सूरमा हिन्दुस्तान का पहला ग्राम वन गया है जिसे नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व क्षेत्र के बीच में आबाद होने के बावजूद वनाधिकार कानून का लाभ दिया गया है
दुधवा नेशनल पार्क के मध्य आबाद ग्राम सूरमा में आयोजित किए गए शिविर में जिलाधिकारी समीर वर्मा ने केन्द सरकार के ऐतिहासिक अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2007 के तहत 289 थारू परिवारों को उनके घर, खेत और खलिहान के मालिकाना हक का प्रमाण पत्र दिया। श्री वर्मा ने कहा कि प्रयास करके एक साल के भीतर वनाधिकार कानून को लागू कराया गया है। श्री वर्मा ने सभी से वन एवं वन्यजीव संरक्षण व सुरक्षा में पूरा सहयोग दिए जाने की अपील की। उन्होंने वताया कि सूरमा ग्राम अम्वेडकर ग्राम विकास योजना में चयनित है शीघ्र ही विकास के कार्य शुरू कराए जाएगें। डीएम समीर वर्मा ने ग्राम सूरमा में 289 थारू परिवारों को 625,477 हेक्टैयर वन भूमि के मालिकाना हक के अधिकार पत्र दिए। इसमें आवास के लिए 32,637 हेक्टैयर एवं कुषि हेतु 592,84 हेक्टैयर जमीन के अधिकार पत्र अिए गए हैं। डीएम समीर वर्मा ने वताया कि दिए गए अधिकार पत्रों के अनुसार जमीन को राजस्व अभिलेखों में दर्ज कर दिया गया है। 23 साल की लम्वी लड़ाई लड़ने के बाद मिली सफलता के वाद सूरमावासियों में खुशी की लहर दौड़ गई है। गोलवोझी में वितरित किए कुल 58 अधिकार पत्र के तहत 47,842 हेक्टैयर जमीन परउनको मालिकाना हक दिया गया है। इसमें आवास के लिए 3,588 हेक्टेयर तथा कृषिकी 40,245 हेक्टेयर वन भूमि पर मालिकाना हक दिया गया है। डीएम समीर वर्मा ने कहा कि सामुदायिक अधिकारों के लिए शीघ्र ही दावा फार्म भरवाए जाएगें। उन्होंने थारूजनों से वन एवं वंयजीवों की सुरक्षा एवं संरक्षण के कार्यो में सक्रिय सहयोग दिए जाने की अपील की। अधिकार पत्र मिल जाने के बाद घने जंगल के बीच बेवशी व जीवन गुजारने वाले थारू परिवारों के लिए नए युग की शुरूआत का सूरज उदय हुआ है।
आदिवासी जनजाति थारूक्षेत्र में आबाद ग्राम सूरमा देश का पहला ग्राम बन गया जो नेशनल पार्क एवं टाइगर रिजर्व क्षेत्र में बसे होने के बाद भी उसे बनाधिकार कानून का लाभ मिला है। हालांकि थारूओं को यह सफलता एक लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद मिली है। वर्षों से भारत-नेपाल सीमावर्ती जंगल के बीच आवाद थारू ग्राम सूरमा को 1978 में जब थारू क्षेत्र के 37 ग्रामों में से 35 ग्राम राजस्व में शामिल कर लिए गए तव उसे यह कहकर राजस्व ग्राम का दर्जा नहीं दिया गया कि यह दुधवा नेशनल पार्क की सीमा के भीतर है। इसी श्रेणी में गोलबोझी को भी शामिल कर लिया गया। सन् 1980 में सूरमा गाम के लोग अपना हक पाने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की। 23 साल तक चली कानूनी दावपेंचों की लड़ाई में हाईकोर्ट ने सन् 2003 में सूरमावासियों के खिलाफ अपना फैसला सुनाया। इस पर दुधवा नेशनल पार्क प्रशासन ने सूरमा को उजाड़ने के लिए तमाम असफल प्रयास किए। इस बीच सन् 2008में केन्द सरकार ने ऐतिहासिक अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2007 लागू कर दिया। इस ऐतिहासिक वनाधिकार कानून को लागू करने में दुधवा पार्क प्रशासन लगातार अड़गे डालता रहा। सूरमावासियों का उनका हक दिलाने के लिए राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच व उसके स्थानीय घटक संगठन थारू आदिवासी महिला किसान मंच ने सन् 2002में सघर्ष की राह पकड़ी और वनाधिकार पाने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया। इसमें सरकार द्वारा गठित वनाधिकार राज्यस्तरीय निगरानी समिति के सदस्य रामचन्द्र राना ने थारू क्षेत्र की समस्याओं एव वन विभाग द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़न को प्रमुखता से शासन तक पहुंचाया जिसका परिणाम यह निकला कि शासन के निर्देश पर वनाधिकार कानून के तहत सूरमा एवं गोलबोझी के निवासियो के वनभूमि पर मालिकाना हक देने के लिए पिछले साल दावा फार्म भरे गए। जांच पड़ताल की प्रक्रिया के वाद आज आठ अप्रैल को सूरमावासियों को वनभूमि पर मालिकाना हक मिल जाने के बाद सूरमा वन विभाग की गुलामी से आजाद हो गया है। वनभूमि में रहने के कारण सूरमा एवं गोलबोझी ग्राम के निवासियों को सरकार द्वारा संचालित योजनाओं का न लाभ मिल रहा था और न ही गांव में सरकारी स्कूल खुल सके थे। यहां तक गांव के निवासी पक्का घर नहीं वना सकते थे। इसके कारण इन गावों के सैकड़ो परिवार आजाद भारत में गुलामी वाला नारकीय जीवन गुजारने को विवश थे। घर, खलिहान, खेत की जमीन पर मालिकाना हक मिल जाने के बाद आज से सूरमा व गोलवोझी में आजादी का नया सूरज उदय हो गया है। वनाधिकार कानून कानून के हथियार से मिली सफलता को लेकर पूरे थारू क्षेत्र में खुशी की लहर दौड़ गई है थारू इस जीत की खुशी में थारू क्षेत्र में दीवाली मनाई जा रही है।
क्या है वनाधिकार कानून-
अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं 2007 के तहत वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी को काबिज भूमि पर खेती का अधिकार, सामुदायिक अधिकार चाहे किसी नाम से ज्ञात हो इसमें राजाओं एवं जमींदारों के दौरान प्रयुक्त अधिकार शामिल हैं, गौण वन उत्पाद, चारागाहों, जलाशयों, गृह और आवास तथा कोई ऐसा पारम्परिक अधिकार जिसका यथास्थिति, वन निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों या अयं परम्परागत वन निवासियों द्वारा रूढ़िगत रूप से उपयोग किया जा रहा हो। कानून में सबसे महत्वूपर्ण अधिकर यह है भी है कि जो अनुसूचित जनजातियों और अयं परम्परागत वन निवासियों के 13 दिसम्बर 2005 से पूर्व किसी भी प्रकार की वन भूमि से पुर्नवास के वैध हक प्राप्त किए बिना अवैध रूप से बेदखल या विस्थापित किया गया हो उसे वनाधिकार का लाभ देने का प्राविधान अधिनियम में दिया गया है। जिसका खुला उल्लंघन दुधवा नेशनल पार्क के अधिकारियों द्वारा किया जा रहा है।
क्या हैं केन्द्र और प्रदेश सरकार के शासनादेश
वनाधिकार कानून लागू किए जाने के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय भारत सरकार के पत्र फाइल संख्या 7-12/2010 दिनांक 21-06-2010 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 की धरा 02 (ख) के अंतर्गत राष्ट्रीयय उद्यानों व अभ्यारण्यों में निर्वासित अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासियों को उनके कव्जे की भूमि पर उनके अधिकारों को मान्यता देने एवं उनके अधिकारों को उन्हे सौपने का आदेश दिया गया है। इसी आदेश के क्रम में उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव (वन अनुभाग 2) के पत्र संख्या 273/14-2-2010 दिनांक 11-10-2010 के शासनादेश में कहा गया है कि राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारण्यों में निर्वासित अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासियों को उनके कव्जे की भूमि पर उनके अधिकारों को मान्यता देने एवं उनके अधिकारों को उन्हे सौपने हेतु कार्यवाही की जानी है। पुनर्स्थापना के पूर्व राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारण्यों में अधिकारों से सम्वंधित सभी औपचारिकताएं पूरी करने तक कोई बेदखली एवं पुनर्स्थापना अनुमन्य नहीं है। केन्द्र और प्रदेश की सरकार जहां वनाधिकार कानून को लागू करवाने में गंभीर है वहीं दुधवा के अधिकारी शासनादेशों का अनुपालन नहीं कर रहे हैं और वनाधिकार कानून को लागू करवाने में अड़ंगे डालकर थारूओं के साथ अन्य परम्परागत वन निवासियों को उजाड़ने की साजिश जरूर कर रहें हैं। इसके कारण पूरे थारू क्षेत्र के निवासियों में रोष फैल गया है।
दुधवा नेशनल पार्क के मध्य आबाद ग्राम सूरमा में आयोजित किए गए शिविर में जिलाधिकारी समीर वर्मा ने केन्द सरकार के ऐतिहासिक अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2007 के तहत 289 थारू परिवारों को उनके घर, खेत और खलिहान के मालिकाना हक का प्रमाण पत्र दिया। श्री वर्मा ने कहा कि प्रयास करके एक साल के भीतर वनाधिकार कानून को लागू कराया गया है। श्री वर्मा ने सभी से वन एवं वन्यजीव संरक्षण व सुरक्षा में पूरा सहयोग दिए जाने की अपील की। उन्होंने वताया कि सूरमा ग्राम अम्वेडकर ग्राम विकास योजना में चयनित है शीघ्र ही विकास के कार्य शुरू कराए जाएगें। डीएम समीर वर्मा ने ग्राम सूरमा में 289 थारू परिवारों को 625,477 हेक्टैयर वन भूमि के मालिकाना हक के अधिकार पत्र दिए। इसमें आवास के लिए 32,637 हेक्टैयर एवं कुषि हेतु 592,84 हेक्टैयर जमीन के अधिकार पत्र अिए गए हैं। डीएम समीर वर्मा ने वताया कि दिए गए अधिकार पत्रों के अनुसार जमीन को राजस्व अभिलेखों में दर्ज कर दिया गया है। 23 साल की लम्वी लड़ाई लड़ने के बाद मिली सफलता के वाद सूरमावासियों में खुशी की लहर दौड़ गई है। गोलवोझी में वितरित किए कुल 58 अधिकार पत्र के तहत 47,842 हेक्टैयर जमीन परउनको मालिकाना हक दिया गया है। इसमें आवास के लिए 3,588 हेक्टेयर तथा कृषिकी 40,245 हेक्टेयर वन भूमि पर मालिकाना हक दिया गया है। डीएम समीर वर्मा ने कहा कि सामुदायिक अधिकारों के लिए शीघ्र ही दावा फार्म भरवाए जाएगें। उन्होंने थारूजनों से वन एवं वंयजीवों की सुरक्षा एवं संरक्षण के कार्यो में सक्रिय सहयोग दिए जाने की अपील की। अधिकार पत्र मिल जाने के बाद घने जंगल के बीच बेवशी व जीवन गुजारने वाले थारू परिवारों के लिए नए युग की शुरूआत का सूरज उदय हुआ है।
आदिवासी जनजाति थारूक्षेत्र में आबाद ग्राम सूरमा देश का पहला ग्राम बन गया जो नेशनल पार्क एवं टाइगर रिजर्व क्षेत्र में बसे होने के बाद भी उसे बनाधिकार कानून का लाभ मिला है। हालांकि थारूओं को यह सफलता एक लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद मिली है। वर्षों से भारत-नेपाल सीमावर्ती जंगल के बीच आवाद थारू ग्राम सूरमा को 1978 में जब थारू क्षेत्र के 37 ग्रामों में से 35 ग्राम राजस्व में शामिल कर लिए गए तव उसे यह कहकर राजस्व ग्राम का दर्जा नहीं दिया गया कि यह दुधवा नेशनल पार्क की सीमा के भीतर है। इसी श्रेणी में गोलबोझी को भी शामिल कर लिया गया। सन् 1980 में सूरमा गाम के लोग अपना हक पाने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की। 23 साल तक चली कानूनी दावपेंचों की लड़ाई में हाईकोर्ट ने सन् 2003 में सूरमावासियों के खिलाफ अपना फैसला सुनाया। इस पर दुधवा नेशनल पार्क प्रशासन ने सूरमा को उजाड़ने के लिए तमाम असफल प्रयास किए। इस बीच सन् 2008में केन्द सरकार ने ऐतिहासिक अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2007 लागू कर दिया। इस ऐतिहासिक वनाधिकार कानून को लागू करने में दुधवा पार्क प्रशासन लगातार अड़गे डालता रहा। सूरमावासियों का उनका हक दिलाने के लिए राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच व उसके स्थानीय घटक संगठन थारू आदिवासी महिला किसान मंच ने सन् 2002में सघर्ष की राह पकड़ी और वनाधिकार पाने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया। इसमें सरकार द्वारा गठित वनाधिकार राज्यस्तरीय निगरानी समिति के सदस्य रामचन्द्र राना ने थारू क्षेत्र की समस्याओं एव वन विभाग द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़न को प्रमुखता से शासन तक पहुंचाया जिसका परिणाम यह निकला कि शासन के निर्देश पर वनाधिकार कानून के तहत सूरमा एवं गोलबोझी के निवासियो के वनभूमि पर मालिकाना हक देने के लिए पिछले साल दावा फार्म भरे गए। जांच पड़ताल की प्रक्रिया के वाद आज आठ अप्रैल को सूरमावासियों को वनभूमि पर मालिकाना हक मिल जाने के बाद सूरमा वन विभाग की गुलामी से आजाद हो गया है। वनभूमि में रहने के कारण सूरमा एवं गोलबोझी ग्राम के निवासियों को सरकार द्वारा संचालित योजनाओं का न लाभ मिल रहा था और न ही गांव में सरकारी स्कूल खुल सके थे। यहां तक गांव के निवासी पक्का घर नहीं वना सकते थे। इसके कारण इन गावों के सैकड़ो परिवार आजाद भारत में गुलामी वाला नारकीय जीवन गुजारने को विवश थे। घर, खलिहान, खेत की जमीन पर मालिकाना हक मिल जाने के बाद आज से सूरमा व गोलवोझी में आजादी का नया सूरज उदय हो गया है। वनाधिकार कानून कानून के हथियार से मिली सफलता को लेकर पूरे थारू क्षेत्र में खुशी की लहर दौड़ गई है थारू इस जीत की खुशी में थारू क्षेत्र में दीवाली मनाई जा रही है।
क्या है वनाधिकार कानून-
अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं 2007 के तहत वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी को काबिज भूमि पर खेती का अधिकार, सामुदायिक अधिकार चाहे किसी नाम से ज्ञात हो इसमें राजाओं एवं जमींदारों के दौरान प्रयुक्त अधिकार शामिल हैं, गौण वन उत्पाद, चारागाहों, जलाशयों, गृह और आवास तथा कोई ऐसा पारम्परिक अधिकार जिसका यथास्थिति, वन निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों या अयं परम्परागत वन निवासियों द्वारा रूढ़िगत रूप से उपयोग किया जा रहा हो। कानून में सबसे महत्वूपर्ण अधिकर यह है भी है कि जो अनुसूचित जनजातियों और अयं परम्परागत वन निवासियों के 13 दिसम्बर 2005 से पूर्व किसी भी प्रकार की वन भूमि से पुर्नवास के वैध हक प्राप्त किए बिना अवैध रूप से बेदखल या विस्थापित किया गया हो उसे वनाधिकार का लाभ देने का प्राविधान अधिनियम में दिया गया है। जिसका खुला उल्लंघन दुधवा नेशनल पार्क के अधिकारियों द्वारा किया जा रहा है।
क्या हैं केन्द्र और प्रदेश सरकार के शासनादेश
वनाधिकार कानून लागू किए जाने के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय भारत सरकार के पत्र फाइल संख्या 7-12/2010 दिनांक 21-06-2010 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 की धरा 02 (ख) के अंतर्गत राष्ट्रीयय उद्यानों व अभ्यारण्यों में निर्वासित अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासियों को उनके कव्जे की भूमि पर उनके अधिकारों को मान्यता देने एवं उनके अधिकारों को उन्हे सौपने का आदेश दिया गया है। इसी आदेश के क्रम में उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव (वन अनुभाग 2) के पत्र संख्या 273/14-2-2010 दिनांक 11-10-2010 के शासनादेश में कहा गया है कि राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारण्यों में निर्वासित अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासियों को उनके कव्जे की भूमि पर उनके अधिकारों को मान्यता देने एवं उनके अधिकारों को उन्हे सौपने हेतु कार्यवाही की जानी है। पुनर्स्थापना के पूर्व राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारण्यों में अधिकारों से सम्वंधित सभी औपचारिकताएं पूरी करने तक कोई बेदखली एवं पुनर्स्थापना अनुमन्य नहीं है। केन्द्र और प्रदेश की सरकार जहां वनाधिकार कानून को लागू करवाने में गंभीर है वहीं दुधवा के अधिकारी शासनादेशों का अनुपालन नहीं कर रहे हैं और वनाधिकार कानून को लागू करवाने में अड़ंगे डालकर थारूओं के साथ अन्य परम्परागत वन निवासियों को उजाड़ने की साजिश जरूर कर रहें हैं। इसके कारण पूरे थारू क्षेत्र के निवासियों में रोष फैल गया है।
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