शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

भारत की वननीति में बदलाव आवश्यक

भारत की वननीति में बदलाव आवश्यक

आजादी के बाद बनी भारतीय वननीति की समीक्षा वर्ष 1988 में की गई थी। लेकिन परिस्थितियों के अनुसार उसमें हेर-फेर किए बिना यथावत् लागू कर दिया गया, जबकि वर्ष 1975 में नेपाल राष्ट्र द्वारा अपनाई गई वननीति का भारतीय वनों पर प्राकृतिक एवं मानवजनित कारणों का विपरीत प्रभाव पड़ा है। किंतु पैंतिस साल व्यतीत हो जाने पर भी भारतीय वनों पर पड़ रहे कुप्रभावों को निष्प्रभावी करने के लिये भारत सरकार द्वारा अभी तक कोई ठोस वननीति नहीं तैयार की गई है। जबकि भारत-नेपाल सीमावर्ती भारतीय वनों पर बढ़ रहे नेपालियों के दबाव को रोकने, वन संपदा व जैव विविधता की सुरक्षा के लिये वर्तमान वननीति में बदलाव किया जाना अतिआवश्यक हो गया है।      
भारत के सभी राष्ट्रीय उद्यानों एवं वंयजीव बिहारों में दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत के हिमालय की तराई में आबाद राष्ट्रीय उद्यान एवं वनपशु बिहार सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील हैं। देश के वनों की सुरक्षा के लिये आजादी के बाद 1952 में पहली ‘वननीति’ बनी थी। इसके बाद बदलते परिवेश तथा समय की मांग के अनुरूप वर्ष 1978 में दूसरी वननीति बनी, जो अद्यतन यही लागू है। विडम्बना यह कही जाएगी कि इस वननीति में नेपाल राष्ट्र की सीमा पर स्थित महत्वपूर्ण जैव विविधता के संरक्षण एवं वनों की सुरक्षा को नजरन्दाज किया गया है। जबकि मित्र राष्ट्र नेपाल से भारत की लगभग 1400 किमी लम्बी सीमा सटी हुई है। सन् 1975 से पूर्व भारत-नेपाल सीमा के दोनों ओर घने वनक्षेत्र स्थित थे, जिसमें दोनों ओर के समृद्ध वनक्षेत्र होने के कारण वंय-पशुओं का आवागमन निर्बाध रूप से होता था। उत्तर भारत में हिमालय की तराई में फैले अधिकांश वनक्षेत्र की सीमा पूर्व में पश्चिम बंगाल, दार्जलिंग जिले से लेकर पश्चिम में उत्तरांचल में पिथौरागढ़ तक स्थित है। पिथौरागढ़ में काली नदी के दोनों तरफ नेपाल राष्ट्र का इलाका एवं भारत का धारचूला कस्बा आबाद है। आवागमन की दृष्टि से दुर्गम होने के बाद भी यह क्षेत्र तिब्बत में पाए जाने वाले ‘चीरू’ नामक हिरन के बालो से बने ‘शाहतूश शालों’ की तस्करी के लिये विश्व विख्यात है। अपनी अति विशेष खासियत के कारण उच्च वर्ग में इस शाहतूस शालों की खासी मांग बनी रहती है। यही कारण है कि अधिकांश वंयजीव तस्कर बाघ, तेदुंआ आदि के अंगों के बदले शाहतूस शाल प्राप्त करके उसकी तस्करी करते हैं।
गौरतलब है कि वर्ष 1975 में नेपाल राष्ट्र द्वारा अपनाई गई ‘सरपट वन कटान नीति’ के कारण हिमालय की तराई के वनाच्छादित भू-भाग से नेपाल के इलाकों से वनों का सफाया हो गया। नेपाल राष्ट्र की सुनियोजित नीति के तहत सरकार ने इन क्षेत्रों में सेवानिवृत्त नेपाली सैनिको को बसा दिया। जिसका प्रमुख उदेश्य भारतीय सीमा पर मजबूत नेपाली नागरिको की सामाजिक फौज की स्थापना था। खाली हुई वनभूमि पर आबाद हुए नेपाली फौजियों को नेपाल सरकार द्वारा प्राथमिकता से असलहों के लाईसेंस भी प्रदान किए गए। हालांकि कालान्तर में नेपाल की लोकतात्रिंक सरकारों की स्थिति आयाराम-गयाराम की रही इसके कारण इन क्षेत्रों में आबाद हुए गांव माओवादियों के गढ़ बन गए, जो अब भी नेपाल सरकार के लिये समस्या का प्रमुख कारण बने हुए हंै। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विगत साल के माह दिसम्बर में नेपाल के जिला कैलाली में जंगल के बीच अतिक्रमण करके बसे तथाकथित माओवादियों एवं नेपाली नागरिकों से वन विभाग ने भूमि को मुक्त कराने का प्रयास किया तो दोनों पक्षों के बीच हिसंक और खूनी संघर्ष हो गया जिसमें तीन नागरिक एवं दो वनकर्मी मारे गए और दर्जन भर से ऊपर लोग घायल हुए थे।
यद्यपि यह मामला नेपाल की सरकार का है वह माओवादियों से कैसे निपटती है? लेकिन नेपाल की सरपट वन कटान नीति का भारतीय वनों पर अच्छा-खासा प्राकृतिक एवं मानवजनित कारणों से भारी विपरीत प्रभाव पड़ा है। नेपाल की ओर से वन के कट जाने के कारण भारतीय क्षेत्र में स्थित प्रमुख जैवविविध क्षेत्र में जलप्लावन एवं गाद (सिल्टिंग) जमा होने की समस्या बढ़ने लगी और सीमावर्ती वनक्षेत्र सूख गए साथ ही जंगल के घास मैदानों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा जबकि मानवजनित कारणों से वनों की सुरक्षा भी प्रभावित हुई। इसके अतिरिक्त पिछले तीन-चार सालों से नेपाल से सटे भारतीय क्षेत्रों में बाढ़ की विनाशलीला का कहर भी बढ़ने लगा है। यह भी सर्वविदित है कि नेपाल, चीन, कोरिया, ताईवान आदि कई देश वंयजीव-जंतु उत्पाद के प्रमुख व्यवसायिक केंद्र हैं। जिसमें भारी मात्रा में ऊँचे दामों पर वंयजीव उत्पादों की खरीद-फरोख्त होती है। जिनके लिये कच्चा माल हिमालय एवं हिमालय की तराई में बसे जैव विविधता क्षेत्रों में उलब्ध है। ये राष्ट्र वंयजीव एवं उससे निर्मित सामग्री का आयात-निर्यात करने वाले देशों की भूमिका अदा करते हैं। इन्ही क्षेत्रों में सारा सामान विश्व बाजार में प्रवेश करता है। जहां प्रतिवर्ष 2-5 बिलियन अमेरिकी डालर का व्यापार होता है। वयंजीवों के अंगो का यह अवैध कारोबार नारकोटिक्स के बाद दूसरे नम्बर पर आता है। इस स्थिति की गंभीरता का अनुमान नेपाल राष्ट्र ने पहले ही समझ लिया था शायद इसी का परिणाम है कि नेपाल सरकार ने अपने प्रमुख राष्ट्रीय उद्यानों के वंयजीवों की सुरक्षा का दायित्व नेपाल आर्मी को सौंप दिया था। इसका परिणाम यह निकला कि नेपाली सैनिको के दबाव के कारण वंयजीव तस्कर भारत, श्रीलंका, म्यांमार, मलेशिया जैसे देशों में सक्रिय हो गए। हाल ही में यहां पकड़े गए वंयजीव अंगो के तस्कर भी अपने बयानों में स्वीकार कर चुके हैं कि नेपाल राष्ट्र के प्रमुख बाजारों में निर्बाध वंयजीवों के उत्पादों की तस्करी जारी है तथा नेपाल में एकत्र होने के बाद वंयजीवों के अंग तिब्बत, चीन, कोरिया पहुंचकर ऊँचे दामों पर बिकते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है अपनी वनसंपदा एवं वयंजीवों की सुरक्षा के लिये नेपाल राष्ट्र ने यथोचित प्रबंध कर रखा है लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय तस्करी के मार्गो पर उसका कोई नियंत्रण नही है।
नेपाल राष्ट्र द्वारा ‘सरपट वन कटान नीति’ के अन्तर्गत बृहद पैमाने पर किए गए वन कटान का भारतीय क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से क्या प्रभाव पड़ा अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं किया गया है। इतना ही नहीं उपरोक्त नीति के कारण भारतीय वन क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रतिप्रभाव को निष्प्रभावी करने के लिये भी कोई विशेष नीति भारत सरकार द्वारा नहीं अपनाई गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस गंभीर स्थिति का मूल्यांकन किए बगैर इसे राज्यों के ऊपर छोड़ दिया गया है। यदि पूर्व में पश्चिम बंगाल से पश्चिम में उत्ताखंड तक फैले महानंदा वंयजीव बिहार, मानस वंयजीव बिहार, बुक्सा टाइगर रिजर्व, बाल्मीकी टाइगर रिजर्व, सोहागीबरवा वंयजीव प्रभाग, सुहेलदेव वंयजीव प्रभाग, कतर्नियाघाट वन्यजीव प्रभाग, दुधवा टाइगर रिजर्व, किशनपुर वंयजीव बिहार, पीलीभीत का लग्गा-भग्गा वनक्षेत्र की स्थिति को देखा जाए तो ज्ञात होता है कि भारतीय सीमा की ओर नियंत्रण एवं संरक्षण की यथोचित व्यवस्था है परंतु नेपाल राष्ट्र की तरफ इन क्षेत्रों में पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को न्यूनतम स्तर पर ले जाने के लिये वनकर्मी अपने को असहज महसूस करते हैं। भारतीय वनों पर लगातार नेपाली नागरिको का दबाब बढ़ता जा रहा है। जिससे वंयजीवो का अवैध शिकार हो अथवा पेड़ों को काटना हो, इसमें नेपाल नागरिक जरा भी कोताही नहीं बरतते हैं। स्थानीय स्तर के प्रंबध को यदि नजरन्दाज कर दिया जाए तो पैंतिस वर्ष बाद भी हमारे देश की वननीति में उपरोक्त कुप्रभावों को निष्प्रभावी करने के लिये अभी तक न तो कोई मूल्याकंन किया गया है और न ही नई वननीति तैयार की गई है तथा भविष्य में भी ऐसी कोई आशा दिखाई नही पड़ती है। परंतु बदलते परिवेश में अब यह आवश्यक हो गया हैै कि हिमालय एवं हिमालय की तराई में नेपाल राष्ट्र की सीमा पर भारतीय क्षेत्र में बसे जैव विविधता क्षेत्रों की सुरक्षा हेतु एक व्यवहारिक ठोस वननीति बनाई जाए, अन्यथा की स्थिति में भारतीय वनों पर नेपाल की तरफ से पड़ रहे दुष्प्रभावों के भविष्य में और भी घातक परिणाम निकल सकते हैं, इस बात से भी कतई इंकार नही किया जा सकता है। (लेखक वाइल्ड लाइफर पत्रकार है)

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

दुधवा का स्वर्णकाल अब बनकर रह गया यादगार

दुधवा पार्क की स्थापना पर विशेष- 
 दुधवा का स्वर्णकाल अब बनकर रह गया यादगार
            दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना दो फरवरी सन् 1977 में वन प्रबन्धन, वन्यजीवों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिये की गई थी। इसके लिये बताए गए नियम तथा कानून यथार्थ में खरे नही उतर रहें हैं। यद्यपि सन् 2000-01 से लागू किये गये दस वर्षीय मैनेजमेंट प्लान के अनुसार चल रहे कार्यो के आशातीत सफल परिणाम नहीं निकल पाये हैं। वरन् वन्यजीवों की संख्या लगातार घटती ही जा रही है। तमाम वन्यजीवों के साथ ही आमरूप से वनराज बाघ के होने वाले दर्शन अब धीरे-धीरे दुर्लभ ही होते जा रहे हैं। जिससे लग रहा है कि वन्यजीवों तथा बाघों से भरपूर दुधवा का लगभग एक दशक पूर्व वाला स्पर्णकाल लोगों के लिये भविष्य में यादगार बनकर रह जायेगा। उधर जंगल के समीपवर्ती गांवों के नागरिक जो वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण व सुरक्षा में आगे रहकर सहभागिता करते थे वही अब पार्क कानून की पाबंदियों से उनके दुश्मन बन गए हैं। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया है कि नागरिकों के हितों को अनदेखी किए बगैर वनजीवन तथा मानव के संबंधों को नई परिभाषा दी जाए तभी सार्थक व दूरगामी परिणाम निकल सकते हंै।
    उल्लेखनीय है कि सन् 1861 में अंगे्रजी हुकूमत में काष्ठ उत्पादन के लिये खैरीगढ़ परगना क्षेत्र के 303 वर्ग किमी जंगल को संरक्षित किया गया। तत्पश्चात सन 1886 में मिस्टर ब्राउन द्वारा बनाए गए वैज्ञानिक प्लान के अनुसार यहां वन प्रबंधन की शुरूआत की गई। सन् 1905 में वन विभाग का नियंत्रण हो जाने के बाद विलुप्त प्रजाति बारहसिंघा के संरक्षण के लिये 15.7 वर्ग कि0मी0 वनखेत्र को सोनारीपुर सेंक्चुरी के नाम से संरक्षित किया गया। कालांतर में वन्यजीवों के संरक्षण को ध्यान में रखकर सरकार ने इस क्षेत्रफल को बढ़ाकर 212 वर्ग किमी क्षेत्रफल को दुधवा सेंक्चुरी के रूप में संरक्षित कर दिया। सन् 1977 दो फरवरी को सरकार ने वन, वन्यजीवों के साथ ही जैव-विविधता को संरक्षण देने के लिये दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर दी। 634 वर्ग किमी दुधवा के वन क्षेत्रफल में किशनपुर वन्यजीव बिहार का 204 वर्ग किमी वनक्षेत्र शामिल करके 1987 में दुधवा टाइगर रिजर्व की स्थापना की गई। सन् 1994 में 66 वर्ग किमी आरक्षित वनक्षेत्र दक्षिणी बफर के रूप में जोड़ दिए जाने के बाद कुल 884 वर्ग किमी वनक्षेत्रफल दुधवा टाइगर रिजर्व के तहत संरक्षित हो गया है।
    गौरतलब है कि वन तथा वन्यजीवों को संरक्षण व सुरक्षा देने के उद्देश्य से वनपक्षी एवं पशु संरक्षण अधिनियम 1912, भारतीय वन अधिनियम 1927 के बाद वन्यजीव-जंतु संरक्षण अधिनियम 1972 बनाया गया। इनके लगभग बेअसर रहने पर सन् 1991 एवं 2000 और इससे पूर्व भी अधिनियम में किये गये तमाम महत्वपूर्ण संशोधनों के बाद भी उत्तर प्रदेश में वनमाफिया एवं वन्यजीवों तस्करों और शिकारियों की कारगुजारियां बेखौफ जारी हैं। इसके अतिरिक्त वन्यजीवों तथा वन की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये राष्ट्रीय उद्यान के भी नियम कानून बने हुए हैं। जो बदलते परिवेश में अब बेमानी हो गए हंै और दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की प्रगति में बाधक बन गए हैं। राष्ट्रीय उद्यान के कानून एवं नियमों में वन्यजीवों का जीवनचक्र प्रभावित न हो इसलिए उनके वासस्थल क्षेत्र में मानव प्रवेश निषिद्ध करके उनको प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध कराने की इसमें परिकल्पना की गई है। साथ ही जैव विविधता को संरक्षण देने के उद्देश्य से जंगल में जो जैसा है वैसा ही रहेगा उसमें परिवर्तन न किए जाने का कानून भी बनाया गया है। किताब में तो यह कानून अच्छा है लेकिन यथार्थ के आइने में यह नियम-कानून खरे नहीं उतर रहें हैं। इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियाँ विषम हैं और ग्रामीणजन राष्ट्रीय उद्यान बनने से पूर्व जंगल से वन उपज का लाभ लेते रहे जिस पर अब पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके कारण वन तथा वन्यजीवों के संरक्षण में संवेदनशील हो भावात्मक रूप से जुड़े ग्रामीणों का स्वभाव इनके प्रति क्रुर हो गया है तथा वन उपज की चोरी को बढ़ावा भी मिला है। यहां एक विचारणीय बात यह भी है कि वन्यजीवों द्वारा मारे गए पालतू पशु का मुआवजा जो सरकार द्वारा निर्धारित किया गया है, वह काफी कम है। जैसे बैल का 2300 रुपए, भंैसा 2500 रुपए तथा गाय-घोड़ा का 1200-1200 रुपए आदि देने के साथ ही फसल क्षतिपूर्ति भी लगभग नाममात्र निर्धारित है। जबकि दुधवा में सफलता पूर्वक चल रही गैण्डा पुर्नवासन परियोजना के तहत विचरण करने वाले 30 सदस्यीय गैण्डा परिवार के सदस्य अक्सर जंगल के बाहर आकर कृषि फसलों को भारी क्षति पहुचाते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि लगभग 24 साल इस परियोजना को हो जाने के बाद भी प्रदेश सरकार द्वारा गैण्डा से होने वाली फसल क्षति का मुआवजा का निर्धारण अभी तक नही किया गया है। वनपशुओं से होने वाली जानमाल की क्षति की वाजिब भरपाई न होने से ग्रामीणजन हमेशा वन्यजीवों को दुश्मन की निगाह से देखते हैं।
    उधर दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना हो जाने के बाद सन् 1983 से 1993 तक वन विशेषज्ञ विश्व भूषण गौड़ द्वारा बनायी गई वन प्रबंधन कार्य योजना पर यहां कार्य किया गया। इसमें वन एवं वंयजीव संरक्षण जैव विविधता की सुरक्षा के साथ ही काष्ठ उत्पादन को भी प्रमुखता दी गई थी। तत्पश्चात सन् 1993-94 से 2000-01 तक डा0 आर0एल0 सिंह की वार्षिक कार्य योजना के तहत वन प्रंबधन किया गया। वर्तमान में यहां तैनात रहे तत्कालीन फील्ड निदेशक व अब सूबे के प्रमुख वन संरक्षक रूपक डे द्वारा तैयार की गई कार्ययोजना पर पूर्णतया वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रबंधन किया जा रहा है। इस पर सन् 2010 तक कार्य चलेगा। इस प्लान में वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन, वन्यजीवों की प्रगति आधारित अनुश्रवण, आद्र क्षेत्रों का विकास, फायर कंट्रोल एवं प्राकृतवास पर प्रतिकूल कारकों को चिन्हिृत कर उनके नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है। दस साल का समय व्यतीत हो रहा है लेकिन इस कार्य योजना के भी अनुकूल परिणाम नही निकले हैं। अलबत्ता अति संरक्षण के चलते मानव एवं वन्यजीवों के बीच की खाई चैड़ी ही होती जा रही है और इससे जंगल में वन्यजीवों की संख्या में भी गिरावट दर्ज हो रही है। जबकि वन विभाग लगातार कागजों में वन्यजीवों की संख्या को बढ़ाकर दर्शित करता आ रहा है। वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण व सुरक्षा के लिये विश्व प्रकृति निधि-भारत द्वारा नई कार्ययोजना का प्रारूप तैयार किया जा रहा है। इस कार्ययोजना को तैयार करने वालों ने अगर वन्यजीवों के साथ में मानव के हितो को भी ध्यान में रखकर कार्ययोजना तैयार नही की तो शायद इसका हस्र भी पूर्ववर्ती कार्ययोजनाओं की तरह ही होगा। इस बात से इन्कार नही किया जा सकता है।
    दुधवा राष्ट्रीय उद्यान को स्थापित हुए 33 साल व्यतीत हो गए हैं। इसके लाभ-हांनि का यदि आंकलन मोटे तौर पर किया जाए तो बचे-खुचे वन तथा वन्यजीवों की सुरक्षा व संरक्षण की दृष्टि से आवश्यकता के अनुरूप किया जा रहा वन प्रबंधन समय की मांग है और इसमें सभी को सहयोग भी देना चाहिए। लेकिन संरक्षण की अधिकता में मानवहित को नजरंदाज किया जा रहा है इससे आशातीत परिणाम नहीं निकल रहें हैं। वन विभाग तथा आमजनता के बीच बढ़ी दूरियां वन प्रबंधन के लिये हितकर नहीं कही जा सकती हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम है पिछले पांच साल में वन्यजीवों की लगातार घटती संख्या है। पार्क स्थापना से पूर्व जब जंगल में मानव प्रवेश निषेद्ध नहीं था; तब घास-फूस, जलौनी लकड़ी आदि वन उपज का लाभ ग्रामीणों को दिया जाता था; अब इसे ग्रासलैण्ड मैनेजमेन्ट के तहत जलाया जाता है। इससे जमीन पर रेंगने वाले जीव-जंतु जलकर मर जाते हैं तथा कीमती लकड़ी जिसे बंेचकर राजस्व प्राप्त किया जा सकता है वह भी कोयला बन जाती है। वन विभाग संरक्षित वन क्षेत्र को पूर्णतया निषिद्ध बनाने के प्रयास में लगा हुआ है। इससे प्राकृतिक परिस्थितियां तो उत्पन्न हो जाएगीं। किंतु जो परिणाम अब तक नही निकल पाए हैं इससे सार्थक दूरगामी परिणाम क्या निकल पाएगें। इस पर सवालिया निशन पूर्ववत् लगा हुआ है। बढ़ती जनसंख्या, बदलते परिवेश एवं विषम परिस्थितियांे में यह आवश्यक हो गया है कि अब वन एवं वन्यजीवों तथा मानव के संबंधों को नई परिभाषा दी जाए जिससे मानव का भावात्मक लगाव वन्यजीवों के प्रति पैदा हो सके। इसको नजरदंाज करके उठाए गए कदम फलदायक कदापि नहीं होगें। (लेखक वाइल्ड लाईफर एवं पत्रकार है)