मंगलवार, 7 सितंबर 2010

हिन्दुस्तानियों के सीने पर सेना की गोलियां

उत्तर प्रदेश तथा उत्तरांचल की भारत-नेपाल सीमा पर होने वाली तस्करी, वन कटान, अवैध वन्यजीव शिकार, आईएसआई की सक्रियता तथा आतंकवादी एवं विदेशी घुसपैठ आदि को रोकने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पैरा मिलिट्री फोर्स सीमा सशस्त्र बल को तैनात किया गया है। सीमा सशस्त्र बल यानी एसएसबी के जवान अपने मूल उद्देश्यों व कार्यों से भटक कर भौतिक सुखों की खातिर आमजनता का बेवजह उत्पीड़न एवं आर्थिक शोषण करने से परहेज नहीं करते हैं और सीधे बंदूक की भाषा में बात करने लगे हैं।
इसी का परिणाम है खीरी जिले के ग्राम त्रिकोलिया में जवानों द्वारा किया गया हिंसक तांडव एवं हत्याकांड, जिसमें दो निरीह बेगुनाह ग्रामीण मारे गए। निरंकुश जवानों के द्वारा आम जनता के साथ किये जाने वाले अनेक तरह के अत्याचारों और शोषण के विरोध में सीमावर्ती गांवों में उनके बीच बढ़ते तनाव से युवाओं के मन में विरोध की आग सुलगने लगी है, जिसकी परिणीत नक्सलवाद या आतंकवाद अथवा हथियारबंद बिरोध के रूप में कभी भी हो सकती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। यद्यपि त्रिकोलिया काण्ड के मद्देनजर यूपी की सरकार ने सीमावर्ती क्षेत्रों में दिनोंदिन जवानों और ग्रामीणों के बीच बढ़ रहे तनावों और संघर्षों की रोकथाम के लिए भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत मिले एस0एस0बी0 के पुलिस अधिकारों में कटौती किये जाने का प्रस्ताव पुनः केन्द्र सरकार को भेजा है।
2 अगस्त 2010 को एसएसबी की वर्दी तब शर्मसार हो गई जब जवानों ने मामूली विवाद से रोष में आकर दो बेगुनाह ग्रामीणों की गोली मारकर हत्या कर दी। घटना खीरी जिले के ग्राम त्रिकोलिया की है, विवाद सिर्फ इतना था कि सड़क पर साइड न मिलने से एक गाड़ी का पीछा करते हुए एसएसबी के जवान अपने डिप्टी कंमाडेंट के निर्देश पर पूर्व विधायक निरवेन्द्र कुमार ‘मुन्ना‘ के आवास पर पहुंच गए। जहां पर जवानों ने जनप्रतितिनिधि रहे पूर्व विधायक के साथ अभद्रता ही नहीं की वरन् उनको डंडा भी मार दिया। इससे आक्रोशित ग्रामीणों ने जवानों को रोक लिया। इनकी सूचना पर त्रिकोलिया पहुंचे दर्जनों बेलगाम जवानों ने बिना किसी से बात किए लाठीचार्ज का तांडव शुरू कर दिया। उनके द्वारा नियम-कायदों को ताक पर रखकर ग्रामीणों पर बरसाई गई गोलियों से तमाशबीन रहे बेगुनाह गरीब युवक पाइया और बदरूद्दीन की मौत हो गई। इस पूरे घटनाक्रम में भी यह बात उभर कर आई कि यदि एसएसबी के अधिकारी संयम बरत कर समझदारी से परिस्थितियों का आंकलन करते और सिविल पुलिस के सहयोग से कानूनी कार्यवाही करते तो शायद बेवजह हुई दो युवकों की अकाल मौत को टाला जा सकता था।
निरंकुश जवानों द्वारा किया जाने वाला यह हिंसक तांडव कोई पहली घटना नहीं है। सन् 2001 से ही इस फोर्स ने अपनी तैनाती के बाद से भारत-नेपाल सीमावर्ती क्षेत्रों के आदिवासियों तथा अन्य निवासियों पर अत्याचार शुरू कर दिया था। हिंसक घटनाओं के अलावा भारत-नेपाल सीमावर्ती ग्रामीणों के साथ किए जाने वाले बेवजह उत्पीड़न, अत्याचार, आर्थिक शोषण और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ एवं यौन शोषण आदि के विरोध में जवानों तथा ग्रामीणों के बीच टकराव की अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं। जिनमें पुलिस एवं जिला प्रशासन को कानून व्यवस्था को बनाए रखने में काफी मसक्कत करनी पड़ी। यहां तक मामले को रफा-दफा करने के लिए एसएसबी अधिकारियों को सार्वजनिक माफी तक मांगकर शर्मिदंगी भी झेलनी पड़ी। एसएसबी के जवानों द्वारा अपने ही हिंदुस्तनी भाईयों के सीनों पर ही चलाई जा रही गोलियां अगर तस्करों, आतंकवादी, विदेशी घुसपैठियों अथवा भारतीय वन संपदा को बचाने के लिए चलाई जातीं तो आमजनता के बीच विलेन बन रहे एसएसबी के जवानों का रूप हीरो का होता और वाह-वाही तथा सम्मान मिलता अलग से ।
भारत-नेपाल की खुली सीमा दुधवा नेशनल पार्क के जंगल से सटी है, इसलिए सीमाई इलाकों से वन कटान तथा वन्यजीवों के अंगों का अवैध कारोबार एवं तस्करी का गैर कानूनी कार्य एसएसबी एवं बन विभाग और तस्करों की हुई जुगलबंदी के बीच निर्वाध रूप से चल रहा है। यह अवैध गोरखधंधा उजागर न हो जाए इसलिए भी आतंक फैलाकर ग्रामीणों को भयभीत किया जा रहा है, ताकि वह उनके खिलाफ अपना मुंह न खेल सकें। जबकि राष्टृीय सुरक्षा से जुड़ी इस फोर्स का यह आचरण कतई शोभनीय नहीं है। एसएसबी के जवानों के कुकृत्यों से केंद्र सरकार की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। फोर्स कोई भी हो उसका काम यह नहीं है कि वह आम जनता को तंग और परेशान करे। जनता की सुरक्षा के लिए सीमापर लगाई गई फोर्स आज उनकी सुरक्षा के लिए ही सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। खीरी जिले के ही नहीं वरन यूपी के अन्य सीमावर्ती ग्रामीणांचल समेत उत्तरांचल के सीमाई इलाकों की जनता भी इनके अशोभनीय व्यवहार और कुकृत्यों से त्रस्त हैं। इसके चलते भारत-नेपाल सीमा पर एसएसबी की मौजूदगी पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।
भारत-नेपाल सीमा पर एसएसबी के लगभग दस साल के क्षेत्रीय इतिहास में कोई अहम व उल्लेखनीय उपलब्धि तो उसके खाते में दर्ज नहीं हो सकी है। जिसमें जवानों को वाहवाही मिली हो, जबकि वर्दी पर बदनुमा दाग तमाम लग चुके हैं। यद्यपि एसएसबी द्वारा जनता का सहयोग पाने तथा परस्पर प्रेम बढ़ाकर सीमा पर शांति कायम रखने के उद्देश्य से सीमावर्ती गांवों में सद्भावना जागरूकता अभियान समय-समय पर चलाए जाते हैं। बावजूद इसके उनके तथा जनता के बीच दूरियां लगातार बढ़ ही रही हैं और जो थोड़ी बहुत शान्ति थी वह भी पूरी तरह से भंग हो चुकी है। आजाद भारत में अंग्रेजी शासन वाले फोर्स की तरह एसएसबी के जवान सीमा पर हुकूमत कर रहें हैं। जबकि फोर्स कोई भी हो उसका उद्देश्य होता है कि संयम से काम लेते हुए बिपरीत परिस्थितियों का आंकलन करके समस्या का निराकरण करना। इसके बजाय जवान अमानवीय व हिंसक तरीका अपनाते हैं जिससे संघर्ष और टकराव बढ़ने लगा है। जबकि कैसी भी विषम एवं विपरीत परिस्थितियां हों उसमें हलका-फुलका बल प्रयोग तो जायज हो सकता है, परंतु गोली चला देना कम से कम अंतिम निर्णय तो कतई नहीं होना चाहिए। क्योंकि आक्रोशित जनता ने भी अगर अत्याचार और शोषण का जवाब हथियारबंद टकराव से देना शुरू कर दिया तो स्थिति और भयावह हो सकती है।
इतिहास गवाह है कि फोर्स कोई भी हो अथवा सरकारी तन्त्र, जिसने जब भी गरीब आम जनता पर अकारण अत्याचार किया तो उसके विरोध में पैदा हुआ है आतंकवाद एवं नक्सलवाद। झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल या जम्मू-कश्मीर आदि प्रान्त हों उनमें सरकारी तंत्र की अन्यायपूर्ण व्यवस्था और सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले बेवजह अत्याचार के बिरोध में जड़ जमा चुका नक्सलवाद या फिर आतंकवाद इसी का परिणाम है। यूपी के बिहार से सटे कुछ जिलों में नक्सलवाद अपना सिर उठाने भी लगा है। यह विकट समस्या इस शांतिपूर्ण तराई क्षेत्र में भी पनप सकती है क्योंकि यहां भी एसएसबी के जवान अपने ही हिन्दुस्तानी भाईयों के सीनो पर बेवजह गोलियां दाग रहे हैं। इससे क्षेत्रीय युवाओं के मन में अत्याचार और शोषण के खिलाफ सुलग रही बिरोध की आग को पहचान कर अगर नक्सली नेताओं ने यहां आकर हवा दे दी तो यह शांत इलाका भी नक्सलवाद की चपेट में आकर आतंकवाद को पैदा कर सकता है। क्योंकि यह तराई इलाका पूर्व में 80-90 के दशक में नेक्सलाइट मूवमेंट और सिक्ख आतंकवाद का प्रमुख पनाहगाह रह चुका है। ऐसी बन रही पस्थितियों से निपटने के लिए आवश्यक हो गया है कि फोर्स कोई भी हो उसके जवानों को विपरीत परिस्थितियों में भी संयम बरतने का प्रशिक्षण दिए जाने के साथ ही उनको मानवाधिकारों का भी पाठ पढ़ाया जाए। इसके अतिरिक्त घटनाओं में दोषी पाए जाने वाले जवानों को सख्ती से दण्डित किया जाए, जिससे अन्य जवान भी उससे सबक हासिल करें और वह बेवजह किसी निर्दोश नागरिक पर गोली चलाने की हिम्मत न जुटा सकें। तभी सीमा पर सुरक्षा बलों एवं जनता के बीच बढ़ रही अविश्वास की खाइयों को पाटा जा सकता है और पूरी तरह से शांति कायम हो सकती है।

सोमवार, 6 सितंबर 2010

आखिर जंगल से बाहर क्यों आते है बाघ ?

पीलीभीत के जंगलों से निकल वाया शाहजहांपुर "खीरी" पहुंचा बाघ
अक्सर जंगलों में शिकार की कमी के चलते ये जंगल का राजा मजबूरन अपना रुख बदलता है मानव आबादी की तरफ, दरअसल बाघ जब जंगल बदलने की कोशिश करता है तब मानव-और बाघ में टकराव की स्थित लामुहाला उत्पन्न होती है, जंगलों की नष्ट हुई श्रंखलाये इसका कारण बनती है अब बाघ को क्या मालूम कुछ ही कदमों पर ये जंगल ख़त्म हो जायेगें और आदिम बस्ती और उसके खेत खलिहानों में आदमी और उसके जानवरों से उसे बावस्ता होना पड़ेगा! आखिरकार ये जंगल खोजता खोजता भटक जाता है इन्सान के बनाये माया जाल में! जहां या तो उसकी मौत हो जाती है, या कैद ! एक रात में बीसों मील यात्रा कर लेने वाले इस जानवर को अब इतने विशाल जंगल नसीब नहीं है वजह साफ़ है कि विकास के नाम पर इन श्रंखलाबद्ध जंगलों को हमने तबाह कर दिया नतीजा हमारे सामने है! -Man-animal conflict! -Moderator

बिल्ली प्रजाति का अतिबलशाली ‘बाघ’ जन्म से हिंस्रक और खूंखार होता है, लेकिन मानवभक्षी नहीं होता है। इंसानों से डरने वाले वनराज बाघ को मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं। जब कभी बाहुल्य क्षेत्रफल में जंगल थे तब मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहे, समय बदला और आबादी बढ़ी फिर किया जाने लगा वनों का अंधाधुन्ध विनाश।



जिसका परिणाम यह निकला कि जंगलों का दायरा सिमटने लगा, वन्यजीव बाहर भागे और उसके बाद शुरू हुआ न खत्म होने वाला मानव और वन्यपशुओं के बीच का संघर्ष। इसी का परिणाम है कि पिछले तीन सालों में जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से निकले बाघों के द्वारा खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद तक दो दर्जन के आसपास मानव मारे जा चुके हैं। इसमें दो बाघों को गोली मारी गयी। जबकि एक बाघ को पकड़कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेजा जा चुका है। अब एक बार फिर पिछले पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ आठ मनुष्यों को अपना निवाला बना चुका है। उसे पकड़ने की कवायद वन विभाग द्वारा की जा रही है।



दुधवा टाइगर रिजर्व परिक्षेत्र में शामिल किशनपुर वनपशु विहार, पीलीभीत और शाहजहांपुर के जंगल आपस में सटे हैं। गांवों की बस्तियां और कृषि भूमि जंगल के समीप हैं। जिससे मानव आबादी का दबाव जंगलों पर बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते विभिन्न परितंत्रों के बीच एक ऐसा त्रिकोण बनता है जहां ग्रामवासियों और वनपशुओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाना ही है। भौगोलिक परिस्थितियों के चलते बनने वाला त्रिकोण परिक्षेत्र दुर्घटना जोन बन गया है। सन् 2007 में किशनुपर परिक्षेत्र में आबाद गावों में आधा दर्जन मानव हत्याएं करने वाली बाघिन को मृत्यु दण्ड देकर गोली मार दी गयी थी। इसके बाद नवंबर 2008 में पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी होते हुए सूबे की राजधानी लखनऊ की सीमा तक पहुंच गया था। इस दौरान बाघ द्वारा एक दर्जन ग्रामीणों का शिकार किया गया। बाद में इस आतंकी बाघ को नरभक्षी घोषित करके फैजाबाद के पास गोली मारकर मौत दे दी गयी थी। सन् 2009 के शुरूआती माह जनवरी में किशनपुर एवं नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन के क्षेत्र में जंगल से बाहर आये बाघ ने चार मानव हत्याएं करने के साथ ही कई पालतू पशुओं का शिकार भी किया। इस पर हुई काफी मशक्कत के बाद बाघ को पिंजरें में कैद कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। अब सन् 2010 में एक बार फिर पिछले माह पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर में मानव का शिकार कर रहा है। इसके द्वारा आठ ग्रामीण मौत के घाट उतारे जा चुके हैं।



इसके आतंक से ग्रामीणों में दहशत फैली है और वन विभाग बाघ को पिंजरे में कैद करने के लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। जन्म से खूंखार होने के बाद भी विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है।



मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां बिवश करती हैं। विश्वविख्यात बाघ विशेषज्ञ जिम कार्बेट का भी कहना है कि बाघ बूढ़ा होकर लाचार हो जाये अथवा जख्मी होने से उसके दांत, पंजा, नाखून टूट गये हो या फिर प्राकृतिक या मानवजनित उसके विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हों, तभी बाघ मानव पर अटैक करता है। उनका यह भी मानना था कि जन्म से खार होने के बाद भी बाघ मानव पर एक अदृश्य डर के कारण हमला नहीं करता और यह भी कोई जरूरी नहीं है कि नरभक्षी बाघ के बच्चे भी नरभक्षी हो जायें।



बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे-मोटे स्वार्थो के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढ़ने पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असमान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है।



मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिन्दा रखने के लिए खाने की जद्दोजेहाद नए सिरे से किसी परिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे। जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर-उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं। इधर प्राकृतिक कारणों से चारागाह भी सिमट गए या कुप्रबंधन के कारण वे ऊंची घास के मैदानों में बदल गए। इसके कारण वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आते हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में गन्ने के खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है। इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवोंके अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के प्राकृतिक वासस्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे, जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।

गजराज क्यों भटक रहे हैं ?


भारत में पूज्य माने जाने वाले 'गजराज' को अपने अस्तित्व के लिए आजकल एक नई लड़ाई लड़नी पड़ रही है। उनके शिकार, घटते जंगल और आहार में कमी और उससे भी ज्यादा इनकी आए दिन मनुष्य के साथ मुठभेड़ या गुस्से में इनका उपद्रव इनके लिए बड़ी मुसीबत बनता जा रहा है। कहीं इनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है तो कहीं बढ़ रही है। वन्य पशुओं के आने-जाने के रास्ते पर बढ़ते अतिक्रमण के चलते रोजमर्रा के टकराव की कीमत दूसरे वन्यजीवों को भी चुकानी पड़ती है।


पिछले कुछ सालों से भारत सरकार को पूर्वोत्तर के पड़ोसी देशों एवं लोगों से अपील करनी पड़ रही है कि उनके गांवों-खेतों में गलती से घुस आए हाथियों की हत्या न की जाए। प्रजनन, मौसम की मार से बचने और खाने की तलाश में वन्य जीव हर साल एक निश्चित अवधि या मौसम में एक इलाके से दूसरे इलाके की ओर जाते हैं। इस प्रक्रिया को आव्रजन कहा जाता है। ये हाथी हर साल थाईलैंड से भूटान की तराई में जाते हैं, जिसके बीच पूर्वोत्तर भारत का हिस्सा पड़ता है। हर साल ये हाथी रास्ते में आने वाले कई गांव उजाड़कर कई लोगों को मार देते हैं और कई लोग इन मुठभेड़ों में घायल भी हो जाते हैं। टकराव के रास्ते समस्या यह है कि जंगल में बने हाथियों के प्राचीन रास्तों पर लोगों ने गांव बसा लिए हैं, जिस वजह से हाथी भारत वापस जाने के लिए अपना रास्ता नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं और भटक कर हिंसक हो रहे हैं।

ये हाथी थाईलैंड से भूटान की ओर आते हैं और भारत का पूर्वोत्तर हिस्सा उनके रास्ते में पड़ता है। मगर अधिकारियों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में हाथियों की संख्या बढ़ी है। इसी वजह से हाथी अलग-अलग रास्तों से जंगलों में घुसने की कोशिश करते हैं। यह समस्या सिर्फ बांग्लादेश, थाईलैंड या भूटान की ही नहीं, बल्कि भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की भी है। सिर्फ असम में ही पिछले 15 वर्षों में हाथियों ने 600 से अधिक लोगों की जान ली है। पूर्वोत्तर भारत में जंगली हाथी अच्छी-खासी संख्या में पाए जाते हैं और अकेले असम में इनकी संख्या पांच हज़ार से अधिक बताई जाती है। जैसे-जैसे असम में लोगों की आबादी बढ़ती गई, लोगों ने ऐसे इलाकों में पांव पसारने शुरू कर दिए, जो हाथियों के आने-जाने के रास्ते थे। नतीजतन हाथी उनके रास्ते में आने वाले गांवों में तबाही मचा देते हैं, जिसका उन्हें अपनी जान देकर ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हाथियों के उपद्रव से भड़के लोग इन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं और कभी गुड़ में जहर रखकर तो कभी शिकारियों को बुलाकर हाथियों की जान ले लेते हैं।

हाथी एक सामाजिक प्राणी है और झुंड बनाकर रहता है। यह प्राणी काफी संवेदनशील होता है। जानवरों में हाथी की याददाश्त काफी तेज मानी जाती है, यहां तक कि अपने झुंड़ के किसी सदस्य के मारे जाने पर अकसर हाथी गुस्से में आकर तबाही मचा देते हैं। सैटेलाइट से मिली तस्वीरें ताजे अध्ययनों में बताती हैं कि असम में 1996 से 2006 के बीच जंगल की लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन पर गांव वालों ने अतिक्रमण कर आबादी बसाकर खेती-बाड़ी शुरू कर दी है। अब जरूरत है ऐसे उपायों की जिनसे मनुष्य की हाथियों से मुठभेड़ को टाला जा सके। हाथियों के अकसर आबादी वाले इलाके में घुसने से जानमाल का बड़ा नुकसान भी होता है, पर इस घुसपैठ का कारण ढूंढ़ने के लिए, पहले ये सोचना होगा कि हाथी हमारे इलाकों में घुस आए हैं या फिर हम ही उनके इलाके में घुस गए हैं।

असम में जंगली हाथियों के नियंत्रण के लिए 'कुंकी' नाम से जाने, जाने वाले पालतू हाथियों की मदद ली जा रही है। असम और पश्चिम बंगाल के बहुत से इलाकों में अकसर उग्र हाथियों के झुंड खेतों, गांवों और लोगों पर हमला कर भारी तबाही मचाते हैं। विशेषज्ञों ने उग्र हाथियों को पालतू हाथियों के जरिये घेरकर उन्हें रास्ते पर लाने की कोशिश की है। इसके नतीजे भी सार्थक निकले हैं। सबसे अधिक प्रभावित इलाकों में इस रणनीति को अपनाया गया, वहां हाथियों की हिंसा से मरने वालों की संख्या में आश्चर्यजनक रुप से कमी हुई है। इस परियोजना के अधिकारी जंगली हाथियों के झुंड की गतिविधियों पर नजर रखते हैं और उनको पालतू हाथियों से घेरकर गांव से दूर रखते हैं। इस योजना को वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड से भी मदद हासिल है। हाथियों को भगाने के क्रूर पारम्परिक तरीकों जैसे करंट लगाना, फन्दे कसना और बम फोड़ना आदि से यह रणनीति काफी कारगर सिद्ध हुई है और वन्यजीव प्रेमी भी इस पहल से उत्साहित हैं।

हाथियों की बढ़ती समस्या के बाद भारत में अब कोशिश की जा रही हैं कि दो जंगलों के बीच एक गलियारा विकसित कर उसका संरक्षण किया जा सके। सुरक्षित रास्ता देने के लिए हाथियों के गलियारे पर तैयार की गई रिपोर्ट पर लगभग सभी बड़े विशेषज्ञों की राय ली गई थी और उम्मीद है कि इससे हाथियों को जंगलों में ही रोकना संभव होगा और उनके आबादी वाले इलाकों में घुसने की घटनाओं में कमी आएगी। भारत में ऐसे 88 गलियारों की पहचान की गई है और उन पर कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं सरकार के साथ मिलकर काम भी कर रही हैं, पर भारत में वन्यजीवों के रहवास के लिए किए जा रहे सभी प्रयासों में एक समस्या मुंह बाए खड़ी रहती है, वह है बढ़ती जनसंख्या। लगातार बढ़ती जनसंख्या और जंगल पर बढ़ते दबाव ने पिछले कुछ दशकों में हाथियों की समस्या को बढ़ाया है। इसके लिए देखना होगा कि हाथी दो जंगलों के बीच जिन इलाकों का उपयोग ऐतिहासिक रूप से करते रहे हैं, वहां कितने गांव हैं, आबादी का कितना घनत्व है इत्यादि।

दरअसल यही वो इलाके हैं जिन्हें विशेषज्ञ कॉरिडोर कहते हैं और इनके बंद हो जाने के कारण हाथियों ने मानव रहवासी क्षेत्रों में घुसपैठ कर मुसीबतें बढ़ा दी हैं। देश के विभिन्न राज्यों में स्थित इन गलियारों को अब हाथियों के आवागमन के लिए संरक्षित करने की कोशिश की जा रही है। इस योजना से वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, इंटरनेशनल फंड फॉर एनिमल वेलफेयर, यूएस विश एंड वेलफेयर सर्विस और एशियन नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन जुड़े हैं। इसके अलावा गलियारों के संरक्षणों के लिए केंद्र और राज्य सरकार की भी सहायता ली जा रही है। अब उम्मीद यही है कि इन गलियारों को 'राजकीय गलियारा' घोषित कर दिया जाए और लोगों को जानकारी दी जाए कि इन इलाकों में विकास कार्य नहीं किए जा सकते। अब ऐसे इलाकों में लोगों को सिर्फ हाथियों से बचना ही नहीं है, हाथियों को बचाना भी जरूरी है। यह जागरूकता प्राकृतिक संतुलन कायम करने के लिए सबसे जरूरी है।