मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से बाघों का पूरी तरह सफाया हो चुका है। यह बात अब कई सरकारी एवं गैर सरकारी जाँच एजेंसियों ने अपनी रिपोर्टों में पुष्ट कर दी है।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा गठित विशेष जाँच टीम की रिपोर्ट आने के बाद तो अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि पन्ना टाइगर रिजर्व में अब एक भी बाघ नहीं बचा है। इस जाँच टीम ने इस बात का भी खुलासा किया है कि पन्ना में वर्ष 2002 और 2005 के बीच सर्वाधिक बाघों का शिकार हुआ। बाघों के शिकार का यह सिलसिला जनवरी 2009 तक जारी रहा जब तक पन्ना का अंतिम बाघ बचा था।पन्ना में बाघों के गायब होने तक एक बाघ विशेषज्ञ चिल्ला-चिल्लाकर कहता रहा कि यहाँ बाघों का अस्तित्व खतरे में है और उन्हें बचाए जाने के लिए जल्दी ही कुछ किया जाना चाहिए, लेकिन उस विशेषज्ञ की बात पर मध्यप्रदेश के वन विभाग ने कोई कान नहीं धरा। यहाँ बात हो रही है बाघ विशेषज्ञ डॉ. रघु चुंडावत की।इनकी 'द मिसिंग टाइगर आफ पन्ना' नामक रिपोर्ट को भी पार्क के तत्कालीन अधिकारियों द्वारा अनदेखा किया गया और अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए बाघों की संख्या के अतिरंजित आँकड़े पेश किए गए। इस पूरे प्रकरण ने सरिस्का की याद ताजा कर दी। चार साल पहले वहाँ गायब हुए बाघों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर हंगामा खड़ा हुआ था। उस मामले ने इतना तूल पकड़ा था कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह खुद रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान आए थे और उन्होंने पूरे देश के सभी प्रदेशों के वन विभागों के प्रमुखों से इस संबंध में बात की थी। उस दौरान ही राष्ट्रीय स्तर पर 'टाइगर टास्क फोर्स' का गठन हुआ था, जिसका नेतृत्व सीएसई (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट) प्रमुख सुनीता नारायण को सौंपा गया था। बाद में उस समिति ने अपनी बहुचर्चित रिपोर्ट 'जोइनिंग द डाट्स' केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी थी। उस रिपोर्ट में हर उस बात का उल्लेख था जो बाघों के खत्म होने के पीछे कारण बनी थी और हर उस बात का उल्लेख भी था जिसे अपनाकर बाघों को बचाया जा सकता था। यह रिपोर्ट आज भी सीएसई की वेबसाइट पर उपलब्ध है। इतना ही नहीं इस रिपोर्ट को भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून की वेबसाइट पर जाकर भी पढ़ा जा सकता है। यहाँ सरिस्का का उदाहरण इसलिए दिया है क्योंकि वो देश की पहली ऐसी बाघ परियोजना (प्रोजेक्ट टाइगर) है, जहाँ बाघ शिकार के कारण खत्म हो गए थे। उसके बाद राजस्थान के दूसरे प्रोजेक्ट टाइगर रणथम्भौर में भी कमोबेश यही स्थिति बनी। हालाँकि वहाँ बाघ खत्म नहीं हुए थे, लेकिन उनकी संख्या 47 से घटकर मात्र 21 रह गई थी। यानी आधी से भी कम।रणथम्भौर में बाघ कम होने वाली बात भी सबसे पहले अक्टूबर 2004 में इस लेखक ने ही उठाई थी। उन 3-4 सालों में देखा गया कि कैसे वन विभाग के अधिकारी आँकड़ों की हेरा-फेरी करके जनता की आँखों में धूल झोंकते रहते हैं। पर्यटकों को यह पता ही नहीं चलता कि उन्हें जो आँकड़े बताए जा रहे हैं असलियत में बाघ उससे बहुत कम संख्या में बचे हैं।पन्ना प्रकरण के सामने आने के बाद तो ऐसा लगा कि इतिहास ने अपने को दोहरा दिया है। वही गलतियाँ फिर से हुईं। वन विभाग के अधिकारियों ने इन दोनों प्रकरणों में सिर्फ झूठ बोला। बाघ दिखाई नहीं देने के बाद भी सिर्फ यही बताया गया कि बाघ इस जंगल में हैं और उनकी संख्या बढ़ रही है। रणथम्भौर प्रकरण के दौरान वहाँ के प्रसिद्ध बाघ विशेषज्ञ फतेहसिंह राठौड़ की संस्था 'टाइगर वॉच' ने कई बार वहाँ के वन विभाग को चेताया था कि यहाँ बाघों का शिकार हो रहा है, लेकिन अधिकारियों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।आखिर जब मीडिया में इस विषय संबंधी खबरें छपीं तब वसुंधरा राजे की तत्कालीन सरकार की नींद खुली और उसने टाइगर टास्क फोर्स का गठन किया। इस समिति ने भारतीय वन्यजीव संस्थान की मदद से रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की गिनती करवाई जो आश्चर्यजनक रूप से कम निकली। अब सरिस्का और रणथम्भौर की तरह ही पन्ना का भी हाल हुआ है और मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार की नींद भी तब जाकर खुली है, जब पन्ना टाइगर रिजर्व के सभी बाघों का शिकार हो गया है। अब पन्ना में भी भारतीय वन्यजीव संस्थान की मदद से इस पूरे प्रकरण को सुलझाने का प्रयास किया जा रहा है। कान्हा तथा बाँधवगढ़ से बाघ-बाघिनों को लाए जाने की योजना बनाई जा रही है। दो बाघिनें वहाँ लाई भी जा चुकी हैं, लेकिन बाघ ना होने की वजह से वो 'मेटिंग सीजन' होने के बावजूद भी प्रजनन करने में समर्थ नहीं हैं।'प्रोजेक्ट टाइगर' के अनुसार देश में बाघों की हालत खस्ता है। उसकी एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन सालों में 100 से ज्यादा बाघ मारे गए हैं, जिनमें से आधे तो इसी साल (2009) में मारे गए हैं। भारत के विभिन्न प्रदेशों के वन विभागों ने इतने पर भी अपना ढर्रा नहीं बदला और झूठ बोलना जारी रखा तो हमारे देश का राष्ट्रीय पशु एक दिन खत्म हो जाएगा। अगर देश में 'सरिस्का' बार-बार यूँ ही दोहराए जाते रहे तो सभी योजनाएँ धरी की धरी रह जाएँगी।सरकारों को वन विभाग के दावों की किसी गैर सरकारी संगठन या स्वायत्त संस्था से पुष्टि कराते रहनी चाहिए ताकि वन विभाग झूठे आँकड़े पेश करने से पहले कई बार सोच ले। सरकार को 'वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट' और उसके अंतर्गत होने वाली सजाओं को भी सख्ती से लागू करना चाहिए ताकि बाघों तथा अन्य वन्यजीवों की हत्या करने वालों को यह पता चल जाए कि वो एक जघन्य कृत्य कर रहे हैं और उसकी उन्हें सख्त सजा मिलेगी।अगर प्रदेश सरकारें यह सख्त रवैया अपनाएँगी तभी वे अपने यहाँ के जंगलों और उनमें रहने वाले वन्यजीवों को बचा पाएँगी। अगर ऐसा नहीं हो पाया तो देश के जंगलों में वन्यजीव आँकड़ों में तो जीवित दिखेंगे, लेकिन असलियत में नहीं।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा गठित विशेष जाँच टीम की रिपोर्ट आने के बाद तो अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि पन्ना टाइगर रिजर्व में अब एक भी बाघ नहीं बचा है। इस जाँच टीम ने इस बात का भी खुलासा किया है कि पन्ना में वर्ष 2002 और 2005 के बीच सर्वाधिक बाघों का शिकार हुआ। बाघों के शिकार का यह सिलसिला जनवरी 2009 तक जारी रहा जब तक पन्ना का अंतिम बाघ बचा था।पन्ना में बाघों के गायब होने तक एक बाघ विशेषज्ञ चिल्ला-चिल्लाकर कहता रहा कि यहाँ बाघों का अस्तित्व खतरे में है और उन्हें बचाए जाने के लिए जल्दी ही कुछ किया जाना चाहिए, लेकिन उस विशेषज्ञ की बात पर मध्यप्रदेश के वन विभाग ने कोई कान नहीं धरा। यहाँ बात हो रही है बाघ विशेषज्ञ डॉ. रघु चुंडावत की।इनकी 'द मिसिंग टाइगर आफ पन्ना' नामक रिपोर्ट को भी पार्क के तत्कालीन अधिकारियों द्वारा अनदेखा किया गया और अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए बाघों की संख्या के अतिरंजित आँकड़े पेश किए गए। इस पूरे प्रकरण ने सरिस्का की याद ताजा कर दी। चार साल पहले वहाँ गायब हुए बाघों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर हंगामा खड़ा हुआ था। उस मामले ने इतना तूल पकड़ा था कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह खुद रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान आए थे और उन्होंने पूरे देश के सभी प्रदेशों के वन विभागों के प्रमुखों से इस संबंध में बात की थी। उस दौरान ही राष्ट्रीय स्तर पर 'टाइगर टास्क फोर्स' का गठन हुआ था, जिसका नेतृत्व सीएसई (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट) प्रमुख सुनीता नारायण को सौंपा गया था। बाद में उस समिति ने अपनी बहुचर्चित रिपोर्ट 'जोइनिंग द डाट्स' केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी थी। उस रिपोर्ट में हर उस बात का उल्लेख था जो बाघों के खत्म होने के पीछे कारण बनी थी और हर उस बात का उल्लेख भी था जिसे अपनाकर बाघों को बचाया जा सकता था। यह रिपोर्ट आज भी सीएसई की वेबसाइट पर उपलब्ध है। इतना ही नहीं इस रिपोर्ट को भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून की वेबसाइट पर जाकर भी पढ़ा जा सकता है। यहाँ सरिस्का का उदाहरण इसलिए दिया है क्योंकि वो देश की पहली ऐसी बाघ परियोजना (प्रोजेक्ट टाइगर) है, जहाँ बाघ शिकार के कारण खत्म हो गए थे। उसके बाद राजस्थान के दूसरे प्रोजेक्ट टाइगर रणथम्भौर में भी कमोबेश यही स्थिति बनी। हालाँकि वहाँ बाघ खत्म नहीं हुए थे, लेकिन उनकी संख्या 47 से घटकर मात्र 21 रह गई थी। यानी आधी से भी कम।रणथम्भौर में बाघ कम होने वाली बात भी सबसे पहले अक्टूबर 2004 में इस लेखक ने ही उठाई थी। उन 3-4 सालों में देखा गया कि कैसे वन विभाग के अधिकारी आँकड़ों की हेरा-फेरी करके जनता की आँखों में धूल झोंकते रहते हैं। पर्यटकों को यह पता ही नहीं चलता कि उन्हें जो आँकड़े बताए जा रहे हैं असलियत में बाघ उससे बहुत कम संख्या में बचे हैं।पन्ना प्रकरण के सामने आने के बाद तो ऐसा लगा कि इतिहास ने अपने को दोहरा दिया है। वही गलतियाँ फिर से हुईं। वन विभाग के अधिकारियों ने इन दोनों प्रकरणों में सिर्फ झूठ बोला। बाघ दिखाई नहीं देने के बाद भी सिर्फ यही बताया गया कि बाघ इस जंगल में हैं और उनकी संख्या बढ़ रही है। रणथम्भौर प्रकरण के दौरान वहाँ के प्रसिद्ध बाघ विशेषज्ञ फतेहसिंह राठौड़ की संस्था 'टाइगर वॉच' ने कई बार वहाँ के वन विभाग को चेताया था कि यहाँ बाघों का शिकार हो रहा है, लेकिन अधिकारियों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।आखिर जब मीडिया में इस विषय संबंधी खबरें छपीं तब वसुंधरा राजे की तत्कालीन सरकार की नींद खुली और उसने टाइगर टास्क फोर्स का गठन किया। इस समिति ने भारतीय वन्यजीव संस्थान की मदद से रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान में बाघों की गिनती करवाई जो आश्चर्यजनक रूप से कम निकली। अब सरिस्का और रणथम्भौर की तरह ही पन्ना का भी हाल हुआ है और मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार की नींद भी तब जाकर खुली है, जब पन्ना टाइगर रिजर्व के सभी बाघों का शिकार हो गया है। अब पन्ना में भी भारतीय वन्यजीव संस्थान की मदद से इस पूरे प्रकरण को सुलझाने का प्रयास किया जा रहा है। कान्हा तथा बाँधवगढ़ से बाघ-बाघिनों को लाए जाने की योजना बनाई जा रही है। दो बाघिनें वहाँ लाई भी जा चुकी हैं, लेकिन बाघ ना होने की वजह से वो 'मेटिंग सीजन' होने के बावजूद भी प्रजनन करने में समर्थ नहीं हैं।'प्रोजेक्ट टाइगर' के अनुसार देश में बाघों की हालत खस्ता है। उसकी एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन सालों में 100 से ज्यादा बाघ मारे गए हैं, जिनमें से आधे तो इसी साल (2009) में मारे गए हैं। भारत के विभिन्न प्रदेशों के वन विभागों ने इतने पर भी अपना ढर्रा नहीं बदला और झूठ बोलना जारी रखा तो हमारे देश का राष्ट्रीय पशु एक दिन खत्म हो जाएगा। अगर देश में 'सरिस्का' बार-बार यूँ ही दोहराए जाते रहे तो सभी योजनाएँ धरी की धरी रह जाएँगी।सरकारों को वन विभाग के दावों की किसी गैर सरकारी संगठन या स्वायत्त संस्था से पुष्टि कराते रहनी चाहिए ताकि वन विभाग झूठे आँकड़े पेश करने से पहले कई बार सोच ले। सरकार को 'वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट' और उसके अंतर्गत होने वाली सजाओं को भी सख्ती से लागू करना चाहिए ताकि बाघों तथा अन्य वन्यजीवों की हत्या करने वालों को यह पता चल जाए कि वो एक जघन्य कृत्य कर रहे हैं और उसकी उन्हें सख्त सजा मिलेगी।अगर प्रदेश सरकारें यह सख्त रवैया अपनाएँगी तभी वे अपने यहाँ के जंगलों और उनमें रहने वाले वन्यजीवों को बचा पाएँगी। अगर ऐसा नहीं हो पाया तो देश के जंगलों में वन्यजीव आँकड़ों में तो जीवित दिखेंगे, लेकिन असलियत में नहीं।
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