शनिवार, 24 अप्रैल 2010

Rajyapal Sri B.L.JOSHE Dudhwa aaye



यू. पी.के  राज्यपाल 
श्री बी. एल. जोशी 
सपरिवार 
दुधवा नेशनल पार्क 
में आये. 






























दुधवा में अब गैंडों और मानव के बीच संघर्ष शुरू


एक सदी पूर्व विलुप्त हो चुके एक सींग वाले भारतीय गैंडे को 25 साल पहले इस तराई क्षेत्र की उनकी जन्मभूमि पर बसाया गया था। किसी वन्यजीव को पुनर्वासित करने का यह गौरवशाली इतिहास विश्व में केवल दुधवा नेशनल पार्क ने बनाया है। भारत सरकार ने पहले आसाम के पावितारा वन्यजीव विहार से दो नर और तीन मादा गैंडे लाकर दुधवा में गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू कराई थी। इसमें से दो मादा गैडों की मौत 'शिफ्टिंग स्टेस' के कारण हो गई थी तब परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए सन् 1985 में नेपाल के चितवन नेशनल पार्क से सोलह हाथियों के बदले चार मादा गैंडों को लाया गया। विश्व की यह एकमात्र ऐसी परियोजना है जिसमें 106 साल बाद गैडों को उनके पूर्वजों की धरती पर पुनर्वासित कराया गया है। गंगा के तराई क्षेत्र में सन् 1900 में गैंडे का आखिरी शिकार इतिहास में दर्ज है, इसके बाद गंगा के मैदानों से एक सींग वाला भारतीय गैंडा विलुप्त हो गया था। 
दुधवा नेशनल पार्क में चल रही विश्व की अद्वितीय गैंडा पुनर्वास परियोजना संबंधित अफसरों की लापरवाही कुप्रबंधन एवं उपेक्षा का शिकार हो गयी है। उर्जाबाड़ से संरक्षित वनक्षेत्र में रहने वाले तीस सदस्यीय गैंडा परिवार के पांच सदस्य करंटयुक्त फैंसिंग तोड़कर बाहर घूम रहे हैं। पार्क प्रशासन के अफसर गैंडों की सुरक्षा की कोई पुख्ता दीर्घकालिक व्यवस्था नहीं कर रहे हैं। इससे मानव के आक्रोश से उनका जीवन भी संकट में है। इसके अतिरिक्त एक ही नर गैंडा की संतानों का परिवार होने से उनके ऊपर अनुवांशिक प्रदूषण यानी अन्तःप्रजनन के खतरे की तलवार भी लटक रही है। दुधवा नेशनल पार्क की दक्षिण सोनारीपुर रेंज के 27 वर्ग किलोमीटर के जंगल को उर्जाबाड़ से घेरकर अप्रैल 1984 में गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू की गई थी। तमाम उतार-चढ़ाव एवं साधनों और संसाधनों की कमी के बाद भी यह परियोजना काफी हद तक सफल रही है। स्वच्छंद विचरण करने वाले तीस सदस्यीय गैंडा परिवार का जीवन अब हमेशा खतरों से घिरा रहता है, क्योंकि इनकी रखवाली और सुरक्षा में तैनात पार्क कर्मियों को निगरानी करना तो सिखाया जाता है किंतु बाहर भागे गैंडा को पकड़कर वापस लाने का तरीका ये नहीं जानते हैं।
इन अव्यवस्थाओं के कारण इस एक दशक से तीन नर एवं दो मादा गैंडा उर्जाबाड़ के बाहर दुधवा नेशनल पार्क क्षेत्र की गेरुई नदी के किनारे और गुलरा क्षेत्र के खुले जंगल समेत निकटस्थ खेतों में विचरण करके किसानों की फसलों को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। दुधवा रेंज कार्यालय से करीब चार किलोमीटर दूर चौखंभा वनक्षेत्र में गौरीफंटा रोड पर पहली बार एक गैंडा विचरण करते देखा गया। अब यह गैंडा सोठियाना रेंज के जंगल में असुरक्षित घूम रहा है। यह वनक्षेत्र दक्षिण सोनारीपुर के उर्जाबाड़ वाले इलाके से 15-20 किमी दूर है। गैंडा वहां तक कैसे पहुंचा? यह बात अपने आप में वन विभाग की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह है। इस गैंडा की घर वापसी के कोई प्रयास पार्क प्रशासन ने नहीं किए हैं। 
दुधवा के जंगल के चारों तरफ किनारे पर तमाम गांव आबाद हैं और वन क्षेत्र से सटे खेतों में फैंस तोड़कर बाहर विचरण करने वाले गैंडे लगातार फसलों को भारी क्षति पहुंचा रहे हैं। बीते दशक में मलिनियां गांव के पास गैंडा एक किसान को मार चुका है और अलग-अलग गैंडों के हमलों में पौन दर्जन लोग घायल हो चुके हैं। वन पशुओं से की जाने वाली फसल क्षति और जनहानि की मुआवजा सूची में यूपी सरकार ने 25 साल व्यतीत हो जाने के बाद भी गैंडा को शामिल नहीं किया है। इससे वन विभाग किसान को गैंडे से फसल क्षति का मुआवजा नहीं देता है। फसलों का नुकसान और जनहानि होने के बाद भी उसकी भरपाई ना मिलने से आक्रोशित ग्रामीण खुले जंगल और खेतों के आसपास घूमने वाले गैंडों को कभी भी जानी नुकसान पहुंचा सकते हैं। दुधवा पार्क प्रशासन ने गैडों की मानीटरिंग और उनकी सुरक्षा के लिए अलग से चार हाथी और कर्मचारियों का भारी अमला लगाया गया है लेकिन रेंज और वन चौकियों पर मूलभूत सुविधाएं उपलव्ध न होने से कर्मचारी अपनी इस तैनाती को कालापानी की सजा मानते हैं। विषम परिस्थितियों में वे ड्यूटी को पूरी क्षमता के बजाय बेगार के रूप में करते हैं जिससे गैंडों के जीवन पर भारतीय ही नहीं वरन नेपाली शिकारियों की भी कुदृष्टि का हर वक्त खतरा मंडराता रहा है।
दुधवा में अपने पूर्वजों की धरती पर पुनर्वासित बांके नाम के पितामह गैंडा से हुई वंश वृद्धि से यहां तीस सदस्यीय गैंडा परिवार स्वच्छंद विचरण कर रहा है। एक ही पिता से हुई संतानें चार पीढ़ी तक पहुंच गई हैं। जिनके ऊपर विशेषज्ञों के अनुसार अनुवांशिक प्रदूषण यानी अन्तःप्रजनन-इनब्रीडिंग- का खतरा मंडरा रहा है। उनका मानना है कि अन्तःप्रजनन की विकट समस्या से निपटने के लिए यहां बाहर से गैंडे का लाया जाना जरूरी है। गौरतलब है कि दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल किशनपुर वनपशु बिहार और नार्थ-खीरी वन प्रभाग की संपूर्णानगर वनरेंज के जंगल और उससे सटे खेतों में पिछले करीब एक साल से मादा गैंडा अपने एक बच्चे के साथ घूम रही है। वन विभाग एवं पार्क प्रशासन इसकी सुरक्षा एवं निगरानी करने के बजाय यह कहकर अपना पल्लू झाड़ रहा है कि यह गैंडा मादा नेपाल की शुक्लाफांटा सेंक्चुरी की है, जो पीलीभीत के लग्गा-भग्गा जंगल से होकर आई है और घूम-फिर कर वापस चली जाएगी। 
पूर्व में जब यह परियोजना शुरू की गई थी तब सोलह हाथियों के बदले चार मादा गैंडे नेपाल से लाई गई थी, अब एक नेपाली मादा गैंडा अपने बच्चे के साथ घूम रही है तो फ्री में मिल रही इस मादा गैंडा को यहां के गैंडा परिवार में क्यों नहीं शामिल कराया जा रहा है? वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि प्रयास करके पार्क प्रशासन अगर इस मादा गैंडा को दुधवा के गैंडा परिवार में शामिल कर ले तो यहां के गैंडों के ऊपर मंडरा रहा इनब्रीडिंग यानी अंतःप्रजनन का खतरा आंशिक रूप से काफी हद तक टल सकता है। लेकिन पार्क के अफसर इस दिशा में कोई भी प्रयास करते नहीं दिख रहे हैं। इससे लगता है कि पार्क प्रशासन गैंडा पुनर्वास परियोजना के प्रति कतई गंभीर नहीं है। 
गैंडा पुनर्वास परियोजना के योजनाकारों ने तय किया था कि यहां की समष्टि में तीस गैंडा को लाकर बसाया जाएगा। उसके बाद फैंस हटाकर उनको खुले जंगल में छोड़ दिया जाएगा। उनका यह सपना तो पूरा नहीं हुआ। गैंडों की बढ़ती संख्या को देखकर समष्टि के वृहद फैलाव, आवागमन की सुविधा, अंतःप्रजनन रोकने एवं संक्रामक संहारक तत्वों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के उद्देश्य से दक्षिण सोनारीपुर में इस समष्टि के निकट नई फैंस बनाने का प्रस्ताव शासन को भेजा गया था। वहां से स्वीकृति मिलने के बाद पांच साल पहले शुरू किया गया कार्य आज भी अधूरा पड़ा है और बजट आने का इंतजार कर रहा है। 
जर्जर हो चुकी 25 साल पुरानी उर्जाबाड अनुपयोगी हो गई है, लकड़ीचोर और शिकारी फैंस के तारों को काट देते हैं इससे भी गैंडो को बाहर निकलने में आसानी रहती है। वैसे भी गैंडों की बढ़ रही संख्या के अनुपात में अब उनके रहने वाले जंगल का भी क्षेत्रफल कम हो गया है। इसका क्षेत्रफल समय रहते बढ़ाया जाना आवश्यक हो गया है साथ ही गैंडों की मानीटरिंग के लिए अत्याधुनिक साधन और सुरक्षा के लिए संसाधन उपलब्ध कराने की बात भी पार्क अधिकारी कहते हैं। यहां की समस्याओं का समाधान करने में न केंद्र सरकार गंभीर दिखाई देती है और न ही प्रदेश की सरकार कोई दिलचस्पी ले रही है। इससे व्याप्त तमाम अव्यवस्थाओं के कारण क्षेत्र में गैंडा और मानव के मध्य एक नया संघर्ष जरूर शुरू हो गया है। इसके बाद भी दुधवा पार्क प्रशासन के संरक्षित क्षेत्र के बाहर घूम रहे गैंडों की सुरक्षा एवं उनको फैंस के भीतर लाने के कतई कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। इनके साथ कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है, इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है।
 

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

प्रकृति की पीड़ा कौन सुनेगा

             जल, जंगल और जमीन, इन तीन तत्वों के बिना प्रकृति अधूरी है। विश्व में सबसे समृद्ध देश वही हुए हैं, जहाँ यह तीनों तत्व प्रचुर मात्रा में हों। हमारा देश जंगल, वन्य जीवों के लिए प्रसिद्ध है। सम्पूर्ण विश्व में बड़े ही विचित्र तथा आकर्षक वन्य जीव पाए जाते हैं। हमारे देश में भी वन्य जीवों की विभिन्न और विचित्र प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इन सभी वन्य जीवों के विषय में ज्ञान प्राप्त करना केवल कौतूहल की दृष्टि से ही आवश्यक नहीं है, वरन यह काफी मनोरंजक भी है। भूमंडल पर सृष्टि की रचना कैसे हुई, सृष्टि का विकास कैसे हुआ और उस रचना में मनुष्य का क्या स्थान है? प्राचीन युग के अनेक भीमकाय जीवों का लोप क्यों हो गया और उस दृष्टि से क्या अनेक वर्तमान वन्य जीवों के लोप होने की कोई आशंका है?मानव समाज और वन्य जीवों का पारस्परिक संबंध क्या है? यदि वन्य जीव भूमंडल पर न रहें, तो पर्यावरण पर तथा मनुष्य के आर्थिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ेगा? तेजी से बढ़ती हुई आबादी की प्रतिक्रिया वन्य जीवों पर क्या हो सकती है आदि प्रश्न गहन चिंतन और अध्ययन के हैं।इसलिए भारत के वन व वन्य जीवों के बारे में थोड़ी जानकारी आवश्यक है, ताकि लोग भलीभाँति समझ सकें कि वन्य जीवों का महत्व क्या है और वे पर्यावरण चक्र में किस प्रकार मनुष्य का साथ देते हैं। साथ ही यह जानना भी आवश्यक है कि सृष्टि-रचना चक्र में पर्यावरण का क्या महत्व है। पहले पेड़ हुए या गतिशील प्राणी? फिर सृष्टि-रचना की क्रिया में हर प्राणी, वनस्पति का एक निर्धारित स्थान रहा है। इस सृष्टि-रचना में मनुष्य का आविर्भाव कब हुआ? प्रकृति के इस चक्र में विभिन्न जीव-जंतुओं में क्या कोई समानता है? वैज्ञानिक दृष्टि से उसको कैसे समझा जाए, जिससे हमें पता चले क‍ि आखिर किसी प्रजाति के लुप्त हो जाने से मानव समाज और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि आखिर हम भी एक प्रजाति ही हैं। आज हमें सबसे ज्यादा जरूरत है पर्यावरण संकट के मुद्दे पर आम जनता को जागरूक करने की। पर्यावरण, वन्य जीव-जंतुओं और मानव समाज का सीधा रिश्ता आम आदमी की समझ के मुताबिक समझने के लिए इसे वैज्ञानिक दृष्टि से देखना भी आवश्यक है। जीव-जंतुओं व जंगल का विषय है तो बड़ा 'क्लिष्ट', पर है उतना ही रोचक। इसे समझने के लिए सबसे पहले खुद पर पड़ रहे पर्यावरण के प्रभाव को जानना महत्वपूर्ण है।दिनोदिन गम्भीर रूप लेती इस समस्या से निपटने के लिए आज आवश्यकता है एक ऐसे अभियान की, जिसमें हम सब स्वप्रेरणा से सक्रिय भागीदारी निभाएँ। इसमें हर कोई नेतृत्व करेगा, क्योंकि जिस पर्यावरण के लिए यह अभियान है उस पर सबका समान अधिकार है।तो आइए हम सब मिलकर इस अभियान में अपने आप को जोड़ें। इसके लिए आपको कहीं जाने या किसी रैली में भाग लेने की जरूरत नहीं, केवल अपने आस-पड़ोस के पर्यावरण का अपने घर जैसा ख्याल रखें जैसे कि - * घर के आसपास पौधारोपण करें। इससे आप गरमी, भूक्षरण, धूल इत्याद‍ि से बचाव तो कर ही सकते हैं, पक्षियों को बसेरा भी दे सकते हैं, फूल वाले पौधों से आप अनेक कीट-पतंगों को आश्रय व भोजन दे सकते हैं।
            शहरी पर्यावरण में रहने वाले पशु-पक्षियों जैसे गोरैया, कबूतर, कौवे, मोर, बंदर, गाय, कुत्ते आदि के प्रति सहानुभूति रखें व आवश्यकता पड़ने पर दाना-पानी या चारा उपलब्ध कराएँ। मगर यह ध्यान रहे क‍ि ऐसा उनसे सम्पर्क में आए बिना करना अच्छा रहेगा, क्योंकि अगर उन्हें मनुष्य की संगत की आदत पड गई तो आगे चलकर उनके लिए घातक हो सकती है।पर्यावरण पर बड़ी-बड़ी बातें करने से पहले हमें कुछ आदतें अपनाना होंगी व उनका पालन करना होगा, क्योंकि स्थितियाँ बदलने की सबसे अच्छी शुरुआत स्वयं से होती है।   

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

DM visits Dudhwa village to inquire into FRA claims

 Surma village situated in Dudhwa National Park in Lakhimpur Kheri district. Home to Tharu tribe for centuries, the village was visited by senior officials of the district administration led by district magistrate Sameer Verma, who reviewed the preparations of distribution of land titles to the villagers under the Forest Rights Act (FRA) 2006. The Surma is the only
tribal village situated in a forest reserve area which is all set to get the status of a revenue village.
    Interestingly, according to tribals and their representatives, it was for the first time after independence that a district magistrate visited their village. The district administration moved into action following strict directions from the chief secretary A K Gupta on effective implementation of the FRA 2006. The FRA is a special law which provides right to tribals and forest dwellers on forest land on
which they are dependent since ages. The chief secretary had also ordered review of over 51,000 claims filed by forest dwellers but rejected by officials.
    Total 70,000 claims have been filed and around 9,000 land titles have been distributed.
    The DM spoke to the villagers individually and asked them about their claims. Villagers informed the DM that their claims are ready but have not been verified as yet as the forest department has not provided them relevant documents.

    The DM was upset to know that revenue and forest officials were not working effectively as directed by the chief secretary.
    He warned of strict action against officials found lax in their duties. He said that villagers should file their claims by April 15.
    He also directed forest officials to provide all relevant documents for verification of claims as early as possible.
    Rama Chandra Rana, a resident of Surma and also member of the state FRA monitoring committee, said that the attitude of the district administration was positive. Rajnish, a volunteer of national forum of forest people and forest workers, said that such initiatives by district head would help in expediting the implementation of FRA in the state.

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

लुप्तप्रय तेंदुआ की खाल एंव हड्डिया बरामद


खीरी  ka सम्पूर्णानगर थाना पुलिस ने गुलदार की एक खाल बरामद करके चार अभियुक्तियों को गिरफतार किया है। इस तेंदुआ का शिकार साउथ-खीरी वन प्रभाग के भीरा परिक्षेत्र के जंगल में किए जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। जानकारी के अनुसार सम्पूर्णानगर थाना पुलिस ने भारत-नेपाल सीमावर्ती ग्राम मिर्चिया के आगे नेपाल जाते समय चार अभियुक्तों को गिरफतार किया है। इनके पास से लुप्तप्रय वंयजीवों की सूची में प्रथम पायदान पर चिन्हित गुलदार यानी तेंदुआ की एक खाल एवं उसकी हड्डिया बरामद की हैं। गिरफतार अभियुक्तों के नाम अल्लूराम पुत्र रंगीलाल, मूलचंद्र पुत्र हेमराज, पप्पू पासी पुत्र बदलू दाताराम पुत्र बालकराम ग्राम महेशापुर थाना भीरा का निवासी होना बताया गया है।
जानकार सूत्रो ने बातया कि पुलिस ने मुखबिर की सूचना पर उपरोक्त अभियुक्तों को मय तेंदुआ खाल सहित पलियाकलां पर स्टेशन स्थानीय पुलिस के सहयोग से पकड़ा था । यह अभियुक्त भीरा से ट्रेन द्वारा आए थे। अनुमान लगाया जा रहा है कि इस तेंदुआ का शिकार किशनपुर वन- पशु विहार से सटे साउथ-खीरी वन प्रभाग की भीरा रेंज के जंगल क्षेत्र से किया गया होगा । इस बात को इससे भी बल मिल रहा है कि विगत दिनों भीरा रेंज क्षेत्र जंगल व ग्रामीण क्षेत्र में तेंदुआ घूमने का ढिंढोंरा वन विभाग के आलाअफसरों ने अखबारों में बयानबाजी करके कई बार पीटा था। इससे शिकारियों को तेंदुआ की लोकेशन आसानी से मिल गई और उसे मौत के घाट उतार दिया।
गौरतलब है कि वन विभाग के आलाअफसर हो या फिर दुधवा नेशनल पार्क के उच्चधिकारी हों, यह स्वयं की पीठ थपथपाने के लिए बाघ, तेंदुआ, बाघिन या शावकों के घूमने की लोकेशन अखबारों में बयानबाजी करके उजागर कर देते हैं। जिसका फायदा शिकारी या वंयजीवों की खालों एवं उनके अंगो का अवैध कारोबार करने वाले तस्कर यंू उठाते है क्योंकि लोकेशन का पता लगाने में उन्हे मशक्कत करनी होती है वह उन्हे आसानी से मिल जाती है । हाल ही में अखबारों में अधिकारियों के छपे बयानों को देखा जाए तो लगभग चार दर्जन शावकों के ऊपर खतरे की तलवार लटकी हुई है।