शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

बाघ के रास्ते में खड़ा इंसान


पिछले तीन सालों में उत्तर प्रदेश के जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से निकले बाघों के द्वारा खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद में करीब दो दर्जन के लोग बाघ का शिकार बन चुके हैं. इसे हम इंसानों के लिए त्रासदी कह सकते हैं लेकिन जितनी त्रासदी यह इंसानों के लिए है उससे अधिक त्रासदी उन बाघों के लिए जो इंसानों का शिकार कर रहे हैं. बाघ जन्म से हिंस्रक और खूंखार तो होता है, लेकिन मानवभक्षी नहीं होता। इंसानों से डरने वाले वनराज बाघ को मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं।


इसमें दो बाघों को गोली मारी गयी। जबकि एक बाघ को पकड़कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेजा जा चुका है। इसके अतिरिक्त उत्तरांचल में भी जंगल से बाहर आकर मानवभक्षी बनने वाले दो बाघों को बीते एक पखवारे में गोली मारी जा चुकी है। उत्तर प्रदेश के पूरे तराई क्षेत्र का जंगल हो अथवा उत्तरांचल का वनक्षेत्र हो, उसमें से बाहर निकले बाध चारों तरफ अपना आतंक फैलाए हैं और वेकसूर ग्रामीण उनका निवाला बन रहे हैं। बाध और मानव के बीच संधर्ष क्यो बढ़ रहा है? और बाध जंगल के बाहर निकलने के लिए क्यों बिवश हैं? इस विकट समस्या का समय रहते समाधान किया जाना आवश्यक है। वैसे भी पूरे विश्व में बाघों की दुनिया सिमटती जा रही है। ऐसी स्थिति में भारतीय वन क्षेत्र के बाहर आने वाले बाघों को गोली का निशाना बनाया जाता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जव भारत की घरा से बाघ विलुप्त हो जाएगें।

उत्तर प्रदेश के दुधवा टाइगर रिजर्व परिक्षेत्र में शामिल किशनपुर वनपशु विहार, पीलीभीत और शाहजहांपुर के जंगल आपस में सटे हैं। गांवों की बस्तियां और कृषि भूमि जंगल के समीप हैं। इसी प्रकार दुधवा नेशनल पार्क तथा कतरनिया वन्यजीव प्रभाग का वनक्षेत्र भारत-नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय खुली सीमा से सटा है साथ ही आसपास जंगल के किनारे तमाम गांव वसे हैं। जिससे सीमा पर नेपाली नागरिको के साथ ही भारतीय क्षेत्र में मानव आबादी का दबाव जंगलों पर बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते विभिन्न परितंत्रों के बीच एक ऐसा त्रिकोण बनता है जहां ग्रामवासियों और वनपशुओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाना ही है। भौगोलिक परिस्थितियों के चलते बनने वाला त्रिकोण परिक्षेत्र दुर्घटना जोन बन जाता है। सन् 2007 में किशनुपर परिक्षेत्र में आबाद गावों में आधा दर्जन मानव हत्याएं करने वाली बाघिन को मृत्यु दण्ड देकर गोली मार दी गयी थी। इसके बाद नवंबर 2008 में पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी होते हुए सूबे की राजधानी लखनऊ की सीमा तक पहुंच गया था। इस दौरान बाघ द्वारा एक दर्जन ग्रामीणों का शिकार किया गया। बाद में इस आतंकी बाघ को नरभक्षी घोषित करके फैजाबाद के पास गोली मारकर मौत दे दी गयी थी। सन् 2009 के माह जनवरी में किशनपुर एवं नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन के क्षेत्र में जंगल से बाहर आये बाघ ने चार मानव हत्याएं करने के साथ ही कई पालतू पशुओं का शिकार भी किया। इस पर हुई काफी मशक्कत के बाद बाघ को पिंजरें में कैद कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था।

जन्म से खंूखार होने के बाद भी विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता। यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है। मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां बिवश करती हैं। विश्वविख्यात बाघ विशेषज्ञ जिम कार्बेट का भी कहना था कि बाघ बूढ़ा होकर लाचार हो गया हो, जख्मी होने से उसके दांत, पंजा, नाखून टूट गये हो या फिर प्राकृतिक या मानवजनित विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हों, तभी बाघ इंसानों पर हमला करता है। उनका यह भी मानना था कि जन्म से खंूखार होने के बाद भी बाघ मानव पर एक अदृश्य डर के कारण हमला नहीं करता और यह भी कोई जरूरी नहीं है कि नरभक्षी बाघ के बच्चे भी नरभक्षी हो जायें।

सन् 2010 पीलीभीत के जंगल से निकले बाघ द्वारा खीरी, शाहजहांपुर में द्वारा आठ ग्रामीण मौत के घाट उतारे गए थे। इस पर वन विभाग ने प्रयास करके बाघ को पिंजरे में कैद करके लखनउ प्राणि उद्यान में भेज दिया था। उत्तर प्रदेश में ही नहीं वरन उत्तरांचल में भी बाघ जंगल से बाहर भाग रहे हैं। 2011 के माह जनवरी व फरवरी के वीते एक पखवारे के भीतर उत्तरांचल के जिम कार्वेट पार्क के ग्रामीण सीमाई क्षेत्रों में दो बाघों को मानवभक्षी घोषित करके गोली मारी जा चुकी है। इसके अतिरिक्त चीन में बाघ के अंगों की बढती मांग के कारण पैसों के लालच में भी भारत के वनक्षेत्रों में बाघों का अवैध शिकार किया जा रहा है। अवैध शिकार के कारण ही राजस्थान के सारिस्का नेशनल पार्क और मध्य प्रदेश के रणथम्भौर नेशनल पार्क से बाघ गायब हो चुके हैं। देश में संकटापन्न दशा से गुजर रहे बाघों की दुनिया को एक तरफ जहां शिकरी समेट रहे हैं वहीं दूसरी तरफ वनक्षेत्रों से बाहर आने वाले बाघों को आतंकी या मानवभक्षी घोषित करके मौत के घाट उतार देना न समस्या का समाधान है और न ही यह बाघों के हित में है।

बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे-मोटे स्वार्थो के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी नेशनल पार्क का आरक्षित वनक्षेत्र हो या संरक्षित जंगल हो उनमें लगातार अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढ़ने पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असमान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है। मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिन्दा रखने के लिए खाने की जद्दोजेहाद नए सिरे से किसी परिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे। जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर-उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं।

इधर प्राकृतिक कारणों से जंगल के भीतर चारागाह भी सिमट गए अथवा वन विभाग के कर्मचारिययों की निजस्वार्थपरता से हुए कुप्रबंधन के कारण चारागाह ऊंची घास के मैदानों में बदल गए। परिणम स्वरूप वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आते हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी उनके साथ पीछे-पीछे बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में गन्ने के खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है। इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवोंके अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के प्राकृतिक वासस्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे, जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।