रविवार, 10 जनवरी 2010

अपने घर में सुरक्षित नही रहें बाघ





उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क की सीमा से सटे नार्थ खीरी वनक्षेत्र एवं उत्तराखंड के जिम कार्बेट नेशनल पार्क में एक-एक बाघ की जनवरी के प्रथम सप्ताह में हुई बाघों की अस्वाभाविक मौतों ने पूरे देश में खासी सनसनी फैला दी है यह भी तब हुआ है जब दुनिया भर के बाघो की दयनीय स्थिति पर विचार करने के लिये इस साल माह सितम्बर मे रूस विश्व शिखर वार्ता का आयोजन करने जा रहा है। जिसमें बाघ के सवाल पर दुनिया के केन्द्र में भारत इसलिये है क्योंकि संसार भर के जंगलों में मौजूद बाघों में 60 प्रतिशत बाघ भारत में रहते हैं। जंगल की शान बाघ पर संकट के बादल मड़रा रहे हैं। तमाम सरकारी, गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी बाघों की दुनिया सिमटती जा रही है। यदि यही क्रम रहा तो सम्भव है कि हमारी आने वाली पीढ़ी को बाघ के दर्शन किताबों या अजायबघरों में ही हो सकेगंें। बाघ जहां वनों के विनाश एवं राजा रजवाड़ों, नबावों मे शिकार के शौक का निशाना बना रहा वहीं आज अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में उसके शरीर के अवयवों की बढ़ती मांग भी विनाश का एक प्रमुख कारण है। कुल मिलाकर भारत में बाघों की घटती संख्या बेहद चिंता का विषय है।
आधुनिक सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के पूर्व ही बाघ एक धार्मिक तथा रहस्य मय संास्कृतिक प्रतीक के रूप मंे हमारी श्रृद्धा का प्रतीक रहा है। आधुनिक विज्ञान ने भी इस बात की पुष्टि की है कि हमारे पूर्वजों ने मानव तथा प्रकृति के सम्बन्धों के रूप मंें इस शक्तिशाली शिकारी जीव की संकल्पना केवल भावुकता से प्रेरित होकर नही की। हमारे प्राचीन ग्रंथो में तो वन्यजीवों की रक्षा का समुचित प्राविधान का उल्लेख है। धार्मिक अवस्थाओं से जोड़कर अनेक जीवों की युगो तक रक्षा की जाती रही है।
आखेट का रोंमांच, एशिया के कुछ एक देशो में बाघ के शरीर को अवयवों की बढ़ती मांग वन्यजीवों के व्यापार में मुनाफा, मानव द्वारा प्रकृति मंे स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रवृत्ति आदि ने जंगल का राजा कहे जाने वाले बाघ के अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है। सरकार द्वारा वन्यजीवों की सुरक्षा के लिये जहां बनाये गये प्राणि उद्यान एवं अभ्यारण्य मात्र दिखावा साबित हो रहे हैं, वहीं बाघों के संरक्षण के लिये राष्ट्रीय उद्यानों में चल रहा प्रोजेक्ट टाइगर भी असफलता एवं नाकामी के पर्याय बन गये हंै। सरकारी नीतियों एवं वन्य संरक्षण विभाग, वन विभाग बड़े पैमाने पर हो रहे बाघ के शिकार को रोकने में असमर्थ ही नजर आ रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि राजस्थान के सारिस्का राष्ट्रीय उद्यान एवं मध्य प्रदेश के पन्ना नेशनल पार्क से बाघ विलुप्त हो चुके हैं, जबकि बिहार के बाल्मीक नगर सेंक्चुरी से पिछले 05 साल के भीतर बाघों की संख्या 54 से घटकर 09 पर टिक गई है। उत्तराखंड के जिम कार्बेट नेशनल पार्क में भी आधा दशक पहले 150 से ऊपर रही बाघों की संख्या 100 के आस-पास पहुच गई है। कमोबेश यही स्थिति दुधवा नेशनल पार्क की भी है। यद्यपि पार्क प्रशासन यहां 106 बाघों के होने का दावा करता है। किन्तु अगर स्वर्गीय पद्मश्री अर्जन सिंह द्वारा कही गई बात को माना जाय तो दुधवा में केवल 03 दर्जन के आस-पास ही बाघ बचे हैं। 
भारत में बाघों को बचाने के लिये 17 प्रदेशो में 23 संरक्षित क्षेत्र बनाये गये हैं, जिसमें ताजा आकंडो के अनुसार 1,411 बाघों की उपस्थिति का दावा किया जा रहा है लेकिन इस पर भी तमाम संगठनों द्वारा उगलियां उठाई जा रही है। भारत में बाघो की दयनीय स्थिति को सुधारने के लिये वर्ष 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया गया, तब बाघों की संख्या दो हजार के आस-पास थी। जो वर्ष 2002 में बढ़कर तीन हजार छः सौ बाईस तक पहुच गई थी। यह भी तब सम्भव हुआ था जब पर्यावरण एवं वन्यजीव प्रेमी तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरागांधी व राजीव गांधी ने वन व बाघ को बचाने के लिये स्वयं दिलचस्पी दिखाई थी। उसके बाद एक बार फिर बाघांे का बेतहासा अवैध शिकार हुआ। राजस्थान का सारिस्का राष्ट्रीय उद्यान जब बाघों से खाली हो गया तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सारिस्का का भ्रमण करके देश में बाघों की घटती संख्या पर चिंता जाहिर की थी। इसके बाद जून 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की तीसरी बैठक हुई। जिसमें बाघों के संरक्षण हेतु राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण तथा वन्यजीवों से जुड़े अपराधांे को प्रभावी ढं़ग से रोकने के लिये राष्ट्रीय वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो के गठन का निर्णय लिया गया था। परन्तु केन्द्र सरकार द्वारा किये गये अबतक के प्रयास बाघ तक पहुंचते-पहुंचते भटक जाते हैं जिससे बाघो की दशा बद् से बद्तर होती जा रही है। इसका प्रमुख कारण है कि बाघों के प्राकृतिकवासों का अन्धाधुंध विनाश हुआ एवं कंकरीट के जंगलों की बेतहासा वृद्धि हुई, जिसमें मानव की बढ़ती आबादी व अनियंत्रित औद्योगिक विकास का भी योगदान है। बाघों के प्राकृतिक आवासों के निकट बस्तियां बसीं और बिना सोचे विचारें औद्योगिक गतिविधियों में विद्युत उत्पादन, उत्खनन आदि परियोजनाओं से पर्यावरण को क्षति पहुची है। जिससे बाघों के शरणगाह कम हुये। फलस्वरूप बाघ ऐसे स्थलों पर पहुच जाता है जहां उसका शिकार आसानी से हो जाता है। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं एवं मानवजनित समस्यों के कारण जंगल मे बाघ द्वारा खाये जाने वाला शिकार भी कम हुआ है। बाघों को बचाने के लिये सबसे पहले कोशिश जंगलों को बचाने की करनी होगी।
बाघो का शिकार एवं वन्यजीवों की तस्करी का धंधा पूरे विश्व में पनपा, मगर भारतीय बाघ के शिकार को प्रोत्साहन दिया है चीन, दक्षिण कोरिया, ताईवान, हांगकांग आदि दक्षिण एशिया के परम्परागत दवा के व्यापारियों ने। बाघों के अवयवों से कामोत्तेजक पदार्थो के बढ़ते प्रचलन नें बाघ के अवैध शिकार को भी गति दी है। इसके फलस्वरूप भारतीय बाघ के अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। बाघों के शिकार और घटती संख्या पर देश के पर्यावरण एवं वनराज्य मंत्री जयराम रमेश भी मान चुके है कि देश में बाघों का बड़े पैमाने पर शिकार हो रहा है और बाघों की खाल की तस्करी मादक द्रव्यों के बाद दूसरे नम्बर पर आती है। उन्होने यह भी माना है कि बाघों के संरक्षण का जिम्मा राज्य सरकारों पर नही छोड़ा जा सकता है।
भारत सहित दुनिया के 12 देशो मे पाया जाने वाला बाघ कहीं भी सुरक्षित नही है। इस गम्भीर स्थित में भी अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, भारत आदि 07 देशांें को बाघों की तस्करी के खिलाफ सामूहिक अभियान छेड़ने के लिये एक जुट किया था। लेकिन इस संदर्भ में भारत और चीन के बीच वर्ष 1995 में हुये प्रोटोकाल समझौते की विफलता को देखते हुये बाघों के शिकार से जुड़ी आंशकाएं तिरोहित नहीं होती हैं। वन्यजीवों से जुड़ी वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इण्डिया भी बाघों की संख्या में आई गिरावट के लिये तस्करी को सबसे बड़ी वजह मानता है। इसलिये देश को अपने बाघों के संरक्षण के लिये खुद चिंता करनी होगी। 
जंगल में जंगलराज है वन संरक्षण अधिनियम, वन्यजीव-जन्तु संरक्षण अधिनियम, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है। इसे केन्द्र एवं राज्य सरकारें नही रोक पाई हैं। विभिन्न योजनाओं के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन को बनी विशेषज्ञों की समिति की सिफारिशें अलमारियों में बन्द हैं। बाघ के भविष्य को बचाने के लिये वन्यजीव सरंक्षण से जुड़े वैज्ञानिकों के तकनीकी कौशल की भी निरन्तर उपेक्षा जारी है। केन्द्र और प्रदेशों की अफसरशाही केवल ऐसे आकड़ें तैयार करने में जुटी है जिससे विश्व को बताया जा सके कि बाघ सुरक्षित हैं। इसलिये शिकार की असली तस्वीर नहीं उभर पाती है। केन्द्र सरकार को इस बात का खतरा रहता है कि यदि शिकार की वास्तविक स्थिति का पता चल गया तो अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं और वन्यजीव संरक्षण के नाम पर मिल रही मदद समाप्त हो जायेगी।
आज समय की मांग है कि बाघ संरक्षण के लिये चल रहे प्रोजेक्ट टाइगर में पारदर्शिता लाई जाय एवं वन प्रबन्धन व वन्यजीव संरक्षण को अलग-अलग किया जाय तथा वनक्षेत्र के निकट रहने वाली जातियों का विश्वास पुनः हासिल किया जाय। जरूरी है कि जंगल और मानव के रिश्तांे को नई परिभाषा दी जाए। सरकार को चाहिये कि वह सुरक्षित क्षेत्रों एवं बाघ के प्राकृतिक आवास स्थलों के निकट रहने वाले लाखों लोगों को रोजगार की गारन्टी दे तथा प्राकृतिक संसाधनों में उनका अधिकार बरकरार रखा जाय। इन्हीं समन्वित प्रयासों से ही बाघ के अस्तित्व की रक्षा हो सकेगी। अन्यथा की दशा में वनराज बाघ किताबो के पन्नो में सिमट जायेगें।(लेखक वाइल्डलाईफर एवं पत्रकार है)



कोई टिप्पणी नहीं: