सोमवार, 6 सितंबर 2010

आखिर जंगल से बाहर क्यों आते है बाघ ?

पीलीभीत के जंगलों से निकल वाया शाहजहांपुर "खीरी" पहुंचा बाघ
अक्सर जंगलों में शिकार की कमी के चलते ये जंगल का राजा मजबूरन अपना रुख बदलता है मानव आबादी की तरफ, दरअसल बाघ जब जंगल बदलने की कोशिश करता है तब मानव-और बाघ में टकराव की स्थित लामुहाला उत्पन्न होती है, जंगलों की नष्ट हुई श्रंखलाये इसका कारण बनती है अब बाघ को क्या मालूम कुछ ही कदमों पर ये जंगल ख़त्म हो जायेगें और आदिम बस्ती और उसके खेत खलिहानों में आदमी और उसके जानवरों से उसे बावस्ता होना पड़ेगा! आखिरकार ये जंगल खोजता खोजता भटक जाता है इन्सान के बनाये माया जाल में! जहां या तो उसकी मौत हो जाती है, या कैद ! एक रात में बीसों मील यात्रा कर लेने वाले इस जानवर को अब इतने विशाल जंगल नसीब नहीं है वजह साफ़ है कि विकास के नाम पर इन श्रंखलाबद्ध जंगलों को हमने तबाह कर दिया नतीजा हमारे सामने है! -Man-animal conflict! -Moderator

बिल्ली प्रजाति का अतिबलशाली ‘बाघ’ जन्म से हिंस्रक और खूंखार होता है, लेकिन मानवभक्षी नहीं होता है। इंसानों से डरने वाले वनराज बाघ को मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं। जब कभी बाहुल्य क्षेत्रफल में जंगल थे तब मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहे, समय बदला और आबादी बढ़ी फिर किया जाने लगा वनों का अंधाधुन्ध विनाश।



जिसका परिणाम यह निकला कि जंगलों का दायरा सिमटने लगा, वन्यजीव बाहर भागे और उसके बाद शुरू हुआ न खत्म होने वाला मानव और वन्यपशुओं के बीच का संघर्ष। इसी का परिणाम है कि पिछले तीन सालों में जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से निकले बाघों के द्वारा खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद तक दो दर्जन के आसपास मानव मारे जा चुके हैं। इसमें दो बाघों को गोली मारी गयी। जबकि एक बाघ को पकड़कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेजा जा चुका है। अब एक बार फिर पिछले पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ आठ मनुष्यों को अपना निवाला बना चुका है। उसे पकड़ने की कवायद वन विभाग द्वारा की जा रही है।



दुधवा टाइगर रिजर्व परिक्षेत्र में शामिल किशनपुर वनपशु विहार, पीलीभीत और शाहजहांपुर के जंगल आपस में सटे हैं। गांवों की बस्तियां और कृषि भूमि जंगल के समीप हैं। जिससे मानव आबादी का दबाव जंगलों पर बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते विभिन्न परितंत्रों के बीच एक ऐसा त्रिकोण बनता है जहां ग्रामवासियों और वनपशुओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाना ही है। भौगोलिक परिस्थितियों के चलते बनने वाला त्रिकोण परिक्षेत्र दुर्घटना जोन बन गया है। सन् 2007 में किशनुपर परिक्षेत्र में आबाद गावों में आधा दर्जन मानव हत्याएं करने वाली बाघिन को मृत्यु दण्ड देकर गोली मार दी गयी थी। इसके बाद नवंबर 2008 में पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी होते हुए सूबे की राजधानी लखनऊ की सीमा तक पहुंच गया था। इस दौरान बाघ द्वारा एक दर्जन ग्रामीणों का शिकार किया गया। बाद में इस आतंकी बाघ को नरभक्षी घोषित करके फैजाबाद के पास गोली मारकर मौत दे दी गयी थी। सन् 2009 के शुरूआती माह जनवरी में किशनपुर एवं नार्थ खीरी फारेस्ट डिवीजन के क्षेत्र में जंगल से बाहर आये बाघ ने चार मानव हत्याएं करने के साथ ही कई पालतू पशुओं का शिकार भी किया। इस पर हुई काफी मशक्कत के बाद बाघ को पिंजरें में कैद कर लखनऊ प्राणी उद्यान भेज दिया गया था। अब सन् 2010 में एक बार फिर पिछले माह पीलीभीत के जंगल से निकला बाघ खीरी, शाहजहांपुर में मानव का शिकार कर रहा है। इसके द्वारा आठ ग्रामीण मौत के घाट उतारे जा चुके हैं।



इसके आतंक से ग्रामीणों में दहशत फैली है और वन विभाग बाघ को पिंजरे में कैद करने के लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। जन्म से खूंखार होने के बाद भी विशेषज्ञों की राय में बाघ इंसान पर डर के कारण हमला नहीं करता यही कारण है कि वह इंसानों से दूर रहकर घने जंगलों में छुप कर रहता है।



मानव पर हमला करने के लिए परिस्थितियां बिवश करती हैं। विश्वविख्यात बाघ विशेषज्ञ जिम कार्बेट का भी कहना है कि बाघ बूढ़ा होकर लाचार हो जाये अथवा जख्मी होने से उसके दांत, पंजा, नाखून टूट गये हो या फिर प्राकृतिक या मानवजनित उसके विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हों, तभी बाघ मानव पर अटैक करता है। उनका यह भी मानना था कि जन्म से खार होने के बाद भी बाघ मानव पर एक अदृश्य डर के कारण हमला नहीं करता और यह भी कोई जरूरी नहीं है कि नरभक्षी बाघ के बच्चे भी नरभक्षी हो जायें।



बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे-मोटे स्वार्थो के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढ़ने पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असमान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है।



मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिन्दा रखने के लिए खाने की जद्दोजेहाद नए सिरे से किसी परिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे। जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर-उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं। इधर प्राकृतिक कारणों से चारागाह भी सिमट गए या कुप्रबंधन के कारण वे ऊंची घास के मैदानों में बदल गए। इसके कारण वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आते हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में गन्ने के खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है। इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवोंके अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त बाघों के प्राकृतिक वासस्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। ऐसा न किए जाने की स्थिति में परिणाम घातक ही निकलते रहेंगे, जिसमें मानव की अपेक्षा सर्वाधिक नुकसान बाघों के हिस्से में ही आएगा।

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