शनिवार, 30 जनवरी 2010

आजाद हुआ सुरमा


आदिवासी ग्राम सुरमा में वनाधिकार कानून के तहत मिली  आजादी






हिन्दुस्तान की आजादी के 62 वर्ष बाद उत्तर प्रदेश के जनपद खीरी स्थित दुधवा नेशनल पार्क के कोर जोन में बसा आदिवासी जनजाति थारू क्षेत्र के ग्राम को पिछले 33 साल से अपने वजूद को बचाने के लिये जद्दोजहद कर रहे सुरमा गांव को आखिर आजादी मिल ही गई। यह आजादी भी देश में लागू किये गये वनाधिकारी अधिनियम के तहत हासिल हुई है। इससे पूर्व जंगलात के कानून एवं वन विभाग कर्मचारियों द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न एवं शोषण से मिल रही मुक्ति से ग्रामीणो में खासा उत्साह देखा जा रहा है।

रविवार, 10 जनवरी 2010

अपने घर में सुरक्षित नही रहें बाघ





उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क की सीमा से सटे नार्थ खीरी वनक्षेत्र एवं उत्तराखंड के जिम कार्बेट नेशनल पार्क में एक-एक बाघ की जनवरी के प्रथम सप्ताह में हुई बाघों की अस्वाभाविक मौतों ने पूरे देश में खासी सनसनी फैला दी है यह भी तब हुआ है जब दुनिया भर के बाघो की दयनीय स्थिति पर विचार करने के लिये इस साल माह सितम्बर मे रूस विश्व शिखर वार्ता का आयोजन करने जा रहा है। जिसमें बाघ के सवाल पर दुनिया के केन्द्र में भारत इसलिये है क्योंकि संसार भर के जंगलों में मौजूद बाघों में 60 प्रतिशत बाघ भारत में रहते हैं। जंगल की शान बाघ पर संकट के बादल मड़रा रहे हैं। तमाम सरकारी, गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी बाघों की दुनिया सिमटती जा रही है। यदि यही क्रम रहा तो सम्भव है कि हमारी आने वाली पीढ़ी को बाघ के दर्शन किताबों या अजायबघरों में ही हो सकेगंें। बाघ जहां वनों के विनाश एवं राजा रजवाड़ों, नबावों मे शिकार के शौक का निशाना बना रहा वहीं आज अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में उसके शरीर के अवयवों की बढ़ती मांग भी विनाश का एक प्रमुख कारण है। कुल मिलाकर भारत में बाघों की घटती संख्या बेहद चिंता का विषय है।
आधुनिक सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के पूर्व ही बाघ एक धार्मिक तथा रहस्य मय संास्कृतिक प्रतीक के रूप मंे हमारी श्रृद्धा का प्रतीक रहा है। आधुनिक विज्ञान ने भी इस बात की पुष्टि की है कि हमारे पूर्वजों ने मानव तथा प्रकृति के सम्बन्धों के रूप मंें इस शक्तिशाली शिकारी जीव की संकल्पना केवल भावुकता से प्रेरित होकर नही की। हमारे प्राचीन ग्रंथो में तो वन्यजीवों की रक्षा का समुचित प्राविधान का उल्लेख है। धार्मिक अवस्थाओं से जोड़कर अनेक जीवों की युगो तक रक्षा की जाती रही है।
आखेट का रोंमांच, एशिया के कुछ एक देशो में बाघ के शरीर को अवयवों की बढ़ती मांग वन्यजीवों के व्यापार में मुनाफा, मानव द्वारा प्रकृति मंे स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रवृत्ति आदि ने जंगल का राजा कहे जाने वाले बाघ के अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है। सरकार द्वारा वन्यजीवों की सुरक्षा के लिये जहां बनाये गये प्राणि उद्यान एवं अभ्यारण्य मात्र दिखावा साबित हो रहे हैं, वहीं बाघों के संरक्षण के लिये राष्ट्रीय उद्यानों में चल रहा प्रोजेक्ट टाइगर भी असफलता एवं नाकामी के पर्याय बन गये हंै। सरकारी नीतियों एवं वन्य संरक्षण विभाग, वन विभाग बड़े पैमाने पर हो रहे बाघ के शिकार को रोकने में असमर्थ ही नजर आ रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि राजस्थान के सारिस्का राष्ट्रीय उद्यान एवं मध्य प्रदेश के पन्ना नेशनल पार्क से बाघ विलुप्त हो चुके हैं, जबकि बिहार के बाल्मीक नगर सेंक्चुरी से पिछले 05 साल के भीतर बाघों की संख्या 54 से घटकर 09 पर टिक गई है। उत्तराखंड के जिम कार्बेट नेशनल पार्क में भी आधा दशक पहले 150 से ऊपर रही बाघों की संख्या 100 के आस-पास पहुच गई है। कमोबेश यही स्थिति दुधवा नेशनल पार्क की भी है। यद्यपि पार्क प्रशासन यहां 106 बाघों के होने का दावा करता है। किन्तु अगर स्वर्गीय पद्मश्री अर्जन सिंह द्वारा कही गई बात को माना जाय तो दुधवा में केवल 03 दर्जन के आस-पास ही बाघ बचे हैं। 
भारत में बाघों को बचाने के लिये 17 प्रदेशो में 23 संरक्षित क्षेत्र बनाये गये हैं, जिसमें ताजा आकंडो के अनुसार 1,411 बाघों की उपस्थिति का दावा किया जा रहा है लेकिन इस पर भी तमाम संगठनों द्वारा उगलियां उठाई जा रही है। भारत में बाघो की दयनीय स्थिति को सुधारने के लिये वर्ष 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया गया, तब बाघों की संख्या दो हजार के आस-पास थी। जो वर्ष 2002 में बढ़कर तीन हजार छः सौ बाईस तक पहुच गई थी। यह भी तब सम्भव हुआ था जब पर्यावरण एवं वन्यजीव प्रेमी तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरागांधी व राजीव गांधी ने वन व बाघ को बचाने के लिये स्वयं दिलचस्पी दिखाई थी। उसके बाद एक बार फिर बाघांे का बेतहासा अवैध शिकार हुआ। राजस्थान का सारिस्का राष्ट्रीय उद्यान जब बाघों से खाली हो गया तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सारिस्का का भ्रमण करके देश में बाघों की घटती संख्या पर चिंता जाहिर की थी। इसके बाद जून 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की तीसरी बैठक हुई। जिसमें बाघों के संरक्षण हेतु राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण तथा वन्यजीवों से जुड़े अपराधांे को प्रभावी ढं़ग से रोकने के लिये राष्ट्रीय वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो के गठन का निर्णय लिया गया था। परन्तु केन्द्र सरकार द्वारा किये गये अबतक के प्रयास बाघ तक पहुंचते-पहुंचते भटक जाते हैं जिससे बाघो की दशा बद् से बद्तर होती जा रही है। इसका प्रमुख कारण है कि बाघों के प्राकृतिकवासों का अन्धाधुंध विनाश हुआ एवं कंकरीट के जंगलों की बेतहासा वृद्धि हुई, जिसमें मानव की बढ़ती आबादी व अनियंत्रित औद्योगिक विकास का भी योगदान है। बाघों के प्राकृतिक आवासों के निकट बस्तियां बसीं और बिना सोचे विचारें औद्योगिक गतिविधियों में विद्युत उत्पादन, उत्खनन आदि परियोजनाओं से पर्यावरण को क्षति पहुची है। जिससे बाघों के शरणगाह कम हुये। फलस्वरूप बाघ ऐसे स्थलों पर पहुच जाता है जहां उसका शिकार आसानी से हो जाता है। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं एवं मानवजनित समस्यों के कारण जंगल मे बाघ द्वारा खाये जाने वाला शिकार भी कम हुआ है। बाघों को बचाने के लिये सबसे पहले कोशिश जंगलों को बचाने की करनी होगी।
बाघो का शिकार एवं वन्यजीवों की तस्करी का धंधा पूरे विश्व में पनपा, मगर भारतीय बाघ के शिकार को प्रोत्साहन दिया है चीन, दक्षिण कोरिया, ताईवान, हांगकांग आदि दक्षिण एशिया के परम्परागत दवा के व्यापारियों ने। बाघों के अवयवों से कामोत्तेजक पदार्थो के बढ़ते प्रचलन नें बाघ के अवैध शिकार को भी गति दी है। इसके फलस्वरूप भारतीय बाघ के अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। बाघों के शिकार और घटती संख्या पर देश के पर्यावरण एवं वनराज्य मंत्री जयराम रमेश भी मान चुके है कि देश में बाघों का बड़े पैमाने पर शिकार हो रहा है और बाघों की खाल की तस्करी मादक द्रव्यों के बाद दूसरे नम्बर पर आती है। उन्होने यह भी माना है कि बाघों के संरक्षण का जिम्मा राज्य सरकारों पर नही छोड़ा जा सकता है।
भारत सहित दुनिया के 12 देशो मे पाया जाने वाला बाघ कहीं भी सुरक्षित नही है। इस गम्भीर स्थित में भी अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, भारत आदि 07 देशांें को बाघों की तस्करी के खिलाफ सामूहिक अभियान छेड़ने के लिये एक जुट किया था। लेकिन इस संदर्भ में भारत और चीन के बीच वर्ष 1995 में हुये प्रोटोकाल समझौते की विफलता को देखते हुये बाघों के शिकार से जुड़ी आंशकाएं तिरोहित नहीं होती हैं। वन्यजीवों से जुड़ी वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इण्डिया भी बाघों की संख्या में आई गिरावट के लिये तस्करी को सबसे बड़ी वजह मानता है। इसलिये देश को अपने बाघों के संरक्षण के लिये खुद चिंता करनी होगी। 
जंगल में जंगलराज है वन संरक्षण अधिनियम, वन्यजीव-जन्तु संरक्षण अधिनियम, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है। इसे केन्द्र एवं राज्य सरकारें नही रोक पाई हैं। विभिन्न योजनाओं के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन को बनी विशेषज्ञों की समिति की सिफारिशें अलमारियों में बन्द हैं। बाघ के भविष्य को बचाने के लिये वन्यजीव सरंक्षण से जुड़े वैज्ञानिकों के तकनीकी कौशल की भी निरन्तर उपेक्षा जारी है। केन्द्र और प्रदेशों की अफसरशाही केवल ऐसे आकड़ें तैयार करने में जुटी है जिससे विश्व को बताया जा सके कि बाघ सुरक्षित हैं। इसलिये शिकार की असली तस्वीर नहीं उभर पाती है। केन्द्र सरकार को इस बात का खतरा रहता है कि यदि शिकार की वास्तविक स्थिति का पता चल गया तो अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं और वन्यजीव संरक्षण के नाम पर मिल रही मदद समाप्त हो जायेगी।
आज समय की मांग है कि बाघ संरक्षण के लिये चल रहे प्रोजेक्ट टाइगर में पारदर्शिता लाई जाय एवं वन प्रबन्धन व वन्यजीव संरक्षण को अलग-अलग किया जाय तथा वनक्षेत्र के निकट रहने वाली जातियों का विश्वास पुनः हासिल किया जाय। जरूरी है कि जंगल और मानव के रिश्तांे को नई परिभाषा दी जाए। सरकार को चाहिये कि वह सुरक्षित क्षेत्रों एवं बाघ के प्राकृतिक आवास स्थलों के निकट रहने वाले लाखों लोगों को रोजगार की गारन्टी दे तथा प्राकृतिक संसाधनों में उनका अधिकार बरकरार रखा जाय। इन्हीं समन्वित प्रयासों से ही बाघ के अस्तित्व की रक्षा हो सकेगी। अन्यथा की दशा में वनराज बाघ किताबो के पन्नो में सिमट जायेगें।(लेखक वाइल्डलाईफर एवं पत्रकार है)



शनिवार, 9 जनवरी 2010

खीरी में बाघ मारा गया

                दुधवा नेशनल पार्क की सीमा से सटे नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन की पलिया रेंज के तहत पांच जनवरी को  परसपुर वन चौकी से २०० मीटर दूर ८-९ साल के बाघ का शव पाया गया. अनुमान है कि शिकारियों ने इस बाघ को बिजली के तारों में फाँस कर मारा होगा, वन विभाग ने इस घटना को छिपाने का भरसक प्रयास किया शायद इसी लिए रात २.०० बजे शव को पोस्टमार्टम के लिए आई.वी.आर.आई बरेली को भेज दिया.येसी क्या जरूरत थी कि शव को रात में ही भेजना जरूरी था ? विभागीय अफसर अब यह कहकर अपनी नाकामी छिपा रहें हैं कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद ही मौत के कारणों का पता लग पाएगा.  इससे पूर्व भी विगत साल इसी छेत्र में एक बाघ का शव पाया गया था. इस जंगलात में बाघों की चहलकदमी होती रही है इसके बाद भी इनकी सुरछा के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए गए ?  इससे लगता है कि वन महकमा बाघों की सुरछा में लगातार लापरवाही बरत रहा है. 
वन विभाग द्वारा इसी तरह बाघों की सुरछा में लापरवाही एवं उदासीनता बरती जाती रही तो खीरी के जंगलों से बाघ गायब हो जाएँगे. विभाग के आलाफसरों की जवाबदेही तय करके उनके खिलाफ कार्यवाही की जानी चाहिए .ताकि आने वाले दिनों में यहाँ के बाघों का भविष्य सुरछित रह सके.


रविवार, 3 जनवरी 2010

दुधवा के टाईगरों के रखवाले विली अब इतिहास बने

           दुधवा नेशनल पार्क के बाघों के रखवाले ही नहीं वरन यूपी के विश्व बिख्यात वन्यजीव प्रेमी पद्मश्री विली अर्जन सिंह २०१० के प्रथम दिन यानी ०१ जनवरी की रात ०९ बजे इस दुनिया से विदा लेकर स्वर्ग में अंतर्ध्यान हो गये. उनकी दुखद मौत की सूचना पर वन्यजीव प्रेमियों में शोक की लहर दौड़ गई. उनके साथ ही ईस्टमित्रों ने श्री विली के अंतिम दर्शन करके शोक सवेंदनाये ब्यक्त की . यह श्री विली के भाग्य की विडम्बना कही जाए या फिर शासन=प्रशासन की असवेद्न्सीनता कि कोई भी अधिकारी सही विली के आवास पर शाम तक झाँकने नहीं गया. इससे वन्यजीव प्रेमियों की भावनाओं को करारा झटका लगा है. 
             वैसे अगर यह कहा जाये तो विली के लिए यह बात भी बिलकुल सटीक बैठती है कि जंगल के बाघ को  बनराज कहा जाता है वह पूरी जिन्दगी अपना कुनबा बडाता है और  जब उसकी मौत होती है तो उसके करीब कोई नही होता है. यही हाल कुछ दुधवा के टाईगर यानी विली अर्जन सिंह के साथ हुआ. उनकी भी जब मौत हुई तो अंतिम घड़ी में श्री विली के पास उनका कोई अपना नही था यानी कोई सगा-सम्बन्धी. उनके करीब थे केवल उनके सेवादार, जो हमेशा उनके सुख-दुःख में साथ रहते थे. दुसरे करीबी मित्र थे उनके पास पास डब्ल्यू.डब्ल्यू. ऍफ़. के मुदित गुप्ता.हालाँकि श्री विली आजीवन कुंवारे रहे और अपना पूरा जीवन बाघों को बचाने में लगा दिया. वन्यजीवों से उन्हें बहुत लगाव था. श्री विली का  कहना था कि इस धरती पर अगर बाघ नही रहे तो मानव जीवन भी नही रहेगा दुनिया नस्ट हो जायेगी.      
           १५ अगस्त १९१७ को गोरखपुर में पैदा हुए विली अर्जन सिंह का पटियाला के राजघराने से ताल्लुक था सेना में कैप्टन की नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद उहोंने  आजादी से कुछेक साल पहले इस तराई छेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया. श्री विली का कहना था कि १२ साल की उम्र में एक बाघ को गोली मारी थी. उसके बाद केवल उन बाघों को ही गोली का निशाना बनाया जो नरभक्छी हो चुके थे. एक जमाने में मशहूर शिकारी रहे विली अर्जन सिंह की ख्याति बाघों के रखवाले के रूप में देश-विदेश तक फ़ैली. वन्यजीवों को सुरछा देने के लिए दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना में श्री विली का महत्वपूर्ण योगदान रहा. 
          इंग्लैड में एक पार्क से तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांघी को  मिली सायवेरियन प्रजाति की  बाघिन तारा को पालकर अंगुली पर नचाने वाले श्री विली अंतर रास्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए.हलाकि नरभक्छी होने पर तारा को गोली का निशाना बनाकर मौत दी गई थी.  उन्होंने हैरिएट और जूलियट नाम के दो तेदुआं भी पाले जो बड़े होकर जंगल में भाग गये थे. इनके पास एक कुतिया भी रही जिसे वह अत्यधिक प्यार करते थे. कुतिया और तारा एक साथ कटोरी में दूध पीतीं थी. 
          वन्यजीव की रखवाली में जीवन ब्यतीत करने वाले श्री विली को १९७३ में पद्मश्री, 2006 में पद्म भूषण, 2005 में पालगेटी, २००६ में यश भारती, तथा डब्ल्यू.डब्ल्यू. ऍफ़ से गोल्ड मैडल एवं एवीएन एमसेका लाईफ टाईम एचीवमेंट अवार्ड मिला. श्री विली ने बाघों की रहस्यमय दुनिया और उनके जीवन पर आधा दर्जन किताबें भी लिखी. श्री विली अरेबियन नाईट आदि उपन्यासों के भी शौक़ीन थे. उनके पुस्तकालय विश्व के मशहूर उपन्यासकारों की  दुर्लभ पुस्तकें भी मौजूद है. 
         विली अर्जन सिंह की  मौत के साथ ही दुधवा के बाघों का हितैषी ही नही वरन यूपी से वन्यजीवों के रछकों की कतार का शिरमौर पुरोधा का अंत हो गया है. जिसकी पूर्ति अब असम्भव है. उनका जीवन सघर्षशील रहा और वे हमेशा वन्यजीवों को बचाने में लगे रहे उनके कार्यों को न वन विभाग भुला पाएगा और न ही वन्यजीवप्रेमी.श्री विली की अंतिम इच्छा के अनुरूप उनके शव को टाईगर हैवन के प्रागण में सुपुर्दे-खाक किया गया, इस मौके पर वन विभाग के अफसर, डब्ल्यू डब्ल्यू ऍफ़ के अधिकारी, तमाम वन्य  जीवप्रेमी, नाते-रिश्तेदार, सेवादार, पत्रकार, गणमान्य नागरिक तथा प्रशासनिक व् पुलिस के स्थानीय अधिकारी तो मौजूद रहे.
दुधवा के टाईगरों के रखवाले विली अब इतिहास बने  

सुपुर्दे खाक हो गए विली अर्जन सिंह

दुधवा के बाघों के  हकों का हिमायती विली अर्जन सिंह आज दुनिया से विदा हो गये  







   उ. प्रदेश के प्रमुख वन संरछक वीके पटनायक 


                                 दुधवा के पूर्व उप निदेशक  पी. पी. सिंह आदि नागरिकों ने दी अंतिम विदाई 





                         दुधवा नेशनल पार्क के प्रवेश द्वार पहुंची शवयात्रा को पार्क कर्मचारियों ने दी सलामी 


                                                                      
                                                                   अंतिम दर्शन 





                                                    
                                       सुपुर्दे खाक हो गए विली अर्जन सिंह 



                                                                  रह गई केवल यादें


                                                                  
                                                आपको हमारा सलाम !!!!

शनिवार, 2 जनवरी 2010

विली अर्जन सिंह के कुछ यादगार चित्र

विली अर्जन सिंह


 के कुछ यादगार चित्र 








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विली अर्जन सिंह तारा नाम की बाघिन के साथ 



विली अर्जन सिंह जूलियट 
को बाँहों में लिए 







                            विली अर्जन सिंह हैरियट के साथ 





  विली अर्जन सिंह










                                     टाईगर हैवन में डीपी मिश्र 


  विली अर्जन सिंह का दुधवा नेशनल पार्क के निकट 


बना टाईगर हैवन उनकी यादों का घरोंदा बन गया है . 



दुधवा के विली अर्जन सिंह की पुस्तकें


विली अर्जन सिंह द्वारा लिखी गई अद्वतीय  पुस्तकें  जो उनके बाघ प्रेम को दर्शाती हैं 














दुधवा  के 

दुधवा के बाघों के संरछ्क विली अर्जन सिंह अब नहीं रहे

                                            
                                      
     विली अर्जन सिंह का आवास टाईगर हैवन अब सूना हो गया 


                                                                            
 विली अर्जन सिंह को मिले पुरस्कार 

                                
                                    






विली अर्जन सिंह
की पसंददीदा पुस्तकें  तथा उनका पैतारक  घर 






                                 विली अर्जन सिंह का आवास टाईगर हैवन



  विली अर्जन सिंह ने अंतिम दिन नौरंगपुर फार्म पर बिताये 
विली अर्जन सिंह 
का पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करते डीपी मिश्र





         विली अर्जन सिंह के अंतिम दिनों के  साथी उनके सेवादार