मंगलवार, 9 मार्च 2010

नारी तेरी यही कहानी आखों में नीर..........

नारी तेरी यही कहानी आखों में नीर..........

इक्कीसवीं सदी की कल्पना वाले भारत में महिला उत्थान के लिये चल रही तमाम
योजनाओं के बावजूद उत्तर प्रदेश मूल की ब्रजवासी जाति की महिलायें समाज
में उपेक्षित है ही साथ में औरतों व लड़कियों की खरीद-फरोख्त की परम्परा
भी इस जाति में बदस्तूर जारी है। इस कारण नाच-गाकर लोगो के मनोंरंजन का
साधन बनी ब्रजवासी महिलायें अशिक्षा व रूढ़वादिता की अंधेरी सुरंग
मेंजागरूकता के अभाव के कारण घुट-घुट कर जिन्दा रहने को विवश हैं। आजाद
भारत
में इस जाति की वेवश महिलाओं की दयनीय स्थिति महिला उत्थान के दावों की
पोल खोल रही है।
उल्लेखनीय है कि हिन्दुस्तान के पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को
पुरूषों के समान बराबर का दर्जा दिलाने के लिये सरकारी तौर पर तमाम
कार्यक्रम चलाये जा रहें हैं साथ ही साथ अनेक सामाजिक संगठन व महिला
संगठन प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं को अधिकार और सम्मान दिलाने के
लिये संघर्षरत हैं। किन्तु इनके क्रियाकलापों को अगर यर्थाथ के आइने में
देखा जाये तो इनके द्वारा किये जा रहे तमाम प्रयास ब्रजवासी जाति की
महिलाओं के लिये बेमानी और खोखले होकर रह गये हंै। परिवार को आजीविका
चलने में अहम व महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भी इस जाति की महिलाओं
को ‘दोयम दर्जा’ मिला ही है साथ में पति की प्रताड़ना तथा सभ्य समाज की
गालियां सुनना इनके किस्मत की नियति बन गई है।
ब्रजवासी जाति से सम्बन्धित की गई खोजबीन केेेेेेेेेेेेेेेेेेे बाद जो
कहानी उभरकर सामने आई है उसमें महिलाओं की दशा काफी दयनीय, निरीह एवं
अबला नारी वाली नजर आती है। मजे की बात तो यह है कि इनकी स्थिति में
परिवर्तन की किरण भरी दूर-दूर तक दिखायी नहीं देती है। प्राचीन परम्परा
को अपने भाग्य से जोडकर जीवन यापन करने वाली इस जाति की महिलायें
‘कठपुतली’ बनी पुरूषों की अंगुलियों के इशारे पर नाचने को विवश है।
स्पष्ट हुई कहानी के अनुसार मूलरूप से उत्तर प्रदेश के गोकुल (ब्रज)
क्षेत्र के निवासी होने के कारण कालान्तर में ‘ग्वाल’ जाति परिवर्ततन के
कई दौरों से गुजरने के बाद यह ग्वालजाति पूर्वजों की मातृभूमि के नाम पर
‘ब्रजवासी- जाति में तब्दील हो गई। ये ‘ब्रजवासी ग्वाल- प्राचीनकाल से ही
नाच-गाने के शौकीन रहे लेकिन उस समय परिवार में होने वाले उत्सवो में
महिलायें व पुरूष नाच-गा कर अपना मनोरंजन किया करते थे। बदलते परिवेश के
साथ ही गरीब होने के कारण ब्रजवासियों ने नाच-गाना को आजीविका से जोड़कर
वर्षो पूर्व समाज में अन्य लोगो का मनोरंजन करना शुरू कर दिया था। बताया
गया कि ब्रिटिश शासन काल में इनका विखराव शुरू हुआ तो यह लोग गोकुल से
अपना-अपना परिवार लेकर अलग-अलग स्थानों पर ‘ब्रजवासी जाति’ के नाम पर
आबाद होते चले गये। चूकिं जीविका का कोई अन्य साधन नहीं था इसलिये इनकी
महिलाओं ने नाच-गाने को पेशा बनाकर कर लोगो का मनोरंजन करने लगी। इस तरह
होने वाली आमदनी से परिवार को जीवन-पोषण का जरिया बन गया। वर्तमान में यह
स्थिति हो गई हे कि प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा जिला होगा जहां इस जाति के
परिवार न रहते हों और इस जाति की महिलायें आज भी नाच-गाकर परिवार का
भरण-पोषण कर रही हैं। निर्धनता और अभावों की जिन्दगी गुजारने के बाद भी
ब्रजवासी समाज ‘अनैतिकता’ के दलदल में धंसने से बचा हुआ है।
हिन्दू धर्म के सभी देवी देवताओं की पूजा-अर्जना करना तथा हिन्दुओं के
रीति-रिवाज व त्योहारों को मानने वाले ब्रजवासी समाज में लड़कों की
अपेक्षा लड़की के जन्म पर आज भी ज्यादा खुशी मनाई जाती है। किन्तु लड़के
को खानदान में बाप का नाम आगे बढ़ाने वाले ‘घर के चिराग- के रूप में
मान्यता मिली हुई है। इन ब्रजवासियों को अपनी बोलचाल की एक अलग भाषा
‘ग्वाली’ (फारसी) है जिसको केवल इसी जाति के लोग बोल और समझ सकते हैं
इसका इन्हें मुसीबत के समय काफी फायदा भी मिलता है। परम्परा में बाल
विवाह के बजाय इस जाति के लोग अमूमन पन्द्रह वर्ष की आयु पूर्ण करने से
पहले ही लड़के-लड़की का विवाह रस्मोरिवाज से कर देते हैं। बताया गया कि
इस जाति में दो प्रकार के धर्म विवाह एवं संविदा (कान्ट्रेक्ट) विवाह
प्रचलित है। धर्म विवाह में दहेज देने की प्रथा है और इस रीति से हुई
शादी के बाद लड़की नाच-गाने का पेशा अपनाने के बजाय घर-गृहस्थी का कार्य
करती है। अलबत्ता इनसे होने वाली औलादों को भविष्य में पेशा अपनाने की
पूरी आजादी रहती है। इस रीति के विपरीत संविदा विवाह में वर पक्ष के लोग
प्रथा के अनुसार तयसुदा धन लड़की के परिजनों को देकर विवाह की रस्म पूरी
की जाती है। गौरतलब है कि धर्म विवाह में जहां छुटौती (तलाक) की गुजांईश
काफी कम होती है वही संविदा रीति से किये गये विवाह में विवाद होने की
स्थिति में छुटौती (तलाक) करने पर पति द्वारा शादी से पूर्व पत्नी के
परिजनों को दी गई रकम व लिया गया दहेज पत्नी को वापस करना पड़ता है।
किन्तु इस मध्य हुये बच्चे पिता के संरक्षण में दे दिये जाते हंै। यह
कार्य बिन किसी लिखा-पढ़ी के पंचायत द्वारा किया जाता है। तलाकसुदा औरत
से पुर्नविवाह करने वाला व्यक्ति उस औरत की तय की गई ‘रकम’ उसके
परिवारजनों को अदा करके खानापूर्ति के तौर पर साधारण समारोह करके ब्याह
लाता है। इस तरह खरीद कर लायी गई औरत को ताजिन्दगी नाच-गाने का पेशा करना
पड़ता है और इसके द्वारा कमाई गई रकम से वह व्यक्ति उसके परिजनों को दी
गई रकम की भरपाई करने के साथ ही परिवार का खर्चा भी चलाता है। इस जाति की
सबसे खास बात यह है कि कुंवारी लड़कियों से नाच-गाने का पेशा नही कराया
जाता है और न ही इसकी उनको तालीम दिलायी जाती है। केवल संविदा रीति से
ब्याही गई औरतें ससुराल में तालीम (नाच-गाना सीखना) हासिल कर इस पेशे को
अपनाती है।
आजाद भारत में ब्रजवासी समाज के भीतर औरतों की खरीद-फरोख्त की प्राचीन
कुरीति को अगर नजरन्दांज कर दिया जाये तो भी इस समाज में तमाम कुरितियां
मौजूद हैं जिसके कारण महिलाओं की स्थिति काफी दयनीय व भयावह बनी हुई है।
परम्पराओं और रूढ़ियों के बीच पली बढ़ी इस समाज की अधिकांश लड़कियां व
महिलायें अशिक्षित ‘अगूठाछाप’ हैं। इस कारण वे न जागरूक हैं और न ही अपने
अधिकारों से परिचित हैं और न ही वे महिला संरक्षण के कानूनों को जानती है
परिणामरूवरूप वे आज भी उपेक्षित और शोषित की जा रही हैं। जबकि अशिक्षा के
चलते पुरूष शराब आदि मादक पदार्थो के चुंगल में फंसे हुये हैं। इस कारण
पति-पत्नी में मारपीट, पारिवारिक कलह एवं अन्य लड़ाई-झगड़े करना इन
ब्रजवासियों में रोजमर्रा की जिन्दगी में शामिल हो गया है।
गौरतलब है कि पेट की आग शान्त करने के लिये दूसरों का मनोरंजन कर पैसे
कमाने की होड़ में शामिल ब्रजवासी परिवार के लोग बच्चों की परवरिश वाजिब
ढ़ग से नही कर पाते हैं । इनके बच्चे बाल उम्र में पढ़ने-लिखने के बजाय
बचपन से ही कुसंगतिमें फंसकर अपना भविष्य अंधकारमय बना लेते हैं। बचपन से
ही पान, बीड़ी, सिगरेट, शराब पीने की आदत पड़ जाने से तरह-तरह की
बीमारियां इन्हें पूरी जिन्दगी परेशान करती रहती हैं। कमोवेश यही स्थिति
लड़कियों की भी रहती है। शासन, प्रशासन व समाज से उपेक्षा पाने के कारण
सरकार द्वारा बाल विकास व उत्थान के लिये चलाये जा रहे तमाम योजनाओं एवं
कार्यक्रमों का लाभ ब्रजवासियों के बच्चों को नही मिल पाता है। जिससे ये
बच्चे नाच-गाने के उसी माहौल में बचपन से रम जाते हैं और बढ़ती उम्र के
साथ पुस्तैनी धन्धा अपनाकर आजीविका चलाने लगते है।
उल्लेखनीय है कि नाच-गाने का पुस्तैनी धंधा अपनाये ब्रजवासी औरतों के
लिये इसे उनके भाग्य की विडम्बना ही कही जायेगी कि मांगलिक अवसर हो या
फिर नाटक-नौटंकी अथवा डांस पार्टियां या अन्य कोई सुखद अवसर सभी में इन
औरतों द्वारा दुःखों को बनावटी मुस्कान के पीछे छिपाकर कार्यक्रम पेश
किये जाते हंै। नाच-गानों के कार्यक्रमों में समाज के ‘कुलीन व्यक्ति’
इनसे बिजली की चकाचांैध रोशनी में भरपूर मनोरंजन करते हैं। मजे की बात तो
यह है कि समाज के इन्ही ‘कुलीन व्यक्तियों’ ने ही ब्रजवासी महिलाओं को
‘तवायफ’ और ‘रण्डी’ जैसे अपमानजनक नाम दिये हैं। जिसके कारण ये महिलायें
आज भी ‘सभ्य समाज’ में हिकारत की दृष्टि से देखी जाती हंै। इसके विपरीत
इसी समाज को यथार्थ के आइने में देखा जाये तो उच्च जातियों की लड़कियां
एवं औरतें स्टेजशो अथवा आर्केस्ट्रा ग्रुपों के माध्यम से जो डांस व
गानों के कार्यक्रम पेश करती हैं उनमें ये लड़कियां इन ब्रजवासी औरतों की
अपेक्षाकृत ज्यादा ही खुला प्रर्दशन कर वाहवाही लूटती है इनको ‘कलाकार’
जैसे शब्द से नवाजा गया है।
बातचीत में समाज द्वारा स्थापित किये गये उपरोक्ब्त दोहरे मापदण्ड पर
आक्रोश जाहिर करते श्रीमती श्रृद्धादेवी कहती हैं कि हम ब्रजवासिनी एक
सीमति दायरे में रहकर अपनी कला का प्रदर्शन करके लोगो का दूर से नाच-गाकर
मनोरंजन करते हैं। किन्तु कुलीन कलाकारों ने तो सभी सीमायें तोड़ दी हंै
और फिल्मी कलाकारों की दुनिया तो हम लोगों के समाज से ज्यादा काली है।
फिर यह सम्य कहा जाने वाला समाज हम लोगो के साथ ऐसा दोहरा बर्ताव क्यों
कर रहा है? श्रीमती श्रृद्धा देवी के इस कटाक्षपूर्ण अनुत्तरित प्रश्न पर
सामाजिक संस्थाओं एवं महिला संगठनों को एक बार फिर गहराई से मन्न और
विचार करके सार्थक प्रयास भी करने होगें तभी ब्रजवासी जाति की दवी-कुचली
महिलाओं को उनका हक न्याय व समाज में इज्जत और सम्मान के साथ जीने का
मौका मिल पायेगा।
बहरहाल दीनदुनिया की तरक्की से बेखबर और समाज से उपेक्षित रहते हुये भी
भाग्य की नियति मानकर नाच-गाने का पेशा अपनाकर जीवन यापन करने वाली
ब्रजवासी महिलायें समाज की गालियां, पति की प्रताड़नाऐं खुशी-खुशी सहन
करती ही हंै और अपने गमों को भुलाकर कठपुतली की भांति पुरूषों की
अगुलियों के इशारे पर नाच-गाकर लोगों का मनोंरंजन करने में मगशूल रहती
हैं ।