वन विश्राम भवन बनकट, किशनपुर, सोनारीपुर, बेलरायां, सलूकापुर का
आरक्षण स्थानीय मुख्यालय से होगा । सठियाना वन विश्राम भवन से आरक्षण फील्ड डायरेक्टर
लखीमपुर कार्यालय से कराया जा सकता है ।
दुधवा नेशनल पार्क में फीस एवं किराया
प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति 3 दिन 50 रू०
विदेशी 150 रू०
रोड फीस हल्की गाड़ी 150 रू०
मिनी बस 300 रू०
कैमरा फीस मूवी एवं वीडियो 2500 रू०
विदेशी 5000 रू०
फीचर फिल्म प्रतिदिन 2000 रू०
विदेशी 20,000 रू०
डाक्युमेंट्री फिल्म प्रतिदिन 25,000 रू०
विदेशी 5000 रू०
उपरोक्त के लिए सुरक्षा फी स
फीचर फिल्म 2500 रू०
विदेशी 4000 रू०
डाक्युमेंट्री फिल्म 1500 रू०
विदेशी 4000 रू०
हाथी की सवारी
चार व्यक्ति प्रति चक्कर 2 घंटा 300 रू०
विदेशी 900 रू०
मिनी बस 15 सीटर प्रति किमी 30 रू०
विदेशी 90 रू०
दुधवा नेशनल पार्क 15 नवम्बर को पर्यटकों के लिए खोल दिया जाता है, और बारिश की शुरूवात
में ही 15 जून से पार्क में पर्यटन बंद कर दिया जाता है।
दुधवा नेशनल पार्क के खुलने की तिथि 15 नवंबर ज्यों-ज्यों नजदीक आती जा रही है, त्यो-त्यों पर्यटकों
के स्वागत व भ्रमण के लिए की जाने वाली तैयारियों को यहां अंतिम रूप देने का कार्य पूरा किया जाता है
। अन्य प्रमुख महानगरों से दुधवा को यातायात के साधनों की समुचित व्यवस्था, देशी -विदेशी पर्यटको
को जमावाड़ा दुधवा में लगता है ।
मानसून सत्र शुरू होने पर 15 जून से पर्यटकों के लिए बंद किया गया दुधवा नेशनल पार्क 15 नवंबर से
पर्यटकों के भ्रमण के लिए खुलता है। अब आने वाले पर्यटकों के लिए दुधवा पर्यटन स्थल में नए स्वागत
कक्ष का निर्माण कराया गया है, तथा आटोडोरियम का निर्माण भी लगभग हो गया है । पर्यटकों की
सुविधा के लिए 15 केवीए का जनरेटर लगाने के साथ ही पर्यटन सोलर स्ट्रीट लाइटें भी लगा दी गई हैं ।
सठियाना, दक्षिण सोनारीपुर, किशनपुर, बनकटी, बेलरायां आदि गेस्ट हाउसों में सोलर पावर प्लांट
लगाए गए हैं । इससे पर्यटयकों को बिजली व पानी की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ेगा ।
बताया कि दुधवा में गैंडा, बाघ, बारहसिंघा, तेंदुआ, चीतल आदि वन्ययजीव समेत अन्य तमाम
प्रजातियों के साइबेरियन पक्षियों के झुंड और विलुप्त प्राय बंगाल फ्लोरिकन देखे जा सकते हैं ।
पलिया कस्बे में निर्मित हवाई पट्टी यदि शुरू हो जाए और देश व प्रदेश के महानगरों से
आवागमन की समुचित व्यवस्था हो जाए तो दुधवा में आने वाले पर्यटकों की संख्या में इजाफा
हो सकता है ।
अधिकतम तापमान 20 से 30 डिग्री सेल्सियस,
न्यूनतम 4 से 8 डिग्री सेल्सियस रहने से प्रात:
कोहरा और रातें ठंडी होती हैं । मार्च से मई तक
तापमान अधिकतम 30 से 35 डिग्री सेल्सियस
और न्यूनतम 20 से 25 डिग्री सेल्सियस मौसम
सुहावना रहता है । जून से अक्टूबर में अधिकतम
तापमान 35 से 40 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम 20 से 25 डिग्री सेल्सियस रहने से भारी वर्षा और
जलवायु नम रहती है ।
कैसे पहुंचे : दुधवा नेशनल पार्क के समीपस्थ रेलवे स्टेशन दुधवा, पलिया और मैलानी है । यहां आने के
लिए दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली, शाहजहांपुर तक ट्रेन द्वारा और इसके बाद 107 किमी सड़क यात्रा करनी
पड़ती है, जबकि लखनऊ से भी पलिया-दुधवा के लिए ट्रेन मार्ग है । सड़क मार्ग से दिल्ली-मुराबाद-
बरेली-पीलीभत अथवा शाहजहांपुर, खुटार, मैलानी, भीरा, पलिया होकर दुधवा पहुंचा जा सकता है ।
लखीमपुर, शाहजहांपुर, सीतापुर, लखनऊ, बरेली, दिल्ली आदि से पलिया के लिए रोडवेज की बसें एवं
पलिया से दुधवा के लिए निजी बस सेवा उपलब्ध हैं । लखनऊ, सीतापुर, लखीमपुर, गोला, मैलानी, से
पलिया होकर दुधवा पहुंचा जा सकता है ।
ठहरने की सुविधा : दुधवा वन विश्राम भवन का आरक्षण मुख्य वन संरक्षक-वन्य-जीव- लखनऊ से
होता है, थारूहट दुधवा, वन विश्राम भवन बनकट, किशनपुर, सोनारीपुर, बेलरायां, सलूकापुर का
आरक्षण स्थानीय मुख्यालय से होगा । सठियाना वन विश्राम भवन से आरक्षण फील्ड डायरेक्टर
लखीमपुर कार्यालय से कराया जा सकता है ।
दुधवा रेस्टहाउस |
दुधवा नेशनल पार्क में फीस एवं किराया
प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति 3 दिन 50 रू०
विदेशी 150 रू०
रोड फीस हल्की गाड़ी 150 रू०
मिनी बस 300 रू०
कैमरा फीस मूवी एवं वीडियो 2500 रू०
विदेशी 5000 रू०
फीचर फिल्म प्रतिदिन 2000 रू०
विदेशी 20,000 रू०
डाक्युमेंट्री फिल्म प्रतिदिन 25,000 रू०
विदेशी 5000 रू०
उपरोक्त के लिए सुरक्षा फी स
फीचर फिल्म 2500 रू०
विदेशी 4000 रू०
डाक्युमेंट्री फिल्म 1500 रू०
विदेशी 4000 रू०
हाथी की सवारी
चार व्यक्ति प्रति चक्कर 2 घंटा 300 रू०
विदेशी 900 रू०
मिनी बस 15 सीटर प्रति किमी 30 रू०
विदेशी 90 रू०
दुधवा नेशनल पार्क 15 नवम्बर को पर्यटकों के लिए खोल दिया जाता है, और बारिश की शुरूवात
में ही 15 जून से पार्क में पर्यटन बंद कर दिया जाता है।
दुधवा नेशनल पार्क के खुलने की तिथि 15 नवंबर ज्यों-ज्यों नजदीक आती जा रही है, त्यो-त्यों पर्यटकों
के स्वागत व भ्रमण के लिए की जाने वाली तैयारियों को यहां अंतिम रूप देने का कार्य पूरा किया जाता है
। अन्य प्रमुख महानगरों से दुधवा को यातायात के साधनों की समुचित व्यवस्था, देशी -विदेशी पर्यटको
को जमावाड़ा दुधवा में लगता है ।
मानसून सत्र शुरू होने पर 15 जून से पर्यटकों के लिए बंद किया गया दुधवा नेशनल पार्क 15 नवंबर से
पर्यटकों के भ्रमण के लिए खुलता है। अब आने वाले पर्यटकों के लिए दुधवा पर्यटन स्थल में नए स्वागत
कक्ष का निर्माण कराया गया है, तथा आटोडोरियम का निर्माण भी लगभग हो गया है । पर्यटकों की
सुविधा के लिए 15 केवीए का जनरेटर लगाने के साथ ही पर्यटन सोलर स्ट्रीट लाइटें भी लगा दी गई हैं ।
सठियाना, दक्षिण सोनारीपुर, किशनपुर, बनकटी, बेलरायां आदि गेस्ट हाउसों में सोलर पावर प्लांट
लगाए गए हैं । इससे पर्यटयकों को बिजली व पानी की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ेगा ।
बताया कि दुधवा में गैंडा, बाघ, बारहसिंघा, तेंदुआ, चीतल आदि वन्ययजीव समेत अन्य तमाम
प्रजातियों के साइबेरियन पक्षियों के झुंड और विलुप्त प्राय बंगाल फ्लोरिकन देखे जा सकते हैं ।
पलिया कस्बे में निर्मित हवाई पट्टी यदि शुरू हो जाए और देश व प्रदेश के महानगरों से
आवागमन की समुचित व्यवस्था हो जाए तो दुधवा में आने वाले पर्यटकों की संख्या में इजाफा
हो सकता है ।
पर्यटकों को आटोडोरियम से मिलेगी तमाम जानकारियां-
सूबे के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क में आने वाले पर्यटकों को जागरूक करने के लिए इस साल
नवनिर्मित आटोडोरियम शुरू होगा, इसमें विलुप्त हो रही वन्यजीवों से संबंधित तमाम जानकारियां होगी
तथा वन एवं वन्यजीव का परिचय देकर पर्यटकों को इनके संरक्षण के लिए प्रेरित किया जाएगा । 11
सदस्यीय हाथी दल पर्यटकों को जंगल की शैर कराएगा ।
ट्री-हट |
छह साल से उद्घाटन के इंतजार में है, ट्री
हाउस-
ट्री हाउस
दुधवा टाइगर रिजर्व के तत्कालीन
उपनिदेशक पीपी सिंह ने पर्यटकों के लिए
लगभग छ:ह साल पूर्व दुधवा के जंगल में यह
ट्री हाउस का निर्माण कराया था । यह ट्री हाउस
विशालकाय साखू पेड़ो के सहारे लगभग पचास
फुट ऊपर
बनाया गया है । डबल बेडरूम वाले इस ट्री
हाउस को सभी आवश्यक सुविधाओं से
सुसज्जित किया गया है । लगभग चार लाख
रूपए की लागत से बना हुआ शानदार ट्री हाउस
पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बिंदु बना हुआ है । जानकारी होने पर पर्यटक इसे देखे बिना चैन नहीं
पाते हैं.
दू धवा नेशनल पार्क की आवास सुविधा-
दुधवा वन विश्राम भवन 400 रू० 200 रू०
विदेशियों के लिए- 1200 रू० 600 रू०
थारूहट दुधवा - 150 रू०
विदेशियों के लिए - 450 रू०
विश्राम भवन बनकटी- 100 रू०
विदेशियों के लिए- 300 रू०
विश्रामभवन किशनपुर- 150 रू०
विदेशियों के लिए- 450 रू०
डारमेट्री प्रति व्यक्ति - 50 रू०
विदेशियों के लिए- 150 रू०
छात्रों के लिए- 30 रू०
विदेशी छात्र- 90 रू०
रविवार, 6 जून 2010
शनिवार, 5 जून 2010
दुधवा में आए विदेशी शोधार्थी बनाएगें प्रोजेक्ट
-देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
अवेक इंटरनेशनल संस्थान द्वारा रूस के टूर लीडर मिस्टर पासा के नेतृत्व में पांच देशों के विद्यार्थी दुधवा टाइगर रिजर्व के भ्रमण पर है। २ जून २००१० को इनका आगमन खीरी के इस सुरम्य वन में हुआ और ये टीम ५ जून २०१० तक यहाँ के वन्य जीवों व जंगलों का अध्ययन करेंगी, इस प्रतिनिधि मंडल ने जंगल भ्रमण के दौरान थारू गांवों में हो रहे प्रकृति के सरंक्षण व संवर्धन के लिए विश्व प्रकृति निधि द्वारा किए जा रहे प्रयासो को देखा, भगवन्त नगर में विश्व प्रकृति निधि द्वारा बायो गैस, सूर्य उर्जा, और वर्मी कम्पोस्ट खाद बनाने की ट्रेनिंग जैसे कार्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है, कई पर्यावरण गोष्ठी आदि के आयोजनों से थारू जनजाति और जंगलों के मध्य समन्वय स्थापित करने के प्रयासों का भी इन विदेशी छात्रों ने ब्योरा लिया।
यह टीम पासा के निर्देशन व हरदोई जिले की संस्था सार्वजनिक शिक्षोन्नयन एंव संस्थान के सहयोग से इन इलाकों में प्रकृति, शिक्षा, व अन्य सामाजिक मसलों का अध्ययन कर रही है,
संयुक्त राष्ट्र संघ के मिलेनियम डेवेलपमेन्ट गोल प्रोजेक्ट 2015 के तत्वाधान में पूरी दुनिया से 320 प्रतिनिधियों द्वारा दुनियाभर से पर्यावरण, शिक्षा, हेल्थ, एड्स, गर्भवती महिलाओं व बच्चों की दशा पर विस्तृत रिपोर्ट पेश की जायेगी, ताकि भविष्य में इन गंभीर मुद्दों पर उचित प्रयास किए जा सके। ये विदेशी छात्र भी इसी प्रोग्राम का हिस्सा है, जो विभिन्न भूभागों से उपरोक्त विषयों पर आंकड़े जुटायेंगे। दुधवा टाइगर रिजर्व के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश व भारत के अन्य भूभागों में ये टीम तकरीबन डेढ़ महीने तक भ्रमण करने के बाद वापस लौटेगी।
टीम मेंबर्स में मलेशिया से कार्की, एनी, फ़िलीपीन्स से रोआना, नीदरलैंड से दान, मैक्सिको सिटी व रूस के प्रतिनिधि हैं।
मंगलवार, 4 मई 2010
दावानल से गड़बड़ाया दुधवा का पारिस्थितिकीय तंत्र
ग्रीष्मकाल शुरू होते ही गावों और प्रदेश के जंगलों में भी आग लगने का दौर शुरू हो जाता है। जंगलों में आग से होने वाली तबाही एवं बर्बादी से जहां वन्य प्राणियों का जीवन संकटमय हो जाता है। जंगलों में आग अकूत वन संपदा को तो स्वाहा कर देती ही है, इस दावानल से वन्य जीवन भी दहल उठता है-नष्ट हो जाता है। हजारों लोग बेघर होकर खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारने को विवश हो जाते हैं। हर साल अग्निपीड़ितों को मुआवज़े के नाम पर करोड़ों रूपए तो दिए जाते हैं परंतु भविष्य में आग रोकने या उसके त्वरित नियंत्रण की व्यवस्था करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई देती है। प्रतिवर्ष आग अपना इतिहास दोहराकर नुकसान के आंकड़ों को बढ़ा देती है। राज्य सरकार जंगलों को आग से बचाने के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठा रही है। यूपी के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क के जंगलों में बार-बार लगने वाली आग को रोकने के लिए आधुनिक साधनों और संसाधनों की समुचित भारी कमी है। लगातार आग से दुधवा के जंगल का न सिर्फ पारिस्थितिक तंत्र गड़बड़ा रहा है, बल्कि जैव-विविधता के अस्तित्व पर भी भारी संकट खड़ा हो गया है। दुधवा नेशनल पार्क में दावानल के नियंत्रण की तमाम व्यवस्थाएं फायर सीजन से पूर्व की जाती हैं। अगर आग रोकने का प्रबंध योजनाबद्ध और ईमानदारी से कराया जाए तो आग को विकराल होने से पहले ही उस पर नियंत्रण हो सकता है। निजी स्वार्थों में कराए गए दावानल नियंत्रण के प्रबंध हमेशा फेल होते देंखे गए हैं। दुधवा पार्क प्रशासन ये तैयारियां फरवरी से 15 जून के मध्य में करता है मगर जंगल में लगने वाली आग का रूप जब भी विकराल होता है तब उसके सारे प्रबंध धरे रह जाते हैं। 'उसके बाद शुरू होता है नुकसान की भरपाई और मुवावजे का काला खेल।'
जंगल में कई कारणों से आग लगती है या फिर लगाई जाती है। इसमें समयबद्ध एवं नियंत्रित आग विकास है किंतु अनियंत्रित आग विनाशकारी होती है। दुधवा के जंगल में ग्रासलैंड मैनेजमेंट एवं वन प्रवंधन के लिए नियंत्रित आग लगाई जाती है। इसके अतिरिक्त शरारती तत्वों या ग्रामीणजनों का सुलगती बीड़ी जंगल में छोड़ देना आग का कारण बन जाता है। जबकि वन्य जीवों के शिकारी भी पत्तों से होने वाली आवाज दबाने के लिए जंगल में आग लगा देते हैं। दुधवा नेशनल पार्क के वनक्षेत्र की सीमाएं नेपाल से सटी हैं और इसके चारों तरफ मानव बस्तियां आबाद हैं। इसके चलते जंगल में अनियंत्रित आग लगने की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है।
इसका भी प्रमुख कारण है कि नई घास उगाने के लिए मवेशी पालक ग्रामीण जंगल में आग लगा देते हैं जो अपूर्ण व्यवस्थाओं के कारण अकसर विकाराल रूप धारण करके जंगल की बहुमूल्य वन संपदा को भारी नुकसान पहुंचाती है और वनस्पितियों एवं जमीन पर रेंगने वाले जीव-जंतुओं को जलाकर भस्म कर देती है। विगत के दो वर्षों में कम वर्षा होने के बाद भी बाढ़ की विभीषिका के कहर का असर वनक्षेत्र पर व्यापक रूप से पड़ा है। बाढ़ के पानी के साथ आई मिट्टी-बालू इत्यादि की सिलटिंग से जंगल के अन्दर तालाबों, झीलों, भगहरों की गहराई कम हो गई है। स्थिति यह है कि जिनमें पूरे साल भरा रहने वाला पानी वन्य जीवों-जंतुओ को जीवन प्रदान करता था वह प्राकृतिक जल स्रोत अभी से ही सूखने लगे हैं। जंगल में नमी की मात्रा कम होने से कार्बनिक पदार्थ और अधिक ज्वलनशील हो गए हैं, जिसमें आग की एक चिंगारी सैकड़ों एकड़ वनक्षेत्र का जलाकर राख कर देती है।
सन् 2001 से 2007 तक दुधवा के जंगलों में आग लगने के कारणों का अध्ययन एवं विश्लेषण दुधवा पार्क के एक उपप्रभागीय वनाधिकारी ने किया था। जिसके अनुसार सन् 2001-02 में औसत वर्षा होने के कारण जंगल में आग लगने की घटनाएं अधिक रहीं किंतु नुकसान कम हुआ। सन् 2003-04 में अधिक वर्षा होने के कारण आग से जलने के लिए आवश्यक कार्बनिक पदार्थों में नमी की अधिकता रही जिससे आग लगने की 36 घटनाओं में 16.76 हेक्टेयर वनक्षेत्र प्रभावित हुआ जबकि सन् 2005 से 2007 के मध्य कम वर्षा के कारण कार्बनिक पदार्थों की नमी कम रही और आग लगने की 36 घटनाओं में दावानल का क्षेत्रफल एक हेक्टेयर अधिक रहा था। बल्कि सन् 2008-09 में कम वर्षा के कारण दावानल की घटनाओं में प्रभावित क्षेत्रफल बढ़ने से जंगल को भारी क्षति पहुंची। इस साल भी जंगल में आग लगने का सिलसिला जारी है। इससे हरे-भरे जंगल की जमीन पर दूर तक राख ही राख दिखाई देती है। लगातार आग लगने से जंगल में कई प्रजातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि अनियंत्रित आग बड़ी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करके ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही है और इससे जंगल की जैव-विविधता के अस्तित्व पर भी खतरा खड़ा हो जाता है।
आठ सौ छियासी वर्ग किलोमीटर में फैले दुधवा के जंगल में आग नियंत्रण के लिए फायर लाईन बनाई जाती है और आग लगने का तुरंत पता लग जाए इसके लिए तमाम संवेदनशील स्थानों पर वाच टावर स्थापित किए गए हैं। किंतु आग लगने पर उसके नियंत्रण के लिए तुरंत मौके पर पहुंचने के लिए रेंज कार्यालय या फारेस्ट चौकी पर वाहन नहीं है ऐसी स्थिति में कर्मचारी जब तक साइकिलों से या दौड़कर वहां पहुंचते हैं तब तक आग जंगल को राख में बदल चुकी होती है। जंगल के समीपवर्ती ग्रामीण भी अब आग को बुझाने में वन कर्मचारियों को इसलिए सहयोग नहीं देते हैं क्योंकि 1977 में क्षेत्र के जंगल को दुधवा नेशनल पार्क बना दिया गया। इसके बाद पार्क कानूनों के अंतर्गत आसपास के सैकड़ों गावों को पूर्व में वन उपज आदि की सभी सुविधाओं पर प्रतिवंध लगा दिया गया है। जबकि इससे पहले आग लगते ही गांवों के सभी लोग एकजुट होकर उसे बुझाने के लिए दौड़ पड़ते थे।
इस बेगार के बदले में उनको जंगल से घर बनाने के लिए खागर, घास-फूस, नरकुल, रंगोई, बांस, बल्ली आदि के साथ खाना पकाने के लिए गिरी पड़ी अनुपयोगी सूखी जलौनी लकड़ी एवं अन्य कई प्रकार की वन उपज का लाभ मिल जाया करता था। लेकिन बदलते समय के साथ अधिकारियों का अपने अधीनस्थों के प्रति व्यवहार में बदलाव आया तो कर्मचारियो में भी परिवर्तन दिखाई देता है। स्थिति यह हो गई है कि कर्मचारी वन उपज की सुविधा देने के नाम पर ग्रामीणों का आर्थिक शोषण करने के साथ ही उनका उत्पीड़न करने से भी परहेज नहीं करते हैं। अब ग्रामीणों का जंगल के प्रति पूर्व में रहने वाला भावात्मक लगाव खत्म हो गया है। उधर आग लगने की सूचना पर पार्क अधिकारियों का मौके पर न पहुंचना और अधीनस्थों को निर्देश देकर कर्तव्य से इतिश्री कर लेना यह उनकी कार्यप्रणाली बन गई है। इससे हतोत्साहित कर्मचारियों में खासा असंतोष है और वे भी अब आग को बुझाने में कोई खास रूचि नहीं लेते हैं। जिससे जंगल को आग से बचाने का कार्य और भी दुष्कर होता जा रहा है। परिणाम दुधवा के जंगलों में लग रही अनियंत्रित आग वन्य जीवों और वन संपदा को भारी क्षति पहुंचा रही है। पार्क के उच्च अधिकारी यह स्वीकार करते हैं कि आग लगने की बढ़ रही घटनाओं का एक प्रमुख कारण है कि स्थानीय लोगों के बीच संवाद का न होना है। वह यह भी मानते हैं कि वित्तीय संकट, कर्मचारियों की कमी, निगरानी तंत्र में आधुनिक तकनीकियों का अभाव, अग्नि नियंत्रण की पुरानी पद्धति आदि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से जंगल की आग को रोकने की दिशा में प्रभावशाली कदम नहीं उठाए जा पा रहे हैं।
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